हिंदी कविता (छायावाद के बाद) सहायिका/रघुवीर सहाय

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रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय
रघुवीर सहाय की काव्य संवेदनाएं

जीवन परिचय – रघुवीर सहाय समकालीन हिंदी – कविता के संवेदनशील कवि हैं। उनका जन्म सन् 1929 ई० में उत्तर प्रदेश के लखनऊ में हुआ था। उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय से | 1951 में एम० ए० अंग्रेज़ी की परीक्षा उत्तीर्ण की। M.A. करने के पश्चात् ये पत्रकारिता क्षेत्र में कार्य करने लगे। इन्होंने ‘ प्रतीक ‘, ‘ वाक् और ‘ कल्पना ‘ अनेक पत्रिकाओं के संपादक मंडल के सदस्य के रूप में भी कार्य किया। तत्पश्चात् कुछ समय तक आकाशवाणी में ऑल इंडिया रेडियो के हिंदी समाचार विभाग से भी संबद्ध रहे। ये 1971 से 1982 तक प्रसिद्ध पत्रिका दिनमान के संपादक रहे। इनको कवि के रूप में ‘ दूसरा सप्तक ‘ से विशेष ख्याति प्राप्त हुई। इनकी साहित्य सेवा भावना के कारण ही इनको साहित्य अकादमी सम्मान से सम्मानित गया। अंत में दिल्ली में सन् 1990 ई० में ये अपना महान् साहित्य संसार को सौंपकर चिरनिद्रा में लीन हो गए।

रघुवीर सहाय की काव्य संवेदनाएं:-

रघुवीर सहाय की कविता अपने समय, समाज, राजनीति तथा परिवेश के तनाव की निरीछल अभिव्यक्ति है उनके कविता न तो अनुकरण और न किसी लीक पर चली है. उन्होंने आज की कविता के दौर में एकदम नया मार्मिक निस्संग और निर्वेव्यक्ति काव्य-मुहावरा दिया जिससे नवीन सृजन संभावनाओं को नया अर्थ मिला है. रघुवीर सहाय की'आत्महत्या के विरुद्ध हंसो हंसो जल्दी हंसो'और'भूल गए हैं'अधिकांश कविताएं राजनैतिक संस्थाओं और समाज व्यवस्था से मिलने वाले जीवन मूल्य की अमूर्ताता की साधारण-सी सच्चाईयों को निर्धारित और नियंत्रित करती है. उनकी 50 कविताओं में हमारी समकालीन अमानवीयता,हिंसा,परपीड़न,संवेदनहीनता,संताप, भय,आतंक,स्मृति और आशंका आदि के संदर्भ को पहचाना गया है. उनका काव्य-बोध किस प्रकार बहुआयामी और सघन होता गया है यह उनके पहले काव्य संग्रह'सीढ़ियों पर धूप में'की कविताओं में देखा जा सकता है.इन कविताओं में आसपास के परिवेश,प्राकृति सहज-जीवन,तप और सौंदर्य के प्रति एक बुनियादी करुणा-भाव की प्रधान है. बुनियादी करना कि यही भाव उनकी आठवें और नौवें दशक की कविताओं में भी मिलता है.पर अब इसमें समकालीन दुनिया की अमानवीयता सत्ता की दहशत पैदा करने वाली संस्कृति और कमजोर आदमी को बेचारोगी के एहसास जुड़ गए हैं. रघुवीर सहाय के काव्य में आ सकती और आसक्ति और अनाशक्ति,प्रेम-घृणा, जीवन और मृत्यु के गंभीर और व्यंग्य,आत्मतीयता और अडिग का एक ऐसा विलक्षण रसायन तैयार हुआ है कि हमारे वर्तमान का समस्त हाहाकार उठ जा आया है.

रघुवीर सहाय की कविता में मामूली आदमी विषय-वस्तु बना है समाजिक प्रशनाकुलताओं, विसंगतियों, विद्रपताओं और विडंबनाओं ने ही रघुवीर सहाय को कभी बनाया है.वे खतरनाक ढंग से गहराई में जाकर सोचने-समझने वाले व्यक्ति और रचनाकार है और यही उनके काव्य का संपूर्ण चरित्र है. उनके काव्य का यह चरित्र तुलसीदास, भारतेंदु, राम नरेश त्रिपाठी निराला और मुक्तिबोध के काव्य-चरित्र से मेल खाता है. कहना न होगा कि वह भारतेंदु, निराला और केदारनाथ अग्रवाल की लोक जागरण परंपरा के कवि हैं वह किन कवियों से प्रभावित रहे उनका उल्लेख करते अवश्य रहे हैं, पर उनकी कविता की टोन काव्य-दृष्टि, काव्य-भाषा, काव्य-विषय राजनीतिक चिंतन और कभी स्वभाव उससे भिन्न ही रहा है. आज समाज मार रहा है देश सिकुड़ रहा है. कवि इस चिंता में घुले जा रहा है.बुद्धिजीवी निरर्थक बहस डूबे हैं.अफसर रिश्वत के जाम चढ़ा है. राजनीतिज्ञ ने भाई-भतीजा की अपनी खुराक बना कर रख छोड़ा है संसदीय तंत्र खोखला हो रहा है चापलूसी और मसखरों कि चारों और भीड़ दिखाई दे रही है इस भीड़ में मुस्टंडा विचारक, महासंघ का मोटा अध्यक्ष,भीमकाय भाषाविद्व,फर्ज धोता कथाकार, उपकुलपति,विधायक,सांसद,सचिव, डॉक्टर, प्रधानमंत्री न्यायाधीश जिलाधीश,पत्रकार बस हैं-

लोगों मेरे देश के लोगों और उनके नेताओं मैं सिर्फ एक कवि हु मैं तुम्हें रोज रोटी नहीं दे सकता ना उसके साथ खाने के लिए गम ना मैं मिटा सकता हूं शुगर के विषय में तुम्हारा संभ्रम जनतंत्र का आसन विनाश को देखकर सहाय की कविता याद आती है'आपकी हंसी' और खास तौर पर यह पंक्तियां-'लोकतंत्र का अंतिम क्षण, कहकर आप हंसे' इसे आप हंसी नहीं कह सकते, यह तो चिंता है और चिंता की है बेचैनी कवि के भीतर ही भीतर सुलगलगती रहती है. उनकी कविता आस्तवतत्ववादी दर्शन के भीतर मौजूद 'हत्या'के विरोध में खड़ी हो जाती है.'आत्महत्या के विरुद्ध','हंसो हंसो जल्दी हंसो' जैसे काव्य संग्रह की कविताओं पर परिवेश की हत्या का दवाव है. यह दबाव,सामाजिक,राजनैतिक अमानवीय ,और दुच्चेपन के भीतर से उत्पन्न हुआ है.हिंसा की राजनीति में मामूली और श्रमजीवी आदमी मारा जा रहा है. कभी ने अपनी कविता में समाज की शून्यता पद-पद पर कही है आजादी के बाद जो मोह-भंग हुआ,वह न थमने वाला दर्द बनकर रह गया. जिस स्वाधीनता को प्राप्त करने के लिए पीढ़ियों के प्राण दिए, युद्ध लड़े हम उनसे सामाजिक और आर्थिक आजादी नहीं दे पाए. रघुवीर सहाय जन की पीड़ा को पूरी शिद्दत के साथ उबरना चाहते हैं,यही उनके काव्य का आदर्श है. 'आत्महत्या के विरोध' के कवि वक्तव्य में वे कहते हैं और एक ही सही रास्ता है कि मैं सब सेनाओं में लड़ सकूँ किसी भी डाल सहित, किसी में निष्कवच होकर मगर अपने को अंत में मरने सिर्फ अपने मोर्च पर ही दूँ. अपनी भाषा के शिल्प और उस दोतरफा जिम्मेदारी के मोर्चे पर,जिसे साहित्य कहते हैं. उनके काव्य में जीवन की ज्यादा गहरी चिंताएं जुड़ी हुई हैं.'शक्ति दो'कविता का संकल्प और करुणा से शक्ति पाने को काव्य प्रतिमा भी उनमें थी.इससे उनकी कविता में लगातार निखार आता रहा-

शक्ति दो, बल दो हे पिता तुम जब दुःख के बाहर से मन के थकने को आए और यही नहीं दो तो यही कहो अपने पुत्र और छोटे भाइयों के लिए यही कहो.. कैसे तुमने किया होगा, अपने पीडों में क्या उपाय कैसे तुमने किया होगा,पिता,कैसे तुम बचे होंगे तुमसे मिला है जो विक्षत जीवन का हमें दया उसे क्या करें तुमने जो दी है अनाह्ट जिजीविषा उसे क्यों करें??

'लिखने का कारण'मे कवि कहते हैं- ऐसी ताकतें काम कर रही हैं जो अपनी कोशिशों को खत्म कर देती है.एक जगह ऐसी आती है जहां दहशत जिंदगी का यथार्थ अनुभव बन जाती है."यथार्थ का यह अनुभव 'सभी लुजलुजे'है "कविता में अवलोकनीय है-

खौंखियाते हैं किंकियातें हैं घुलातें हैं चुल्लू मे उल्लू हो जाते हैं भिनभिनातें हैं कुड़कुड़ातें हैं साएँ साएँ करते हैं रिरियातें हैं गरजते हैं घिघियातें हैं ठीक वक्त पर चीं बोल जाते हैं पूंजीवादी व्यवस्था की भीतरी मानने आदमी को घरों में,चौराहों में बेदम कर दिया है'प्रभु की दया'कविता व्यंग्य की धार को और निकलती है-

बिल्ली रास्ता काट जाया करती है 
प्यारी-प्यारी औरतें हरदम वक्त करती हैं 
चांदनी रात को मैदान में खुले मवेशी
आकर चलते हैं
और प्रभु यह तुम्हारी दया नहीं तो और क्या है
कि इनमें आपस में कोई संबंध नहीं.

'पढ़िए गीता'कविता में जिंदगी के उखेड़पन पर

दर्द है-
        पढ़िए गीता 
        बनिए सीता 
        फिर इन सब में लगा पली पलीता 
        किसी मूर्ख को ही परिणीता 
        निज घर-बार  बसाइये 
        हुए कटीली
        आंखें गीली 
        लकड़ी सिली
        तबियत ढीली  
        घर घर की सबसे बड़ी पतीलों  
        भर भर भात पकाइए. 

'कल्पना'में प्रकाशित एक लेख में सहाय कहते हैं- "लेखक के लिए राजनीति से अलग रहना हर हालत में बेईमानी है.परंतु राजनीतिक पार्टी का गुलाम हो जाना सिर्फ उसी हालत में बेईमानी है, जब आप यह हरकत समाज के नाम पर कर रहे हों? "

छठे दशक की राजनीति ने गलत मोड़ ले लिया. इस स्थिति से निपटने के लिए कवि ने गलत व मूल्यहीन व्यवस्था का सीधा विरोध किया.कभी आत्महत्या के विरुद्ध खड़ा हो गया, उसने दृष्ट परिवेश में लड़ाई लड़ी. लोकतंत्र को अश्लील मजाक में बदलने वाले नेताओं,संस्थाओं के चरित्र पर प्रहार किया-

 कुछ होगा कुछ होगा अगर मैं बोलूंगा
 न टूटे,न टूटे  तिलिस्म सत्ता का मेरे 
 अंदर एक कायर टूटेगा टूट 
 मेरे  मन टूट एक बार सही तरह 
 अच्छी तरह से टूट मन,झूठ-मुठ अब मत रूठ
 मत डूब सिर्फ टूट बरसों के बाद 
 वह आया बैठ गया आदतन एक बहस छोड़कर 
 गया एकाएक बाहर जोरों से नकली दरवाजा 
 भेड़कर 
 दर्द दर्द मैंने कहा क्या अब नहीं होगा

उनकी काव्य-कला की एक विशेषता यह है कि उन्होंने सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की'कुआनो नदी' या धूमिल की 'पटकथा' जैसी लंबी कविताएं लिखी हैं. उनकी छोटी से छोटी कविताओं में ही जीवन का पर्याप्त वैविध्य है महाकाव्य के गिनाए जाने वाले-वर्ण्य विषय लंबी सूची अनावश्यक ही स्मरण हो उठती है.मेरा एक जीवन 30 पंक्तियों की छोटी सी कविता पर उसमें जीवन का ज्ञान अनुभव है.

कुछ कविता : 1."मत पूछना हर बार मिलने पर कि "कैसे हैं" सुनो, क्या सुन नहीं पड़ता तुम्हें संवाद मेरे क्षेम का, लो, मैं समझता था कि तुम भी कष्ट में होंगी तुम्हें भी ज्ञात होगा दर्द अपने इस अधूरे प्रेम का।"

"जब तुम बच्ची थीं तो मैं तुम्हें रोते हुए नहीं देख सकता था

अब तुम रोती हो तो देखता हूँ मैं !"

2."एक शोर में अगली सीट पे था दुनिया का सबसे मीठा गाना एक हाथ में मींजा दिल था मेरा एक हाथ में था दिन का खाना।"


3.राष्ट्रगीत में भला कौन वह भारत-भाग्य-विधाता है फटा सुथन्ना पहने जिसका गुन हरचरना गाता है

4.कैसे उत्साह से अपनी उन्नति की ख़बर वह बताता है

बोलते बोलते जैसे कि देश की दरकी हुई धरती पर कूदता कूदता उससे कहीं बाहर जान लेकर भाग जाता हो 5.हँसो तुम पर निगाह रखी जा रही जा रही है

हँसो अपने पर न हँसना क्योंकि उसकी कड़वाहट 
पकड़ ली जाएगी
और तुम मारे जाओगे
ऐसे हँसो कि बहुत खुश न मालूम हो
वरना शक होगा कि यह शख़्स शर्म में शामिल 
नहीं
और मारे जाओगे