हिंदी कविता (रीतिकालीन)/बिहारी
पाठ
सम्पादनबिहारी सतसई
दोहे
(1)
मेरी भववाधा हरौ, राधा नागरि सोय।
जा तन की झाँई परे स्याम हरित दुति होय।।
(2)
जब जब वै सुधि कीजिए, तब तब सब सुधि जाहिँ।
आँखिनु आँखि लगी रहै, आँखैं लागति नाहिं।।
(3)
मकराकृति गोपाल कैं सोहत कुंडल कान।
धरथौ मनौ हिय-गढ़ समरु ड्यौढ़ी लसत निसान
(4)
घाम घरीक निवारियै कलित ललित अलि-पुंज।
जमुना-तीर तमाल-तरु मिलित मालतो-कुंज।।
(5)
उन हरकी हंसी कै इतै, इन सौंपी मुस्काइ।
नैना मिले मन मिल गए, दोउ मिलवत गाइ
(6)
जटित नीलमनि जगमगति सीक सुहाई नाँक ।
मनौ अली चंपक-कली बसि रसु लेतु निसाँक।।
(7)
मिली चंदन-बैठी रही गौर मुंह, न लखाइ
ज्यौं ज्यौं मद लाली चढै त्यौं त्यौं उधरति जाई
(8)
लिखन बैठि जाकी सवी गहि गहि गरब गरूर।
भए न केते जगत के चतुर चितेरे कूर॥
(9)
दृग उरझत टूटत कुटुम, जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठि दुरजन हिये, दई नई यह रीति॥
(10)
रनित भृृग-घंटावली झरित दान-मधुनीरु।
मंद-मंद आवतु चल्यौ कुंजरु-कुंज-समीरु॥