माया का मर्म

"कल रात मेह बरसा था अब सिर्फ बूंदाबांदी हो रही है। छींटे भूले-भटके से उड़ आते हैं, मेज की किताबों, पुरानी चिथड़ी दरी, पलंग के घुन खाए पायों पर बिखर जाते हैं। खिड़की बन्द फिर भी नहीं कर पाता। जो अँधेरा रात को टिक गया था, वह अब बासी मटियालापन बनकर कोनों की सीलन में सिमट गया है। दिन के समय लालटेन जलाता हुआ मैं इस उम्र में भी कतराता हूँ- न जाने क्यों भीतर कुछ रुआँ-सा घुटने लगता है। लगता है, घर में कोई मर गया हो, सफेद पुतलियाँ दीवार में पथराई-सी झाँक रही हों...। शायद बचपन में कभी माँ ने कहा होगा। लेटे-लेटे छत की कड़ियों में माँ का झुर्रियों भरा उलझा सा चेहरा दिखता है। मैं आँखें मूंद लेता हूँ, कड़ियाँ नहीं दिखती। लेकिन उनका चेहरा अब भी दिखता है...।

मेरा सोचना मेरे जैसा ही बेकार है, इसलिए आज नहीं सोचूँगा भीगा हुआ पुराना पलस्तर, जिसने अपने को ढाँप रखा है, जिस दिन भी गिरे, उसे आज नहीं कुरेदूँगा... सीढ़ियाँ उतरते हुए मुझे विचार आता है कि सुबह से सिगरेट नहीं पी। मुझे हल्की-सी खुशी होती है, कुछ इसलिए कि सिगरेट पिऊँगा, कुछ इसलिए भी कि बाहर निकलने का बहाना मिला।

बाहर फीकी-सी धूप छिटक आई है, किन्तु उसे स्निग्ध गरमाई हवा के तेज झोंके बहा ले जाते हैं। शॉल बार-बार समेटता हूँ, बालों को बिखरने उलझने देता हूँ, किन्तु इन आँखों को क्या करूँ, जो झिपझपाती-सी बन्द होती हैं, खुलती हैं और फिर पानी के गड़हों से मुझे बचाने की खातिर विवश-सी अधखुली रह जाती हैं। छुट्टी होने के कारण बहुत से बच्चे वर्षा बन्द होते ही घरों से बाहर निकल भागे हैं, और हो-हल्ला मचाते पानी में कूप कूप करते हुए कूद-फाँद रहे हैं। मेरे पास ही गंदले पानी में एक ढेला गिरा, जिससे कीचड़ की कुछ बूंदें मेरे कुत्ते पर छिटक आई। मुझे यदि अपने पीछे हँसी की फुलझड़ी छूटती हुई नहीं सुनाई देती, तो मैं शायद नहीं जान पाता कि ढेला जान-बूझकर शरारत से मेरी ओर फेंका गया था। मैंने पाजामे को घुटने तक चढ़ा लिया और इच्छा होते हुए भी पीछे मुड़कर नहीं देख सका। एक क्षण के लिए कमरे से बाहर निकलने के फैसले पर पछतावा हुआ सोचा वापस चला जाऊँ, किन्तु कमरे के अंधेरे और घुटन की कल्पना करते ही दिल काँप गया और गिरता पड़ता तेजी से अपने को आगे घसीटने लगा। किसी तरह घरवाली अपनी गली पार की, फिर दाई ओर मुड़कर दो फुट की ईंटों की दीवार के संग-संग चलने लगा। दीवार के नीचे घास, पत्तों और पत्थरों से ढ़की ऊबड़ खाबड़-सी ढलान नाले तक चली गई है, जहाँ मेह का गँदला जल आस-पास की सड़कों को इकट्ठा होकर गड़गड़ का स्वर करते हुए बराबर गिरता है।

"आय री, अम्मा री।"

में चलते-चलते हटात् ठिठक गया। मुझे एक बहुत दबी-पतली सी हवा में काँपती चीख अचानक झिंझोड़ गई। ईंटों की छोटी-सी दीवार के पीछे नाले की ओर आती ढलान की भीगी घास पर एक नन्हीं-मुन्नी बालिका का पाँव फिसल गया था। उसका एक हाथ अपनी छोटी-सी मुट्टी में घास को भींचे था और दूसरा हाथ कागज की नाव लिये हवा में सहारा पाने के लिए विवश-सा छटपटा रहा था। मैंने लपककर उसका हाथ ऊपर घसीट लिया और जब वह 'सी-सी' करती हुई गिरते-पड़ते मेरे पास आ खड़ी हुई, मैंने झुककर उसे गोद में उठाकर दीवार के उस पार सड़क पर खड़ा कर दिया। उसने मेरी ओर एक क्षण के लिए अपनी बड़ी-सी गहरी आँखों से निहारा और फिर नीचे झुककर अपने घुटने पर जमी कीचड़ की पपड़ी को खुरचने लगी। मैंने देखा, उसकी पीठ पर बालो का गुच्छा लटक आया है जिसको बाँधे हुए फीके लाल रंग का रिबन हवा चलने से फरफरा उठता है।

मैं असमंजस में पड़ा हुआ निश्चय नहीं कर पाया कि वहीं खड़ा रहूँ या जिम्मेवारी खत्म हुई समझकर पैर आगे बढ़ाऊँ। जाहिर है, मैं कुछ बातचीत करना चाहता हूँ, किन्तु बच्ची है कि अपना सिर ऊपर नहीं उठाती। मैंने बहुत सोचा कि कुछ ऐसा कहूं जिससे बच्ची की लज्जा-झिझक टूट जाए और हम दोनों के बीच का फासला कुछ कम हो। किन्तु कोई भी उपयुक्त शब्द नहीं सूझे। बेवकूफ की तरह खड़े रहने की अपेक्षा मुझे वहाँ से खिसक जाना अधिक संगत जँचा। किन्तु..

उसी क्षण उसने अपना चेहरा उठाकर, मेरी ओर अपनी गहरी बड़ी आँखों से हुए; हौले से अपने कुछ-कुछ मुस्कुराते होंठों की फड़फड़ाहट के बीच देखते कहा "थैंक्यू।"

मेरे पाँव सहसा ठिठक गए। उसके चेहरे पर कृतज्ञता का कोई भाव नहीं था, किन्तु इस शिष्टचार प्रदर्शन से यह छिपा न रहा कि बालिका अवश्य ही किसी शिक्षित सुसंस्कृत परिवार से सम्बंध रखती है।

मैंने उसकी छोटी-सी ठुड्डी को तनिक उठाते हुए पूछा, "कहीं चोट तो नहीं आई....?”

उसने मेरी ओर केवल एक क्षण के लिए देखा, और फिर अपने को एक अपरिचित व्यक्ति के सामने पाकर सलज्ज संकोच से सिर झुका लिया। "मैं गिरी कहाँ थी नीचे जो कीचड़ है, वहाँ जरा पाँव फिसल गया था।" बच्ची ने जिस सहज भाव से 'गिरने' और 'फिसल जाने' के बीच भेद किया था, उससे मुझे बरबस हँसी आ गई और मैं हँसने लगा। उसे शायद मेरा हँसना अरुचिकर प्रतीत हुआ, और वह मेरी ओर से मुँह मोड़कर नाले में गिरती हुई पानी की धार को देखने का उपक्रम करने लगी। मैंने उसके कन्धों को धीरे से छुआ। उसने मेरी अँगुलियों का स्पर्श महसूस किया होगा, तभी तो उसने गर्दन को तनिक हिलाया, कन्धों को सिकोड़ा किन्तु फिर भी मेरी ओर मुड़कर नहीं देखा।

सहसा एक ढेला नाले के पानी में छप्प से गिरा, और पानी के छींटे उड़कर हमारे कपड़ों को गीला कर गए। इस बार उसने मेरी ओर देखा उसकी आँखों में मुस्कुराता हुआ कौतूहल झाँक रहा था।

“सच, हमने ढेला नहीं फेंका।" मैंने जान-बूझकर अनजान बनते हुए कहा। इस बार वह हँसी, जैसे अनजाने में किसी ने उसे गुदगुदा दिया हो, मानो कह रही हो कि वह सब कुछ जानती है, उसको झुठलाना हँसी खेल नहीं है। उसने तनिक नजदीक आकर मेरे हाथ को टटोला जिस पर ढेले की मिट्टी और कीचड़ चिपट गई थी। उसका सन्देह पक्का हो गया था, किन्तु स्पष्ट रूप से न जतलाकर वह रहस्यमय भाव से मुस्कुराते हुए देखती जा रही थी।

"देखो, उधर क्या है।" आँखों ने अनायास उसकी अँगुली का अनुकरण किया। उसके स्वर में आग्रह-भरा आश्चर्य था। किन्तु उधर कुछ भी विशेष नहीं पाया, केवल आकाश था, सफेद रुई-से बादल थे, हवा में काँपती हुई बिजली की तारें थीं, जिन पर वर्षा की बूँदें मोतियों-सी चमकती हुई फिसल रही थीं।

“छप्प" नाले के पानी में फिर कुछ गिरा। इस बार छींटा हम तक नहीं पहुँच पाया, केवल नाले के किनारे पर उगे हुए पौधों और घास के पीले तिनकों को भिगो गया।

मैं जान गया था। फिर भी मैंने प्रश्न युक्त आँखों से बालिका की ओर देखा। "सच, हमने भी ढेला नहीं फेंका।" वह मुस्कुरा रही थी और मुझे अपने झूठ पर विश्वास दिलाने के लिए उसने अपनी नन्ही-सी नर्म गदोलियाँ हवा में खोलकर फैला दी थीं। मैंने उन दोनों हाथों को अपने हाथों में भर लिया। हँसी की स्निग्ध फुहार में संकोच घुलने लगा, दूरी मिटने लगी।

“नाले की ढलान पर क्यों उतरी थी?"

अपनी दो अंगुलियों में भींचे हुए कागज की नाव को हवा में झुलाते हुए उसने

“पानी में इसे बहाना था।"

“और नाले में डूब जाती तो ?” मेरा भय कितना निराधार और बचकाना था, यह उसने अपना सिर हिलाकर जतला दिया।

"हमने कई बार अपनी नाव को पानी में बहाया है और कभी नहीं डूबी।"

"कभी नहीं? "

"सच्ची, कभी नहीं जीजी से पूछ लो!"

“कौन जीजी?”

फिर एकदम उड़ता-सा यह विचार आया कि मुझे यह प्रश्न पूछना नहीं चाहिए था।

“हमारी बड़ी बहिन जिन्होंने यह नाव बनाई है।"

“ओह!" मैंने उसके हाथों में कागज की नाव को देखा जिसे पुराने अखबार को काट-छाँटकर बनाया गया था आगे-पीछे नुकीली, तिरछी चोंच-सी निकली हुई और बीच में कागज की तहों से लिपटा हुआ पिरामिड़ खड़ा था।

“बच्ची, तुम कहाँ रहती हो?"

"हम नहीं बताएंगे।"

“क्यों?"

"हम बच्ची नहीं हैं।"

“फिर कौन हो?"

“लता माथुर!"

उसका चेहरा हल्का-सा गुलाबी हो आया। बालों का रिबन ढीला होकर गालों पर झूलने लगा जिसे उसने पीछे धकेल दिया। बादल छितराने लगे। पीली, फीकी-सी धूप में धुले आकाश की कटी-फटी नीली फाँकें झाँकने लगीं।

नाले के परे पानी से भीगी छतें, दीवारें एक-दूसरे से सटी हुई धूप में ठिठुर रही है। पाइप से वर्षा गँदले जल की मोटी, मटियाली धार अब भी नाले में गिर रही है। टेलीग्राफ की तारें पानी में नहाई बिल्कुल नंगी खड़ी हैं। जब कोई चिड़िया फुदककर उन पर बैठती है तब उनसे मेह की बूंदे झरने लगती हैं... एक, फिर दूसरी, और फिर कुछ बूँदें सिर्फ अलसाई-सी फिसलती हैं, लेकिन गिरती नहीं।

हवा का एक गीला झोंका हम पर से बह गया। लता माथुर के रिबन फर्राटे से उड़ने लगे। फिर मेरे झाड़-झंखाड़ से बाल हवा में उड़े और उलझकर रह गए। उसने देखा और हँसने लगी। उसको हँसता हुआ देखकर मैं भी हँसने लगा। फिर हम दोनों एक संग हँसने लगे।

तब हम दोनों घुल मिलकर बातें करने लगे। मैं उसके लिए अजनबी नहीं रह गया और वह मेरे लिए महज बच्ची न रहकर लता माथुर बन गई। मेरी उम्र कहीं बहुत पीछे छूट गई जैसे उसका कभी मुझसे वास्ता न रहा हो। उसके हृदय में मेरे प्रति कोई भय का संकोच मिट चला, जैसे वह वर्षों से मुझे जानती हो। उसकी अँगुलियाँ मेरे हाथ में बंधी हैं....जैसे कुछ कोमल पंखुड़ियों को मैंने अपने हाथों में समेट लिया हो। हमारी आँखें नाले के पानी पर झिलमिलाती, पिघलती चाँदी-सी धूप पर बहती है। नाले की ढलान पर तीन-चार मेमने गीली घास और कीचड़ से लिथड़े हुए। बढ़ गए। पत्तों को सूँघते हुए, जल में अपनी टेढ़ी-मेढ़ी छाया -कृतियाँ छोड़कर आगे बढ़ गए।

हवा का एक तेज झोंका आया, किनारे पर कुछ घास के तिनके पत्ते चौंककर कुछ दूर किनारे-किनारे उड़ते हुए नाले के पानी में लुढ़क गए। लता माथुर ने हवा में उड़ती हुई फ्राक को दोनों हाथों से घुटने तक नीचे खींच लिया।

“घर ? वह देखो।"

कोई कैसे जान पाए ? उसकी अँगुली का संकेत हवा में अनिश्चित दिशा की ओर टँगा है! नाले के आर-पार तो पुरानी इमारतों के खँडहर, भूली-भटकी घास की पगडंड़ियाँ, खिड़कियों से झाँकते रंग-बिरंगे परदे दीखते हैं-अँगुली कहाँ टिकी है?

“आया कुछ समझ में?”

"वही है न? "

2

झूठ को छिपाने के लिए मैंने भी अपनी अँगुली उसी दिशा की ओर उठा दी। उससे कुछ दूर गली के दूसरे कोने पर मैंने अनुमान लगाकर अपना कमरा भी दिखाया।

“अरे सच! वहीं तो हमारा स्कूल है। "

“स्कूल है कभी देखा नहीं । शायद होगा। वैसे तुम कह रही हो तो जरूर होगा।

आज तो तुम्हारी छुट्टी होगी।" “आज सबकी छुट्टी है तुम्हारी भी होगी? "

"छुट्टी? हाँ, हमारी भी छुट्टी है वैसे भी तो हर रोज छुट्टी ही रहती है। " पहली बार मैंने अपनी बेकारी को बिना हया- शर्म के तसलीम कर लिया। “यह कैसे हो सकता है? "

लता रानी के गोल-सुडौल चेहरे पर बड़ी-बड़ी आँखें आश्चर्य और अविश्वास से भर उठीं।

"हर रोज किसी को छुट्टी नहीं होती सबको काम पर आना पड़ता है। " "हमें कोई भी काम नहीं करना पड़ता, इसलिए हर रोज एक नई छुट्टी मिल जाती है। "

मैंने पहली बार बेरोजगारी के इस लम्बे और उदास अरसे पर से दरिद्रता की राख को बिना दर्द के कुरेद दिया। जो अभाव की रिक्तता अब तक चुभती थी, वह अब भी है, किन्तु जैसे वह अपनी न रहकर पराई बन गई है जिसे मैं बाहर से तटस्थ •भाव से देख सकता हूँ जिसने अब 'छुट्टी' का सहज भाव अपना लिया है। "

सुबह क्या मैं उदास था? मुझे लगा, मानो में गीली घास पर नंगे पाँव रखता हुआ। पहाड़ी की ढलान पर उतरता जा रहा हूँ। मेरे ऊपर घनी छाँहें हवा में कॉप रही हैं, स्मृतियाँ सूखे पत्तों-सी झरती जा रही हैं।

जिन्दगी कितनी हल्की है...

ऊपर आकाश में छोटे से एक बादल ने सूरज को ओढ़ लिया। धूप बुझने लगी ने और नाले के बहते पानी पर अनेक मटियाली छायाएँ मिटने लगीं।

“तुम्हारी जीजी बहुत अच्छी नाव बनाती हैं!" "मैंने उसके हाथों में कबूतर-सी दुबकी नाव को सहलाते हुए कहा।

लेकिन लता माथुर मुँह बनाए गुमसुम बैठी रही, जैसे में उसके सामने हूँ ही नहीं जैसे वह नन्हा-सा मस्तिष्क किसी बहुत दूर की बात में उलझकर रह गया हो।

“जीजी एक कहानी सुनाती हैं। यहाँ से बहुत दूर, सात समुन्दर पार एक छोटा-सा देश है, जो हीरे मोतियों की चमचमाती पहाड़ियों पर बसा है और जिसके चारों ओर चाँदी-ही-चाँदी की रेत हवा में उड़ती रहती है। जीजी कहती है कि वहाँ सब घरों की अपनी अलग-अलग झीलें हैं, जिनके नीले जल में दिन-रात सोने की मछलियाँ तैरती हैं। इन झीलों पर रंग-बिरंगे फूलों के पुल बने हैं, जिन पर हर शाम लोग सैर के लिए जाते हैं। जानते हो, वहाँ फूल केवल लड़कियाँ तोड़ सकती हैं, और वह भी सिर्फ अपने बालों में लगाने के लिए।”

मुझे हँसता हुआ देखकर लता माथुर एकदम चुप हो गई। फिर आँखों को नीचे झुकाए धीरे से बोली

"सचमुच- झूठ नहीं है सब जीजी ने कहा है।" “लेकिन यह कहानी तुम्हें अचानक कैसे याद आ गई?”

उसकी आँखें चुपचाप मेरे चेहरे पर टिक गईं।

“तुमने अभी नहीं कहा था कि तुम्हें कोई काम नहीं करना पड़ता, हर रोज छुट्टी रहती है? जीजी की कहानी में भी वे लोग काम की फिक्र नहीं करते, उन्हें भी हमेशा हर दिन छुट्टी रहती है। "

“ओह... फिर तो हम भी तुम्हारी जीजी की कहानी में हैं। " "जीजी कहती है कि कभी-कभी इस देश के लोग रात के समय बादलों की

सवारी पर चढ़ हमारे घरों में भी आते हैं....."

"तुमने कभी उन्हें देखा है? "

"न, कोई नहीं देख पाता, सब सोए रहते हैं...वे कभी-कभी छिपकर सपनों में

दिखाई दे जाते हैं। तुमने तो कई बार देखे होंगे?" “क्या?” मैंने चौंककर पूछा, मानो सोता हुआ जाग गया हूं।

“सपने"... उसने कहा।

"ओह....सपने!”

हम दोनों चुपचाप नाले के पानी पर सूरज की किरणों के बनते-बिगड़ते पैटर्न को देखते हैं । ईंटों की छोटी-सी दीवार पर से एक चिड़िया फुदककर नाले के किनारे पर उड़ आई और पानी में अपना सिर भिगोने लगी।

"सात समुन्दर पार उस विचित्र देश में कौन पहुँच पाता होगा?”

बच्ची खिलखिलाकर हँस पड़ी।

“तुम्हें इतना भी नहीं मालूम?"

“वे लोग किसी-न-किसी दिन हमें अपने देश में जरूर बुलाएंगे। देख लेना।”

"किस दिन कब?”

"जिस दिन यह कागज की नाव बहती उस देश तक पहुँच जाएगी...।"

“वे कैसे जानेंगे?"

"क्यों न जानेंगे ? नाव को देखकर क्या वे इतना भी नहीं समझ पाएंगे कि मैंने ही उसे पानी में बहाया है...?" उसकी आँखों में एक धुली, स्वप्निल दीप्ति जाग उठी...मानो सात समुन्दर पार का वह विचित्र देश सब दरियों को लाँघकर उसके सामने, विल्कुल पास आ गया है...फूलों का पुल, चाँदी की उड़ती हुई रेत, नीली झीलों में झलकते हुए सफेद मलमली बादल, जिन पर सोने की मछलियाँ तैर रही हैं...मानो इन सबको लता माथुर की कागज की नाव ने अपनी नन्ही-सी गोद में समा लिया हैं।

एक क्षण... मुझे लगा कि बीते हुए दिन बीत गए हैं, बढ़ती हुई उम्र पीठ से उतर गई है। आज कल से बँधा न होकर मुझसे जुड़ा है...जो आज हूँ। सब कुछ धुली हुई सीपी में समा गया है, जिस पर कोई बोझ नहीं, कोई बाँध नहीं... जो कालातीत, सुदूर छोर पर धूप और जल की उनींदी लहरों पर गिर उठ रहा है, गिर-उठ रहा है....।

समय के धुँधले सीमान्त पर मेरा बचपन, माँ का झुर्रियों भरा चेहरा... सब कुछ भीगी धूप के काँपते, सिहरते आँचल पर नीली धुन्ध की चिप्पियों-सा उड़ रहा है। सपनों की बासी गन्ध मानो तितली के रंगीन परों से बूँद-बूँद दूर कर विस्मृति की कब्रों पर उगी हुई पीली घास में खो गई है... जहाँ कुछ फूल उग आए हैं, भीगे से फूल...।

और मुझे लगता है, जिन्दगी कितनी हल्की है। फिर अचानक मुझे लता माथुर की हँसी और ताली बजाने का स्वर सुनाई दिया। नाव नाले के उजले फेनिल जल में डूबती उतराती बही जा रही थी।

मैंने देखा...और देर तक देखता रहा।

इस घटना को बीते अरसा गुजर गया। मैं अब भी बेकार हूँ, लेकिन अब 'एम्प्लायमेंट एक्सचेंज' के दफ्तर जाने की आदत छूट सी गई है। मैं अक्सर अपने कमरे में बन्द रहता हूँ। किन्तु जब कभी मेह बरसने लगता है और कमरे में रुआँ-रुआँ-सा धुँधलका घिर आता है...तब आज की तरह सिगरेट पीने के बहाने बाहर निकल आता हूँ। नाले में बहते पानी को देखता हुआ मैं अक्सर कुछ सोचने-सा लगता हूँ। मुझे लगता है कि हवा में काँपती भीगी घास, ढलान से पानी में झुकी हुई झाड़ियाँ और नाले में नहाती हुई चिड़ियों के परों की फड़फड़ाहट....सब एक धीमे स्वर में धीरे-धीरे कुछ गुनगुना रहे हैं... एक अपरिमेय रहस्यमयता की सुर-लहरी में माया का मर्म गरजने लगता है।

“यहाँ से बहुत दूर, सात समुन्दर पार एक छोटा सा देश है...” फिर कहानी शुरू हो जाती है... और मैं सुनने लगता हूँ।