हिंदी कविता (छायावाद के बाद)/बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर
केदारनाथ सिंह
तीन दिन हुए
मैंने बर्लिन में देखे नहीं कौए
लेकिन क्यों कौए?
इस भारतीय कवि को क्यों चाहिए कौए
इस सुंदर शहर में जबकि आसमान उतना ही नीला है
बिन कौओं के भी!
यह एक छोटा-सा होटल है
जहाँ हम कुछ हिंद-पाक लेखक
ठहरे हैं साथ-साथ
और हमारे पासपोर्ट चाहे जो कहते हों
यहाँ हममें से हरेक थोड़ा-थोड़ा हिंद है थोड़ा-थोड़ा पाक
हम साथ-साथ खाते हैं
पीते हैं साथ-साथ
हँसते-हँसते कभी-कभी हो जाते हैं उदास भी
यह साथ-साथ हँसना
उदास होना साथ-साथ
एक दुर्लभ अनुभव है
एक वेदेशी ज़मीन पर
वहाँ बाहर
मेरी खिड़की से दिखते हैं
दो वायुयान जैसे दो कबूतर
दो महायुद्ध - वहाँ बेंच पर बैठे
वृद्धों की स्मृति में ठांय-ठांय करते हुए
एक ताज़ा चुम्बन किन्हीं होंठों से गिरकर
वहाँ घास पर पड़ा हुआ
पर मेरी खिड़की से दिखती है
बर्लिन की टूटी हुई दीवार भी
और देखता हूँ कि उसके चारों ओर
लगा रही है चक्कर एक पागल स्त्री
न जाने कब से।
कहीं कुछ है कील की तरह
उसकी आत्मा में ठुंका हुआ
कि रुकने देता नहीं उसे
और वह बार-बार
आ रही है
जा रही है
उधर से इधर
और इधर से उधर...
इधर एक छोटी सी महफिल में
सुन रहे हैं हम अहमद फ़राज़ को
कोई ताज़ा ग़ज़ल सुना रहे हैं वे
झूम रहे हैं सब
झूम रहा हूँ मैं भी
पर मेरी आँखें खिड़की के पार
बर्लिन की उस टूटी दीवार पर टिकी हैं
जहाँ वह पागल स्त्री ग़ज़ल को चीरती हुई
लगाए जा रही है चक्कर पर चक्कर...
जैसे कोई बिजली कौंध जाए
एक दबी हुई स्मृति
झकझोर जाती है मुझे
और मुझे लगता है कहीं मेरे भीतर भी है
एक पागल स्त्री
जो दरवाजों को पीटती
और दीवारों को खुरचती हुई
उसी तरह लगा रही है चक्कर
मेरे उपमहाद्वीप के विशाल नक्शे में
न जाने कब से
देखता हूँ कि ग़ज़ल के बीच में
कोई मिसरा भूल रहे हैं अहमद फ़राज़
पिछले शेर और अगले के बीच का
एक अजब-सा सन्नाटा
भर गया है कमरे में
पर मुझे लगता है मेरे भीतर की वह पागल स्त्री
अब एक दीवार के आगे खड़ी है
और चीख रही है - यह दीवार ...
आख़िर यह दीवार
कब टूटेगी?
इतने बरस हुए
ग़ज़लों से भरे इस उपमहाद्वीप में
मुझे एक भूले हए मिसरे का अब भी इंतज़ार है