हिंदी कविता (रीतिकालीन) सहायिका/गिरिधर कविराय
गिरिधर कविराय, हिंदी के प्रख्यात कवि थे। इनके समय और जीवन के संबंध में प्रामाणिक रूप से कुछ भी उपलब्ध नहीं है। अनुमान किया जाता है कि वे अवध के किसी स्थान के निवसी थे और जाति के ब्रह्मभट्ट ब्राह्मण थे। शिवसिंह सेंगर के मतानुसार इनका जन्म 1713 ई. में हुआ था।
कुंडलियाँ
चिंता ज्वाल सरीर की, दाह लगे न बुझाय।
प्रकट धुआं नहिं देखिए, उर अंतर धुंधुवाय॥
उर अंतर धुंधुवाय, जरै जस कांच की भट्ठी।
रक्त मांस जरि जाय, रहै पांजरि की ठट्ठी॥
कह 'गिरिधर कविराय, सुनो रे मेरे मिंता।
ते नर कैसे जियै, जाहि व्यापी है चिंता॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- इस पद के माध्यम से गिरधर कविराय मनुष्य के चिंतित मन कि अवस्था को दर्शाते हैं
व्याख्या :- चिंतन के विषय में उनका कथन है कि चिंता शरीर की वह ज्वाला है जो मानव शरीर को भीतर ही भीतर जलाती रहती है। ऊपर से मनुष्य समान दिखता है लेकिन अंदर धुआं उठता रहता है। जैसे भट्टी में बर्तन पकता है। चिंता में अंदर ही अंदर रक्त, माँस जल जाता है और ऊपर हाड का पिंजर ही नजर आता है। गिरिधर कहते हैं कि ऐसे मनुष्य कैसे जीवन जी सकते हैं जिन्हें चिंता लगी रहती है।
विशेष :-
साईं, बैर न कीजिए, गुरु, पंडित, कवि, यार।
बेटा, बनिता, पँवरिया, यज्ञ–करावनहार॥
यज्ञ–करावनहार, राजमंत्री जो होई।
विप्र, पड़ोसी, वैद्य, आपकी तपै रसोई॥
कह गिरिधर कविराय, जुगन ते यह चलि आई,
इअन तेरह सों तरह दिये बनि आवे साईं॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- इस पद के माध्यम से कवि बताते हैं कि हमें कभी भी किसी से बैर नहीं करना चाहिए
व्याख्या :- गिरधर कविराय जी कहते हैं कि हमें अपने जीवन में कुछ लोगो से कभी बैर नही करना चाहिए। इनकी संख्या 13 है। इसमें गुरु, पंडित, कवि, यार, बेटा, बनिता अर्थात स्त्री, पाँवरिया, यज्ञ करने वाला, राज मंत्री, विप्र, पड़ोसी, वैद, रसोइयाँ आदि। इन लोगों से वैर करने से स्वयं ही हानि होती है
विशेष :-
साईं सब संसार में, मतलब को व्यवहार।
जब लग पैसा गांठ में, तब लग ताको यार॥
तब लग ताको यार, यार संगही संग डोलैं।
पैसा रहा न पास, यार मुख से नहिं बोलैं॥
कह 'गिरिधर कविराय जगत यहि लेखा भाई।
करत बेगरजी प्रीति यार बिरला कोई साईं॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- इस पद के माध्यम से मतलबी संसार की रीति का वर्णन करते हुए कवि गिरिधर कविराय बताते हैं कि संसार कितना मतलबी हो गया है। प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने समाज की रीति पर व्यंग्य किया है तथा स्वार्थी मित्र के संबंध में बताया है।
व्याख्या :- संसार में सभी लोग स्वार्थ और मतलब से बात करते हैं। जब तक हमारे पास पैसा है जब तक सभी दोस्त बने रहते हैं हमारे साथ साथ चलते हैं परंतु जब पैसा ना रहे तो मुंह फेर लेते हैं। सीधे मुंह बात भी नहीं करते। गिरधर कविराय कहते हैं कि संसार की यही रीति है। बिना मतलब के कोई विरला ही दोस्ती निभाता है। (यहां विरला का अर्थ अनेक लोगों में से कोई एक है) कवि कहते हैं कि इस संसार में सभी मतलबी हैं। बिना स्वार्थ के कोई किसी से मित्रता नहीं करता है। जब तक मित्र के पास धन-दौलत है तब तक सारे मित्र उसके आस-पास घूमते हैं। मित्र के पास जैसे ही धन समाप्त हो जाता है सब उससे मुँह मोड़ लेते हैं। संकट के समय भी उसका साथ नहीं देते हैं। अत: कवि कहते हैं कि संसार का यही नियम है कि बिना स्वार्थ के कोई किसी का सगा-संबंधी नहीं होता।
विशेष :-
बिना विचारे जो करै, सो पाछे पछिताय।
काम बिगारै आपनो, जग में होत हंसाय॥
जग में होत हंसाय, चित्त चित्त में चैन न पावै।
खान पान सन्मान, राग रंग मनहिं न भावै॥
कह 'गिरिधर कविराय, दु:ख कछु टरत न टारे।
खटकत है जिय मांहि, कियो जो बिना बिचारे॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- कवि गिरधर का कथन है कि हमें कोई भी काम बिना सोचे- विचार के नहीं करना चाहिए। जिसके कारण निकट भविष्य में हमें उसका पछतावा हो।
व्याख्या :- बिना बिसारे जो करें सो पाछे पछताय से तात्पर्य है कि जो मनुष्य किसी भी कार्य को करने से पहले कुछ भी नहीं सोचता है व उस कार्य को पहचानता नहीं है और उसे कर ही देता है. फिर उसे अपनी गलती का एहसास होने लगता है तो वह उस समय पछताता हैं। फिर तो अब पछताए क्या होत जब चिड़ियाँ चुग गई खेत. मनुष्य को अपने किसी कार्य को करने से पूर्व सोच समझकर ही निर्णय लेना चाहिए ताकि उसे बाद में पछताना न पड़े। यदि हम बिना विचारे कोई काम करते हैं तो अपना काम तो खराब करते ही हैं साथ ही संसार में हंसी के पात्र भी बनते हैं। हमारा मन कभी चैन नहीं प्राप्त करता और हमारा मन किसी कार्य में नहीं लगेगा। बिना विचार किया गया काम हमें हर समय दु :ख देगा और सदैव खटकता रहेगा। अत: हमें कोई भी काम खूब सोच-विचारकर करना चाहिए।
विशेष :-
बीती ताहि बिसारि दे, आगे की सुधि लेइ।
जो बनि आवै सहज में, ताही में चित देइ॥
ताही में चित देइ, बात जोई बनि आवै।
दुर्जन हंसे न कोइ, चित्त मैं खता न पावै॥
कह 'गिरिधर कविराय यहै करु मन परतीती।
आगे को सुख समुझि, होइ बीती सो बीती॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- कवि कहते हैं कि जो बीत गया उसको सोच कर उदास नहीं रहना चाहिए आगे बढ़ना चाहिए।
व्याख्या :- गिरधर जी कहते हैं कि हमें बीती बातों को भूलकर आगे की सुध लेनी चाहिए। जो लोग एक ही बात को लेकर दुखी होते रहते हैं तो वे हंसी के पात्र बनते हैं अंतः जो बीत गई सो बात गई। जो बीत गया उसे भूल जाओ और आगे की सोचो, जो हो सकता है। जो चीजें सरलतापूर्वक हो जाएं और जिसमें अपना मन लगता हो उन्हीं विषयों पर सोच-विचार करना हितकारी होता है। ऐसा करने पर कोई हँसेगा नहीं और आप मनपूर्वक अपने कार्य को संपन्न कर पाओगे। इसलिए गिरिधर कविराय कहते हैं कि जो मन कहे वही करो बस आगे का देखो, पीछे जो गया उसे बीत जाने दो।
विशेष :- सरल रूप में नीतिगत दोहा
- कर्म का महत्व
- अवधी भाषा
- कुंडली में संचित की भावना
- यथार्वरक नीतिगत बात
- कर्म विचार पूर्व करना चाहिए
- जनसाधारण के समक्ष सुंदर भाषा है
- संदेश का रूप (सीजी स्पष्ट भाषा के)
पानी बाढो नाव में, घर में बाढो दाम।
दोनों हाथ उलीचिए, यही सयानो काम॥
यही सयानो काम, राम को सुमिरन कीजै।
परमारथ के काज, सीस आगै धरि दीजै॥
कह 'गिरिधर कविराय, बडेन की याही बानी।
चलिये चाल सुचाल, राखिये अपनो पानी॥
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- प्रस्तुत कुंडली में गिरिधर कविराय ने परोपकार का महत्त्व बताया है।
व्याख्या :- कवि कहते हैं कि जिस प्रकार नाव में पानी बढ़ जाने पर दोनों हाथों से पानी बाहर निकालने का प्रयास करते हैं अन्यथा नाव के डूब जाने का भय रहता है। उसी प्रकार घर में ज्यादा धन-दौलत आ जाने पर हमें उसे परोपकार में लगाना चाहिए। कवि के अनुसार अच्छे और परोपकारी व्यक्तियों की यही विशेषता है कि वे धन का उपयोग दूसरों की भलाई के लिए करते हैं और समाज में अपना मान- सम्मान बनाए रखते हैं।
विशेष :-
राम तूहि, तुहि कृष्ण है, तहि देवन को देव
तूही ब्रह्मा तूहि शक्ति है, तूहि सेक, तूहि सेव
तूही सेवक, तूही सेव, तूही इंदर, तूही सेसा
तूही होय सब रूप, तू किया सबमें परवेसा
कह गि रिधरक कविराय, पुरुष तूही तूही बाम
तूही लछमन, तूही भरत, शत्रुहन, सीताराम
संदर्भ :- यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के नीति-विषयक कवि भूषण द्वारा रचित गिरिधर कविराय से संकलित किया गया है।
प्रसंग :- गिरिधर परम ब्रह्मा परमात्मा की स्तुति करते हुए इस पद की व्याख्या करते हैं।
व्याख्या :- गिरधर कहते हैं कि तुम्हारे भीतर ही यह सारा जग समाहित है तू ही कृष्ण, राम, देवों के देव, ब्रह्मा, शक्ति स्वामी, सेवक पुरुष, स्त्री तुम ही लक्ष्मण, भरत, शत्रुघ्न सीता राम हो। सारा जगत तुम्हारा ही प्रतिरूप है। अनेक रूपों में है ईश्वर तुम्हारी ही छवि विद्यमान है।
विशेष :-