हिंदी कविता (छायावाद के बाद) सहायिका/बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर
"बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर'' एक प्रश्न करती हुई कविता है। यह दुःख के रसायन को थोड़ा और संघनित करते हुए एक ऐसी मार्मिक कविता का रूप अख्तियार करती है, जो आपसी रिश्तों के सामंजस्य को बड़े फलक पर विमर्श का हिस्सा बनाती है। केदारनाथ सिंह इस उपक्रम में उतने ही सफल साबित हुए हैं, जितना कि इस कविता की तमाम वे सारी चीजें, जो साथ-साथ रहते हुए भी उदास होने की शर्तों पर सफल साबित हुईं हैं।
सन्दर्भ
सम्पादन" बर्लिन की टूटी दीवार को देखकर " कविता प्रसिद्ध साहित्यकार एवं वरिष्ठ कवि डाँ. केदारनाथ सिंह द्वारा रचित है
सुप्रसिद्ध साहित्यकार मुरलीलाधर मंडलोई के शब्दों मे, "केदानरनाथ सिंह की कविताओं में परंपरा और आधुनिकता का सुन्दर ताना-बाना है । यथार्थ और फ़ंतासी, छंद और छंदेतर की महीन बुनावट उनके काव्य-शिल्प में एक अलग रंग भरती है ।"
प्रसंग
सम्पादनकविता मे कवि आज के निहायत , क्रुर एवं अराजक सयम को प्रस्तुत किया है। यह कविता समाज , देश एवं आपसी रिश्ते के संवेदनात्मक सूत्रों की रेशां-रेशां पडताल करती है। वह मर्मस्पर्शिता का उत्कर्ष प्राप्त करने के साथ ही प्रश्नो और जिज्ञासाओं की असंख्य टिमटिमाती डर्कियो मे बदल जाती है। जो मनुुष्य और उसके आत्मीय दायरेे के बारे मेंं अपनी उपस्थिति को और भी अधिक भावप्रवण बनाते हैं
व्याख्या
सम्पादनकवि ने बर्लिन की टूटी दीवार देखकर अपने देश की स्थिति का तनावपूर्ण पक्ष स्मरण हो उठता है। वे कहते हैं कि तीन दिन हो गए है लेकिन मैंने अभी तक कोई कौए नहीं देखे हैं लेकिन प्रथम यह है कि कवि आखिर कौओे को यह भारतीय कवि अपने यहाँ क्यों बुलाना चाहते हैं। जबकि भारत का आसमान तो सुंदर और नीला है। अर्थात् भारत तो आजाद है फिर कवि किस लिए कौओं को याद करता है, उस बर्लिन की दीवार को याद करता है। कवि अपने देश भारत को एक छोटे से होटल के माध्यम से सहझता हुआ कहता है कि जैसे हम रहते हैं यह कुछ-कुछ हिन्दुस्तान जैसा है और कुछ-कुछ पाकिस्तान की भांति है। जहाँ दोनों प्रकार के लोग रहते हैं। भारत में और पाकिस्तान में कोई अंतर नहीं है पासपोर्ट तो बहाना भर है वस्तुतः यहाँ कवि के अंदर का भारत-पाक विभाजन की त्रासदी उभर कर आई है। कवि कहता है कि हम थोड़े -थोड़े हिन्दुस्तानी और थोड़े-थोड़े पाकिस्तानी हैं। हम यहाँ एक साथ खाते हैं, पीते हैं, साथ-साथ हंसते हैं और उदास होते है इसलिए हिन्दू और मुसलमान, हिन्दुस्तान और पाकिस्तान में कोई अंतर नहीं हैं।
- कवि ने अपने देश में हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच के मानसिक तनाव को व्यक्त किया है। कवि चाहता है कि बर्लिन की दीवार की तरह भारत में भी यह अदृश्य दीवार टूटनी चाहिए। वे कहते हैं कि हिन्दू और मुसलमान एवं साथ यहाँ रहते हैं, हँसते हैं, उदास होते हैं यह एक दुर्लभ अनुभव सा है। एक विदेशी जमीन पर दोनों का एक साथ जुड़कर रहना मुश्किल सा दिखता है। वे लिखते हैं कि मेरे घर की खिड़की से दो हवाई जहाज जैसे कबूतर दिखाते हैं उन्हें देखकर कवि को दो महायुद्धों की स्मृति हो आती है अतीत के झरोखे से कवि को कुछ हिंसक और कुछ प्रेम की सुखद स्मृतियाँ याद आती है कवि अपनी खिड़की से बाहर पुनः बर्लिन की दीवार देखता है जिसके चारों और एक पागल स्त्री चक्कर लगाती है यह पागल स्त्री कोई और नहीं हमारी भावना है जो बार बार हमें बेचैन करती हैं जो चाहकर भी एक और रूकने नहीं देती है अपितु इधर-उधर आती जाती हैं।
- कवि के अंतर्गत मे एक छोटी सी महफिल चल रही है जिसमें कवि अहमद फराज को सुन रहा है वे उनकी ताजा गजल सुन रहे है और झूम रहे है अर्थात कवि के अंतर उर्दू और उर्दू जुबां वाले मुस्लिम भाईयों के आनंद का आत्मीय भाव झलक रहा है. लेकिन रह- रहकर उन्हें खिड़की से बाहर बर्लिन की टूटी दीवार दिखती है। जहाँ उन्हें बार-बार वह पागल स्त्री चक्कर लगाती दिखती है। वह स्त्री उस गजल को चीरती जाती है। अर्थात कवि ने अंंदर के आनंद को हिन्दू-मुस्लिम के भेद को ओर गहरा देती है। विषाद पैदा कर देती है। वह पागल स्त्री कवि के मन मे बिजली की भाँति कौंध जाती है और दबी हुई स्मृति को झकझोर देती है। कवि को स्पष्ट लगता है कि वह मेरे भीतर ही है ।
- कवि अपनी मानसिक द्वंद्व भावना को व्यक्त करते हुए कह रहा है कि वह पागल स्त्री जो बर्लिन की दीवार के पास चक्कर लगाती प्रतीत होती है वह उन दीवारों को खरोचती और दीवारों को पीटती दिखती है और वह लगातार उपमहाद्वीपों के भी कब से चक्कर लगा रही है। अर्थात भेदभाव की दीवार को तोड़कर जाने की चाहत रूपी वह पागल स्त्री कवि के अंदर खलबली मचाती है। अर्थात् यह भेदभाव की दीवार ढहाने की चाह कवि की भी है। कवि कहता है कि मेरे अंदर जो अहमद फराज ग़ज़ल गा रहे हैं वे कभी-कभी पिछला शेर या अलगा शेर पूल जाते हैं तो एक अजब सा सन्नाटा छा जाता है अर्थात् कवि के अंदर का आंनद पल भर लिए छू हो जाता है। और फिर से वहीं पागल स्त्री दीवार के चक्कर लगाने लगती है। कवि के मन मे चक्कर काटनेवाली पागल स्त्री वह सोचती है कि न जाने यह दीवार (भेदभाव की) कब टूटेगी। कवि कहता है बहुत बरस बीत गए है अभी तक एक भूले हुए मिसरे की भाँँति इस भेदभाव को भुलाकर प्रेम और सौहार्द की इंतजार हैं।
विशेष
सम्पादन- कविता मेंं विभाजन संबंधी पीड़ा झलकती है ।
- कवि बर्लिन की दीवार की भाँति " हिन्दू और मुसलमानों के बीच खड़ी अदृश्य दीवार " को तोड़ना चाहते हैं ।
- बिंबात्मकता है ।
- वैचारिक कविता है ।
- मिश्रित शब्दावली है ।
- भाषा मेंं सहजता है ।
- पुनरुक्ति प्रकाश अलंकार का प्रयोग जैसे - ठाँय-ठाँय , थोड़ा-थोड़ा , हँसते-हँसते आदि ।
- कवि ने बिजली , गजल जैसे उपमानों से अपने अंतर्गत की वैैैचारिकता को प्रकट किया है ।