भूषण प्रसांगिक है। उन्होंने केवल वीरता को ही नहीं बल्कि भारतीय परंपरा को भी अभिव्यक्त किया है। भूषण कवि ऐसे पहले देशभक्त हैं जिन्होंने उस समय की पृष्ठभूमि को ध्यान में रखकर काव्य लिखा है


शिवभूषण तथा प्रकीर्ण रचना
भूषण

इंद्र जिमि जंभ पर बाड़व ज्यौं अंभ पर,

रावन सदंभ पर, रघुकुल राज हैं।

पौन बारिबाह पर, संभु रतिनाह पर,

ज्यौं सहस्रबाह पर राम-द्विजराज हैं।

दावा द्रुम दंड पर, चीता मृगझुंड पर,

'भूषन वितुंड पर, जैसे मृगराज हैं।

तेज तम अंस पर, कान्ह जिमि कंस पर,

त्यौं मलिच्छ बंस पर, सेर सिवराज हैं।।


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : भूषण ने इस पद को शिवाजी महाराज की वीरता का वर्णन करते हुए लिखा है इसमें उन्होंने शिवाजी महाराज की वीरता का वर्णन किया है


व्याख्या : भूषण कहते हैं कि जैसे इंद्र ने जंभासुर नामक राक्षस का वध किया और जल की अग्नि जल को नष्ट करती है और घमंडी रावण पर रघुकुल के राजा ने राज्य किया और जिस प्रकार पवन जल युक्त बादलों को उड़ा ले जाता है। और शिव शंभू ने रती के पति कामदेव को भस्म किया था तथा सहस्त्रबाहु अर्जुन को मारकर परशुराम ने विजय प्राप्त की तथा जिस प्रकार जंगल की अग्नि जंगल को जला देती है और चीता हीरणों के समूह पर और जंगल का राजा शेर हाथियों पर अपना अधिकार कायम रखता है और रोशनी अंधकार को समाप्त करती है जिस प्रकार कृष्ण ने अत्याचारी कंस का वध किया। ठीक उसी प्रकार मलेच्छवंश पर वीर शिवाजी महाराज शेर के समान है


जिस प्रकार जंभासुर पर इंद्र, समुद्र पर बड़वानल, रावण के दंभ पर रघुकुल राज, बादलों पर पवन, रति के पति अर्थात कामदेव पर शंभु, सहस्त्रबाहु पर ब्राह्मण राम अर्थात परशुराम, पेड़ो के तनों पर दावानल, हिरणों के झुंड पर चीता, हाथी पर शेर, अंधेरे पर प्रकाश की एक किरण, कंस पर कृष्ण भारी हैं उसी प्रकार म्लेच्छ वंश पर शिवाजी शेर के समान हैं।


विशेष:-


उद्वत अपार तुअ दुंदभी-धुकार-पाथ लंघे पारावार बृंद बैरी बाल्कन के।

तेरे चतुरंग के तुरंगनि के रँगे-रज साथ ही उड़न रजपुंज है परन के।

दच्छिण के नाथ सिवराज तेरे हाथ चढ़ै धनुष के साथ गढ़-कोट दुरजन के।

भूषण असीसै तोहिं करत कसीसैं पुनि बाननिके साथ छूटे प्रान तुरकन के।


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : भूषण ने इस पद में शिवाजी महाराज की सेना की वीरता का वर्णन किया है |


व्याख्या : भूषण कहते हैं कि शिवाजी की सेना के युद्ध की रणभेरीयों की भयंकर आवाज को सुनकर शत्रुओं के बच्चे समुद्र लांग जाते हैं | चतुरंगी सेना में घोड़ों के शरीर से उड़ने वाली धूल से भयभीत होकर शत्रुओं के होस उड़ जाते हैं| हे दक्षिण के स्वामी शिवाजी जब आप अपने हाथ में धनुष उठाते हो तो शत्रु अपने दुर्ग और किले छोड़ कर भाग जाते हैं| भूषण कहते हैं की मैं तुम्हें आशीर्वाद देता हूं कि जब तुम अपने धनुष से बाण खींचते हैं तो उसके साथ तुर्कों के प्राण भी निकल जाते हैं


विशेष:- वीरता के पूर्ण सेना संगठन का वर्णन

  • राष्ट्रीयता की भावना
  • अत्याचार के विरोध में कविता
  • कविता में कंटार एवं संकार का स्वर्ग
  • शृंगार रस (रंगे-राज)
  • श्लेष अलंकार
  • चमत्कारी उक्तियां
  • अरबी फारसी शब्दों का प्रयोग


साजि चतुरंग सैन अंग में उमंग धरि

सरजा सिवाजी जंग जीतन चलत है

भूषण भनत नाद बिहद नगारन के

नदी-नद मद गैबरन के रलत है

ऐल-फैल खैल-भैल खलक में गैल गैल

गजन की ठैल –पैल सैल उसलत है

तारा सो तरनि धूरि-धारा में लगत जिमि

थारा पर पारा पारावार यों हलत है


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : इन पंक्तियों में कवि भूषण ने शिवाजी की चतुरंगिणी सेना का युद्ध के लिए प्रस्थान का वर्णन किया है। वे कहते हैं कि---


व्याख्या : कवि कहते हैं कि- सरजाउपाधि से विभूषित अत्यन्त श्रेष्ठ एवं वीर शिवाजी अपनी चतुरंगिणी सेना (पैदल, घोड़े और रथ) को सजाकर तथा अपने अंग-अंग में उत्सह का संचार करके युद्ध जीतने के लिए जा रहे हैं। भूषण कहते हैं कि उस समय नगाड़ों का तेज स्वर हो रहा था। हाथियों की कनपटी से बहने वाला मद (हाथी जब उन्मत्त होता है तो उसके कान से एक तरल स्राव होता है जिसे उसका मद कहते हैं) नदी-नालों की तरह बह रहा था। अर्थात् शिवाजी की सेना में मदमत्त हाथियों की विशाल संख्या थी और युद्ध के लिए उत्तेजित होने के कारण हाथियों की कनपटी से अत्यधिक मद गिर रहा था जो नदी-नालों की तरह बह रहा था। शिवाजी की विशाल सेना के चारों ओर फैल जाने के कारण संसार की गली गली में खलबली मच गई। हाथियों की धक्कामुक्की से पहाड़ भी उखड़ रहे थे। विशाल सेना के चलने से बहुत अधिक धूल उड़ रही थी। अधिक धूल उड़ने के कारण आकाश में चमकता हुआ सूर्य तारे के समान लग रहा था और समुद्र इस प्रकार हिल रहा था जैसे थाली में रखा हुआ पारा हिलता है


विशेष:- शिवाजी की चतुरंगिणी सेना के प्रस्थान का अत्यन्त मनोहारी चित्रण किया है।


वेद राखे विदित पुरान परसिद्ध राखे,

राम नाम राख्यो अति रसना सुघर मैं।

हिन्दुन की चोटी रोटी राखी है सिपाहिन को,

काँधे मैं जनेऊ राख्यो माला राखी गर मैं।

मीड़ि राखे मुगल मरोड़ि राखे पातसाह,

बैरी पीसि राखे बरदान राख्यो कर मैं।

राजन की हद्द राखी तेग-बल सिवराज,

देव राखे देवल स्वधर्म राख्यों घर मैं।


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : भूषण ने इस पद के माध्यम से शिवाजी की धर्म निष्ठा बताइए है कि उन्होंने किस प्रकार भारतीय धर्म की रक्षा कि है|


व्याख्या : कवि भूषण ने शिवाजी को धर्म-रक्षक वीर के रूप में चित्रित किया है। जब औरंगजेब सम्पूर्ण भारत में देवस्थानों को नष्ट कर रहा था, वेद-पुराणों को जला रहा था, हिन्दुओं की चोटी कटवा रहा था, ब्राह्मणों के जनेऊ उतरवा रहा था और उनकी मालाओं को तुड़वा रहा था, तब शिवाजी महाराज ने ही मुगलों को मरोड़ कर और शत्रुओं को नष्ट कर सुप्रसिद्ध वेद-पुराणों की रक्षा की, लोगों को राम नाम लेने की स्वतंत्रता प्रदान की, हिन्दुओं की चोटी रखी, सिपाहियों को अपने यहाँ रखकर उनको रोटी दी, ब्राह्मणों के कंधे पर जनेऊ, गले में माला रखी। देवस्थानों पर देवताओं की रक्षा की और स्वधर्म की घर-घर में रक्षा की।


विशेष:-


सबन के ऊपर ही ठाढ़ो रहिबे के जोग,

ताहि खरो कियो जाय जारन के नियरे .

जानि गैर मिसिल गुसीले गुसा धारि उर,

कीन्हों न सलाम, न बचन बोलर सियरे.

भूषण भनत महाबीर बलकन लाग्यौ,

सारी पात साही के उड़ाय गए जियरे .

तमक तें लाल मुख सिवा को निरखि भयो,

स्याम मुख नौरंग, सिपाह मुख पियरे.'


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : इस कवित्त में मुगलदरबार में आयोजित शिवाजी की औरंगजेब से भेंट का वर्णन है। शिवाजी को छह हजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा किया गया था। इस अपमान को शिवाजी सहन न कर सके और भरे दरबार में क्रोधावेश में बड़बड़ाने लगे। उसी दृश्य का चित्रण इस पद में प्रस्तुत किया गया है।


व्याख्या : जो सरजा शिवाजी मुगल दरबार में सबसे ऊपर खड़े होने योग्य थे उनको अपमानित करने की नियत से औरंगजेब ने उन्हें छःहजारी मनसबदारों की पंक्ति में खड़ा कर दिया। अपने प्रति किये गये इस अनुचित व्यवहार से गुस्साबर शिवाजी अत्यधिक कुपित हो उठे और उस समय अवसर की मर्यादा के अनुकूल न तो शंहशाह औरंगजेब को सलाम किया और न विनम्र शब्दों का ही प्रयोग किया। भूषण कहते हैं कि

महाबली शिवाजी क्रोधावेश से गरजने लगे और उनके इस क्रोधावस्था के व्यवहार को देखकर मुगलदरबार के सभी लोगों के जी उड गये। अर्थात् भय से हक्का-बक्का हो गये। व स लाल हुए शिवाजी के मखमण्डल को देखकर औरंगजेब का मुंह काला हो गया आर सिपाहियों के मख भय की अतिशयता के कारण पीले पड़ गये।


विशेष:-१. शिवाजी के रौद्र रुप के वर्णन में रौद्र रस के सभी अंगों की सफल व्यंजना हुई है।

२. मुहावरों के प्रयोग एवं शब्दावली की सहजता से भाषा में जीवन्तता एवं गतिशीलता का पूर्ण समावेश है।



राजत अखण्ड तेज छाजत सुजस बड़ो,

गाजत गयंद दिग्गजन हिय साल को।

जाहि के प्रताप से मलीन आफताब होत,

ताप तजि दुजन करत बहु ख्याल को।।

साज सजि गज तुरी पैदरि कतार दीन्हें,

भूषन भनत ऐसो दीन प्रतिपाल को ?

और राव राजा एक चिन्त में न ल्याऊँ अब,

साहू को सराहौं कि सराहौं छत्रसाल कों।।


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : पन्ना नरेश छत्रसाल के जनता के प्रति व्यवहार और उनके शौर्य का वर्णन।


व्याख्या : अखण्ड तेज से विभूषित, जिनकी कीर्ति चारो ओर फैली है, जिनकी सेना और उसके हाथियों की चित्कार से दिशा-दिशा के राजाओं के हृदय में भय भर जाता है। जिसके प्रताप को सुनकर विधर्मियों के चेहरों की रौनक गायब हो जाती है। ऐसा राजा जो ब्राह्मणों अर्थात सज्जनों के ताप यानी कष्ट को हर कर उनकी पूरी चिन्ता करता है। जो सदैव अपनी सुसज्जित सेना, पैदल सिपाहियों के साथ राज्य की रक्षा के लिए सन्नद्ध रहता है। ऐसे छत्रसाल को छोडक़र भला भूषण अपने मन में किस राजा के लिए सम्मान देख सकता है। भूषण कहते हैं, मेरा मन तो कभी-कभी भ्रम में पड़ जाता है कि साहू (शिवाजी के पौत्र) को सराहूँ या छत्रसाल को। दोनों में तुलना नहीं की जा सकती । अर्थात दोनों अपने-अपने क्षेत्र में अप्रतिम हैं।


विशेष:- अनुप्रास।


देस दहपट्टि आयो आगरे दिली के मेले बरगी बहरि' चारु दल जिमि देवा को।

भूपन भनत छत्रसाल, छितिपाल मनि ताकेर ते कियो बिहाल जंगजीति लेवा को।।

खंड खंड सोर यों अखंड महि मंडल में मंडो तें धुंदेल खंड मंडल महेवा को।

दक्खिन के नाथ को कटक रोक्यो महावाहु ज्यों सहसवाहु नै प्रबाह रोक्यो नेवा को॥


संदर्भ : यह पद हिंदी साहित्य के रीतिकाल के वीरकाव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि भूषण द्वारा रचित शिवभूषण से संकलित किया गया है।


प्रसंग : इस पद के माध्यम से भूषण छत्रसाल महाराज की वीरता की प्रशंसा करते हैं

व्याख्या : भूषण कवि कहते हैं कि सरकारी घोड़ों पर राजकाज करने वाले सिपाहियों ने देश को उजाड़ कर आगरा और दिल्ली की सीमा में आ गये। मानों वह मनुष्य की सेना ना होकर राक्षस की सेना हो। हे धरती के स्वामी छत्रसाल महाराज उसको तूने जंग में जीतकर बेहाल कर दिया। तूने संपूर्ण सौरमंडल में दुश्मनों की महिमा को खंड खंड कर के बुंदेलखंड और महेवा को महिमामंडित किया है। दक्षिण के नाह को छत्रपाल ने कटक में एसे रोका जैसे हजार बांन वाले अर्जुन ने रेवा के प्रभाव को रोक दिया था


विशेष:- छत्रसाल की तुलना हजार बांह वाले अर्जुन के साथ की गई है।