हिंदी कविता (रीतिकालीन)/केशवदास
केशवदास
केशवदास
( वन गमन वर्णन )
द्रुतविलम्बित:- विपिन मारग राम बिराजहीं। सुखद सुन्दरि सोदर भ्राजहीं॥ विविध श्रीफल सिद्ध मनों फलो। सकल साधन सिद्धिहि लै चलो॥
शब्दार्थ:- श्री शोभा। फल तपस्या के फल, साधन-संयम, नियम, ध्यानादि सिद्धजनों के कर्त्तव्य सिद्ध अष्ट सिद्धियां (अणिमा, महिमा, गरिमा, लघिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, इशित्व और वशित्व)।
भावार्थ:- राम जी वन मार्ग से जाते हुए शोभा पा रहे हैं, साथ में सुखप्रद पत्नी (सीता) और भाई लक्ष्मण भी शोभा दे रहे हैं। ऐसाजान पड़ता है मानो कोई सिद्ध पुरुष (महात्मा योगी) अपनी तपस्या में सफल होकर शोभा पा रहा है और अपने साधनों और प्राप्त सिद्धियों को समेट कर अपने घर जा रहा है।
(राम जी सिद्ध हैं, लक्ष्मण साधन हैं, सीता जी एकत्रीभूत सिद्धियां हैं)।
अलंकार- उत्प्रेक्षा
दोहा- राम चलत सब पुर चल्यो, जहं तहं सहित उछाह। मनो भगीरथ पथ चल्यो, भागीरथी प्रवाह॥
भावार्थ:- राम के चलते ही जहां-तहां से समस्त पुरवासी जन भी बड़े उत्साह से नगर छोड़कर उनके पीछे चले मानो राजा भगीरथ के पीछे गंगा की धारा बह चली हो । अलंकार- उत्प्रेक्षा
(जगनमोहन दण्डक)
दण्डक:-
किधौं यह राजपुत्री वरही बरी है,
किधौं उपदि बर्यो है यह सोभा अभिरत हौ। किधौं रतिनाथ जस साथ केसोदास। जात तपोबन सिव बैर सुमिरत हौ। किधौं मुनि साप हत किधौं ब्रह्मदोषरत, किधौं सिद्धि युत सिद्ध परम बिरत हौ।। किधौ कोऊ ठग हौ गठौरी लीन्हे किधौं तुम, हर हरि श्री हौ सिवा चाहत फिरत हौ।।
भावार्थ:- (लोग पूछते हैं) या तो तुमने इस राजपुत्री को जबरदस्ती विवाहा है, या इसने ही माता-पिता की इच्छा के विरुद्ध केवल अपनी इच्छा से तुम को बुरा है (इसी से डर कर वन-वन छिपे करते हो), तुम ऐसे सुन्दर हो ( कि क्या कहें ) केशवदास कहते हैं कि या तो तुम तीनों (रति, काम और संसार विजयी होने का) सुयश हो- (लक्ष्मण जी सुयश रूप हैं) और शिव का बैर स्मरण करके वन में एकान्तवास करने जा रहे हो या किसी मुनि द्वारा शापित व्यक्ति हो, या किसी ब्राह्मण का कुछ दोष करने में मन लगाये हो (अतः रूप बदले वन में फिर रहे हो घात पाकर हत्या करोगे) या सिद्धि प्राप्त कोई परम विरागी सिद्ध पुरुष हो या तुम दोनों पुरुष (राम और लक्ष्मण) विष्णु और शिव हो । जिनके साथ लक्ष्मी तो हैं पर (खोई हुई) पार्वती को खोजते फिरते हो ( बतलाओं तुम हो कौन ) । अलंकार- संदेह
चंचरी:- कौन हो कित तु चले जात हो केहि काम जू? तू कौन की दुहिता बहू कहि कौन की यह बाम जू।। एक गांउ रहो कि साजन मित्र बन्धु बखानिये। देश के परदेश के किधौं पंथ की पहिचानिये॥
शब्दार्थ:-
दुहिता-पुत्री। बहू पुत्रबधू। बाम स्त्री | साजन आदरणीय सज्जन । किधौ पंथ की पहिचानिये-या तुम में सिर्फ रास्ते ही भर की जान पहचान है, पंथ के साथी ही हो । तात्पर्य यह कि तुम तीनों गांव के हो, एक कुल के हो या केवल मार्ग ही के साथी-संगी हो ।
भावार्थ:-सरल है। अलंकार- सन्देह
मत्तमातंगलीलाकरण दंडक:- मेघ मंदाकिनी चारू सौदामिनी रूप रूरे लसे देहधारी मनो। भूरि भागीरथी भारती हंसजा अंश के है मनो, भगो भारे भनो। देवराजा लिये देवरानी मनो पुत्र संयुक्त भूलोक में सोहिये। पक्ष दूं संधि संध्या सधी है मनों लक्षिये स्वच्छ प्रत्यक्ष ही मोहिये ।
शब्दार्थ:- मंदाकिनी आकाशगंगा सौदामिनी बिजली। रूरे सुन्दर भागीरथी=गंगा। भारती=सरस्वती (नदी) | हंसजा-सूर्यकन्या, यमुना पक्ष दू-दोनों पक्ष (कृष्ण और शुक्ल)। संधी हैं परस्पर संधित हैं (एक दूसरे से जुड़ी हुई एकत्र है)। लक्षिये=लखते हैं, देखते हैं। स्वच्छ अति निर्मल प्रत्यक्ष ही इन्हीं चर्मचक्षुओं से (देखते हैं)।
मानो मेघ, आकाशगंगा और बिजली ही देहधारी होकर सुन्दर रूप से शोभा दे रहे हैं राम मेघ हैं, जानकी आकाशगंगा है और लक्ष्मण बिजली है। या यों कहो कि अनेक गंगा, सरस्वती और यमुना अंशों के देहधारी रूप हैं, जो इनके दर्शन कर रहे हैं उनका बड़ा सौभाग्य है (इनके दर्शन अनेक तीर्थराज प्रयाग के समान पुण्यप्रद है) अथवा मानो इन्द्र महाराज इन्द्राणी और अपने पुत्र जयंत को लिए हुए भूलोक की शोभा बढ़ा रहे हैं। या मानो दोनों पक्षों की सन्धि (पूर्णमासी या श्रमावास) की तीनों संध्यायें सन्निकट होकर एकत्र हो गई हैं जिन्हें प्रत्यक्ष ही अत्यन्त निर्मल देखकर मन मोहित होता है।
सूचना:- सामवेदी संध्या में यह प्रमाण है कि प्रात: संध्या का रंग लाल, मध्याह्न संध्या का रंग श्वेत तथा सायं-संध्या का रंग श्याम है। इस उक्ति से यह भी लक्षित होता है कि केशवदास जी सामवेदी संध्या ही किया करते थे (अर्थात् सामवेदी सनौढ़िया ब्राह्मण थे)। अलंकार- उत्प्रेक्षा
(अनगशेखर दंडक)
तड़ाग नीरहीन ते सनीर होत केशोदास, पुंडरीक झुंड भौंर मंडक्लीन मंडही। तमाल वल्लरी समेत सूखि सूखि कै रहे, ते बाग फूलि फूलि कै समूल सूल खंड ही॥ चितै चकोरिनी चकोर मोर मोरनी समेत, हंस हंसिनी सुकादि सारिका सबै पढ़े। जहीं जहीं बिराम लेत राम जू तहीं नहीं, अनेक भांति के अनेक भोग भाग सो बढ़े॥
शब्दार्थ:- पुंडरीक कमल । बल्लर लत। सूल दुःख विराम लेत-ठहर कर सुस्ताते हैं, ठहरते हैं।
भावार्थ:- सरल ही है।
( सीता मुख वर्णन )
प्रकर्ष दंडक:- बासों मृग अंग कहें तोसों मृगनैनी सब, वह सुधाधर तुहूं सुधाधर मानिये। वह द्विजराज तेरे द्विजराजि राजै, वह कलानिधि तुहूं कलाकलित बखानिये। रत्नाकार के हैं दोऊ केशव प्रकाशकर, अम्बर बिलास कुवलय हितु मानिये। वाके अति सीत कर तुहूं सीता सीतकर, चन्द्रमा सी चन्द्रमुखी सब जग जानिये॥
शब्दार्थ:- सुधाधर=सुधा है अधर में जिसके द्विजराजि दांतों की पंक्ति। कलाकलित चौंसठ कलाओं को जानने वाला रत्नाकर 1. समुद्र, 2. रत्नसमूह, रत्न जटित आभूषण अम्बर विलास 1. आकश में है विलास जिसका 2. जो सुन्दर वस्त्रों से शोभित है। कुवलय हितु 1. कुमोदिनी का हितैषी, 2. पृथ्व मंडल (कु पृथ्वी+वलय मंडल) की हितैषिणी सोतकर 1. ठंढी किरणें, 2. सन्ताप हारिणी (दर्शकों को आनंनदायिनी ।
भावार्थ:- (ग्रामवासिनी स्त्रियों में से एक सीता के प्रति कहती है) हे चन्द्रमुखी सीता, सब जग निवसी तुझे चन्द्रमा के समान जानते हैं। (जो गुण चन्द्रमा में हैं वे सब तुझ में भी हैं अर्थात्) उस चन्द्रमा को लोग मृगांक क हैं तो तुझे भी सब लोग मृगनैनी कहते हैं; वह सुधाकर (अमृतधारी) है तो तू भी ओठों में सुधा रखती है; वह द्विजराज है तो तेरे भी दन्तपंक्ति द्विज (राज) शोभित है, वह कलानिधि (कला-कला करके बढ़ने वाला) है तो तू भी चौंसठ कलाओं की जानकारी से युक्त है; तुम दोनों रत्नाकर के प्रकाशक हो- अर्थात् चन्द्रमा आकाश में विलास करता है और तेरे शरीर पर वस्त्र विलास करते हैं, चन्द्रमा कुमोदिनी का हितू है तू तो भूमंडल (कु वलय) की हितैषिणी है (पृथ्वी की कन्या होने से); उस चन्द्रमा की किरणें शीतल हैं, तो तू भी दर्शकों के संताप (त्रिताप) हर करके उनके चित्त को शान्ति रूपी शीतलता देने वाली है अतः तू चन्द्रमा से किसी गुण में कम नहीं। अलंकार:- श्लेष से पुष्ट उपमा ।
मनहरण दण्डक:- कलित कलंक केतु, केतु अरि सेत गात, भोग योग को अयोग रोग ही को थल सो। पून्यो ई को पूरन पै आन दिन ऊनो ऊनो, छन छन छीन होत छीतर के जल सो। चन्द्र सो जो बरनत रामचन्द्र की दोहाई, सोई मतिमंद कवि केशव मुसल सो। सुन्दर सुवास अरू कोमल अमल अति, सीता जू को मुख सखि केवल कमल सो॥
शब्दार्थ:- कलित कलंक केतु-कलंक केतु से युक्त (भारी कलंकी)। केतु अरि-केतु है शत्रु जिसका राहु और केतु को ही एक मान कर केश्व ने ऐसा लिखा। ऊनो अपूर्ण छीलर उथला जलाशय (थोड़ा जल और अधिक कीचड़ वाला जलाशय) । मुसल-मूसल (मूर्ख)।
भावार्थ:- दूसरी स्त्री उसके मत का खंडन करती हुई अपनी उक्ति लड़ाती है) हे सखी! सीता जी का मुख केवल कमल सा है चन्द्रमा के समान नहीं, क्योंकि चन्द्रमा तो भारी और प्रसिद्ध कलंकी है, केतु उसका शत्रु है, वह श्वेतांग भी है (कुष्ठरोगी है), भोग योग के अयोग्य है, रोगी है (क्षय रोग है), शुक् पक्ष में भी केवल पूर्णिमा को ही होता है अन्य दिनों तो अपूर्ण ही रहता है, कृष्णपक्ष में तो उथले जलाशय के जल की भांति प्रतिदिन क्षीण ही होता है। सीता जी के मुख को जो कवि चन्द्रमा सा कहता है वह मतिमंद पक्का मूसरचन्द (महामूर्ख) है। सीता जी का मुख तो इन दोषों से रहित तथा सौंदर्य, सुगंध, कोमलता और स्वच्छता से युक्त है, अतः केवल कमल के समान है चन्द्रसम नहीं। अलंकार- उपमा ।
(अन्य उवाच)
दण्डक:- एकै कहै अमल कमल मुख सीता जूको, एकै कहै चन्द्र सम आनन्द को कंद री। होय जो कमल तो रयनि में न सकुचै री, चन्द जो तो बासन न होती दुति मंद रही। बासर ही कमल रजनि ही में, चन्द्र मुख, बाहर हू रजनि बिराजै जगबंद री। देखे मुख भावै अनदेखई कमल चन्द्र, ताते मुख मुखै सखी कमलै न चंद री॥
शब्दार्थ:- आनंद को कंद-आनंद बरसाने वाला बादल। रथनि (रजनि) रात्रि । जगबंद-जगत भर से वंदनीय अनदेखई कमल चंद-बात यह है कि कमल और चन्द्रमा अपने गुणों और प्रभाव के बदौलत ही अच्छे समझे जाते हैं। इ वास्तविक रूप देखने में सुन्दर नहीं।
भावार्थ:- (तीसरी स्त्री दोनों का मंत खंडन करके कहती है) कोई कहता है सीता जी का मुख कमल-सा है, कोई कहता है चन्द्र-सा आनन्ददायक है। पर मैं कहती हूँ कि यदि कमल-सा होता तो रात्रि को संकुचित न होता? यदि चन्द्र-सा होता तो दिन में उसकी आभा मंद न पड़ती? कमल तो दिन ही में प्रफुल्लित रहता है, चन्द्रमा रात्रि ही में प्रकाशित रहता है, पर वह मुख तो रात-दिन समस्त जग में सम्मान पाने योग्य है। कमल और चन्द्रमा देखने में तो सुन्दर नहीं हैं (केवल उनके गुण सुनने में भले जंचते हैं) पर यह मुख टकटकी बांधकर देखने में ही आता है (सौन्दर्य से तृप्ति नहीं होती)। इस कारण मेरी सम्मति तो यह है कि इस मुख के समान यही मुख हे, न तो कमल ही इसके समान है न चन्द्रमा ही इसके तुल्य है। अलंकार-अनन्वयोपमा।
दोस:-
सीता नयन चकोर सखि, रविवंशी रघुनाथ।
रामचन्द्र सिय कमल मुख, भलो बन्यो है साथ॥
शब्दार्थ:- भलौ-अत्यन्त अद्भुत बड़ा ही विलक्षण।
भावार्थ:- हे सखी! सीता के नेत्र चकोर हैं, रघुनाथ जी रविवंशी हैं (चकोर और रवि से विरोध होने पर भी सीता के नेत्र चकोर उन पर आसक्त हैं, यह आश्चर्य है) और राम जी चन्द्र हैं (पर उसे देखकर) सीता का मुख कमल प्रसन्न रहता है (चन्द्र और कमल का विरोध होने पर भी) यह बड़ा ही अद्भुत संयोग है। अलंकार- विरोधाभास
सूचना:- इस दोहे में अद्भुत रस झलक रहा है। केशव के पांडित्य और प्रतिभावान होने का अच्छा नमूना है। द
(चन्द्रकला)
दुर्मिल:- कहूं बाग तड़ाग तरंगिनि तीर तमाल की छांह बिलोकि भली। घटिका यह बैठत है सुख पाय विछाय तहां कुस कांस थली।। मग को श्रम श्रीपति दूर करै सिय को शुभ बालक अंचल सो। श्रम तेऊ हरैं तिनको कहि केशव चंचल चारु दूंगल सों॥
शब्दार्थ:- तरंगिनी-नदी। श्रीपति श्री राम जी (पति की हैसियत से)। बालक अंचल सों वल्कल वस्त्र की हवा करके। तेऊ श्री सीता जी। तिनको श्री राम जी का। दृगंचल कटाक्ष बांकी चितवन।
भावार्थ:- (रास्ते में चलते हुए) कहीं किसी बाग में व तड़ाग अथवा नदी के किनारे तमाल की अच्छी घनी छाया देखकर कुशासन बिछाकर एक घड़ी आनन्दपूर्वक बैठते हैं। सीता जी को थकावट बल्कल वस्त्र की हवा करके श्रीराम जी दूर करते हैं और सीता जी बांकी चितवन से हेर कर श्रीराम जी की थकावट दूर करती हैं। अलंकार- अन्योन्य।
सोरठा:- श्री रघुबर के इष्ट, अश्रुबलित सीता नयन। सांची कही अदृष्ट, झूठी उपमा मीन की॥
शब्दार्थ:- इष्ट-प्रति। अश्रुबलित-आनन्दाश्रु युक्त । अदृष्ट होनहार।
भावार्थ:- श्री राम जी का इतना प्रेम देख जानकी के क्षेत्रों में आनन्द के आंसू आ जाते हैं। वे अश्रुयुक्त नेत्र श्रीराम जी को अति प्यारे मालूम होते हैं। कवि कहता है कि संयोगवश इस होनहार ने (सीता सहित राम का वनगमन) नेत्रों की मीन की उपमा जो झूठी ही दी जाती है क्योंकि मीन तो पानी में रहती है, नेत्र सदैव पानी में नहीं रहते, अतः उपमा झूठी थी सो) वह इस समय सत्य हो गई अर्थात् अश्रुयुक्त सीता के नेत्र ठीक मीन-से जान पड़ते हैं।
पाठ
सम्पादनतीसरा प्रभाव
(1)
समझैं बाला बालकहूं, वर्णन पंथ अगाध
कविप्रिया केशव करी, छमियो कवि अपराध
(2)
अलंकार कवितान के, सुनि सुनि विविध विचार
कवि प्रिया केशव करी, कविता को शृगार
(3)
चरण धरत चिता करत, नींद न भावत शोर ।
सुबरण को सोधत फिरत, कवि व्यभिचारी, चोर
(4)
राचत रंच न दोष युत, कविता, बनिता मित्र ।
बुंदक हाला परत ज्यों, गंगाघट अपवित्र ।5/4
पांचवा प्रभाव
दोहा
जधपि सुजाति सुलक्षणी, सुबरन सरस सुवृत्त ।
भूपण बिन न विराजई, कविता वनिता मित्त
कवित्त
कीन्हे छत्र छितिपति, केशोदास गणपति,
दसन, बसन, बसुमति कह्याचार है।
बिधि कीन्हों आसन, शरासन असमसर,
आसन को कीन्हो पाकशासन तुषार है।
हरि करी सेज हरिप्रिया करो नाक मोती,
हर कत्यो तिलक हराहू कियो हारु है।
राजा दशरथसुत सुनौ राजा रामचन्द्र,
रावरो सुयश सब जग को सिगारु है
छठा प्रभाव
सवैया
हाथी न साथी न घोरे न चेरे न, गाउँ न ठाउँ को नाउँ विलैहै ।
तात न मात न पुत्र न मित्र, न वित्त न अंगऊ संग न रैहै ।
केशव कामको 'राम' बिसारत और निकाम न कामहिं ऐहै।
चेतुरे चेतु अजौ चितु अंतर अंतकलोक अकेलोहि जैहै
गणेश जी का दान वर्णन
कवित्त
बालक मृणालनि ज्यों तोरि डारै सब काल,
कठिन कराल त्यो अकाल दीह दुख को।
विपति हरत हठि पद्मिनी के पति सम,
पङ्क ज्यों पताल पेलि पठवै कलुष को।
दूर के कलङ्क अङ्क भव सीस ससि सम,
राखत है 'केशोदास' दास के वपुष को।
साकरे की सांकरन सनमुख होत तोरै,
दसमुख मुख जावै, गजमुख मुख को
गिरा का दान वर्णन
कवित्त
बानी जगरानी की उदारता बखानी जाय,
ऐसी मति उदित उदार कौन की भई।
देवता प्रसिद्ध सिद्ध ऋषिराज तप वृद्ध,
कहि कहि हारे सब कहि न काहू लई ।
भावी, भूत, वर्तमान, जगत बखानत है,
केशौदास क्यों हूँ न बखानी काहू पैगई।
वर्णे पति चारिमुख, पूत वर्णे पॉच मुख,
नाती वर्णे षटमुख, तदपि नई नई
लेखक परिचय
सम्पादनकेशवदास का सम्बन्ध उस युग से है जिसे साहित्य और अन्य कलाओं के विकास एवं सांस्कृतिक सामंजस्य की दृष्टि से मध्यकाल के इतिहास में स्वर्णयुग कहा जाता है।केशवदास का जन्म भारद्वाज गोत्रीय सना ब्राह्मणों के वंश में हुआ। इनको ‘मिश्र’ कहा जाता है। अपनी कृति रामचन्द्रिका के आरंभ में सना जाति के विषय में उन्होंने कई पंक्तियां कही हैं।सना जाति गुना है जगसिद्ध सुद्ध सुभाऊ प्रकट सकल सनोढियनि के प्रथम पूजे पाई भूदेव सनाढयन के पद मांडो, तथा सना पूजा अद्य आद्यदारी आदि। इन उक्तियों से प्रकट होता है कि केशवदास जी किस जाति में पैदा हुए थे।
जन्मतिथि:- केशवदास जी ने अपनी तिथि के बारे में कुछ भी नहीं लिखा है। विभिन्न आधारों पर विद्वानों ने केशवदास जी की जन्म – तिथि निश्चित करने का प्रयास किया है। इस सम्बन्ध में विभिन्न मतों की सारिणी निम्नलिखित है:विद्वान उनके अनुसार जन्मतिथि
शिवसिं सेंगर संवत् १६२४ वि०
ग्रियर्सन संवत १६३६ वि०
पं० रामचन्द्र शुक्ल संवत १६१२ वि०
डा० रामकुमार वर्मा संवत १६१२ वि०
मिश्रबन्धु (क) संवत १६१२ वि०
मिश्रबन्धु (ख) संवत १६०८ वि०
गणेश प्रसाद द्विवेदी संवत १६०८ वि०
लाला भगवानदी संवत १६१८ वि०
गौरी शंकर द्विवेदी संवत १६१८ वि०
डा० किरणचन्द्र शर्मा संवत १६१८ वि०
डा० विनयपाल सिंह संवत १६१८ वि०
विभिन्न मतों के बावजूद संवत् १६१८ को केशव की जन्मतिथि माना जा सकता है। रतनबावनी केशवदास जी की प्रथम रचना और उसका रचना काल सं० १६३८ वि० के लगभग है। इस प्रकार बीस वर्ष की अवस्था में केशव ने ‘रतनबावनी’ रचना की तथा तीस वर्ष की अवस्था में रसिकप्रिया की रचना की। अतः केशवदास जी की जन्म – तिथि सं० १६१८ वि० मानना चाहिए। इस मत का पोषण श्री गौरीशंकर द्विवेदी को उनके वंशघरों से प्राप्त एक दोहे से भी होता है:
संवत् द्वादश षट् सुभग, सोदह से मधुमास।
तब कवि केसव को जनम, नगर आड़छे वास।।
केशव का जन्म स्थान :-केशव का जन्म वर्तमान मध्यप्रदेश राज्य के अंतर्गत ओरछा नगर में हुआ था। ओरछा के व्यासपुर मोहल्ले में उनके अवशेष मिलते हैं। ओरछा के महत्व और उसकी स्थिति के सम्बन्ध में केशव ने स्वयं अनेक भावनात्मक कथन कहे हैं। जिनसे उनका स्वदेश प्रेम झलकता है।केशव ने विधिवत् ग्राहस्थ जीवन का निर्वाह किया। वंश वृक्ष के अनुसार उनके पाँच पुत्र थे। अन्तः साक्ष्य के अनुसार केशव की पत्नी ‘विज्ञानगीता’ की रचना के समय तक जीवित थीं। ‘विज्ञानगीता’ में इसका उल्लेख इस प्रकार है:
वृत्ति दई पुरुखानि को, देऊ बालनि आसु।
मोहि आपनो जानि के गंगा तट देउ बास।।
वृत्ति दई, पदवी दई, दूरि करो दु:ख त्रास।
जाइ करो सकलत्र श्री गंगातट बस बास।।