हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/केशवदास/आचार्य केशव कठिन काव्य के प्रेत :

आचार्य केशव कठिन काव्य के प्रेत :


रामचन्द्रिका कार आचार्य केशव को केशव साहित्य के सुधी आलोचकों ने ‘कठिन काव्य का प्रेत' कहा है। वैसे ही यह लोक धारणा है कि केशव की कविता का अर्थ आसानी से सबके समझ में आने वाला नहीं है। केशव के आचार्यत्व और उनके अगाध पांडित्य को देखकर यह कथन हमें कोई अस्वाभाविक नहीं प्रतीत होता। वस्तुस्थिति यह है कि केशव ने लोक रूचिका कम, शास्त्र रूचिका अधिक सत्कार किया है। इसीलिये उनकी कविता का काठिन्य उनके अभिजात्य परिवेश, वैदुष्य एवं आचार्यत्व को देखते हुये सहन क्षम्य है। केशव साहित्य के अनुशीलन में सर्वाधिक कठिनाई तब उपस्थित होती है, जब विशेषण, संज्ञा के परस्पर संम्बन्धों को कवि प्रयोजन के अनुसार नहीं समझा जाता। विशेषण संज्ञा की विशेषता बताते हैं और तद्नुसार संज्ञाओं के भूषण रूप मेंप्रयुक्त हो और काव्य के मुख्य विषय (विषय वस्तु) के रूप में उनका वर्णन हो तो फिर विशेषणों के आधार पर यह जानना होगा कि ये विशेषण या विशेषणों की माला किस संज्ञा को भूषित कर रहे हैं। कठिन काव्य के प्रेत' के रूप में कविता तब सामने आती है, जब विशेषणों के आधार पर संज्ञा की खोज शुरू हो जाती है। यदि विशेषण ही विशेषण दिखायी दे और संज्ञा के बोध के अभाव में (जब तक संज्ञा का पता न चले तब तक), कठिन काव्य के प्रेत' (कठिन) इसीलिये कहा जायेगा कि संज्ञा की पहचान नहीं हुई है। उदाहरणार्थ 'कविपिया के पांचवे प्रभाव में श्वेत रंग के प्रसंग में कवित्त दिया गया है, उसकी एक पंक्ति इस प्रकार है-

हर कर्यो तिलक हराहू कियो हार है।

अब अन्वेषण कीजिए, हर ने तिलक किया (अर्थ स्पष्ट नहीं है) हर कौन? स्पष्ट करना होगा कि हर का अर्थ शिव, फिर शिव ने तिलक किया। ऐसा अर्थ होगा। तिलक स्पष्ट नहीं है। दिमाग लगाइये-शिव जी का तिलक कैसे होगा? शिव जी का वेश-भूषा पर विचार करना होगा। शिवजी के मस्तक पर चन्द्रमा विराजमान है, अतः (दूर की कौड़ी के रूप में) शिवजी का तिलक चन्द्रमा है, ऐसा अर्थ करना होगा। यह चन्द्रमा श्वेत वर्ण का है, इसीलिये शिवजी के तिलक को श्वेत वर्ण का तिलक कहना होगा। तिलक शोभा स्वरूप होता है और मस्तक पर (प्रतीक रूप में) लगाया जाता है। चूँकि शिवजी के मस्तर पर चन्द्रमा विराजमान रहता है। अतः कल्पना ने चन्द्रमा को शिवजी का तिलक कहा है। इस तरह से विशेषणों के माध्यम से संज्ञा तक पहुचने पर ही कविता का अर्थ समझ में आयेगा। केवल शिवजी ने तिलक किया’ यह कहने से भी पूरा अर्थ स्पष्ट नहीं होता आगे यह स्पष्ट करना होगा कि यह तिलक श्वेत रंग का है। इसी रंग का (श्वेत) कहने से भी पूरा अर्थ नहीं बना। कहना न होगा कि 'शिवजी ने श्वेत रंग का तिलक चन्द्रमा के रूप में इसलिये धारण किया कि वह राजा रामचन्द्र के सुयश का प्रभाव दिखाना चाहते हैं। इस आधार पर शिवजी और राम के सम्बन्ध को जाना जा सकता है। अस्तु हम देखते हैं कि इस तरह से अर्थ करने में कठिनाई होती है। इस प्रकार की क्लिष्टता के कारण ही केशव की कविता ‘कठिन काव्य के प्रेत' के रूप में जानी गयी।

वस्तुतः केशव की कविता "द्राक्षा पाक" नहीं है, जिसका अर्थ आसानी से पाठक हृदयगंम कर सके उनकी कविता "नारिकेल पाक" है जिसका वास्तविक काव्यानन्द उसके कठोर आवरण को प्रयत्न पूर्वक भेदन करने के बाद ही मिलेगा। वैसे भी केशव ने अपनी कविता विद्वत वर्ग में प्रतिष्ठा प्राप्त करने के उद्देश्य से लिखी है, उनके काव्य में क्लिष्टता का समावेश भी संभवतः इसी का परिणाम है, परन्तु केशव के काव्य की क्लिष्टता का आध पार पर उसकी महत्ता को अस्वीकार नहीं किया जा सकता। उनकी अपनी सीमाएं ओर परम्परायें रही हैं, जिनका उन्होंने अपने काव्य सृजन में पूर्णतया अनुपालन किया है। बिना केशव साहित्य की गहराई में बैठे हम इस यशस्वी आचार्य के काव्य समुद्र को 'कठिन काव्य की संज्ञा से लांछित करना किसी भी रूप में हिन्दी समीक्षा एवं मूल्यांकन परम्परा के लिये शुभ नहीं है। वर्तमान में केशव साहित्य के विवधि आयामों का पुर्नमूल्यांकन करने की महती आवश्यकता है।