हिंदी गद्य का उद्भव और विकास ख/अंधेर नगरी- भारतेंदु हरिश्चंद्र

अंधेर नगरी भारतेंदु हरिश्चंद्र द्वारा रचित नाटक है।

मूल पाठ सम्पादन

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नाटक के बारे में सम्पादन

यह छ अंको का एक प्रहसन है, जो किसी ऐसे ही आचरण के मूर्ख राजा को लक्ष्य करके लिखा गया है। कहा जाता है कि इस नाटक का उनपर प्रभाव भी पड़ा था । यह 'नैशनल थियेटर' नामक किसी मंडली के लिए एक ही दिन में लिखा गया था और अभिनीत भी हुआ था। इस प्रकार की कहानी[ ११६ ]

को लेकर पहिले भी खेल होते थे पर वे इस प्रकार सुव्यवस्थित नहीं थे। इंशा ने एक शैर में लिखा है- न होगा राज में हरबोंग के लेकिन। कहीं हज़रत सलामत आप के इंसाफ का जोड़ा।

कहानी है कि एक ग्राम ही ऐसा था जहाँ मूर्ख ही बसे थे और जिनका राजा यही हरबोंग था। जिसकी लाठी उसकी भैस' आदि से उसके न्याय के उदाहरण दिए जाते हैं । अस्तु, भारतेंदु जी ने इन्हीं सब कहानी को लेकर यह विनोद-पूर्ण प्रहसन रच डाला और उसमें बहुत लोगों पर सच्चा तत्वपूर्ण आक्षेप भी किया है।

आरंभ में उद्धृत श्लोक तथा समर्पण के छ रोलाओ में कारुण्य के साथ साथ स्वार्थीधता को छोड़कर सच्चा गुण-ग्रहण करने तथा देश और देशवासियों की सेवा में निरत रहने का मार्मिक उपदेश दिया गया है। 'अंत धर्म जय' कितना सत्य है । पाप-पुण्य, परपीडन-परोपकार, देशद्रोह-देशसेवा सभी का फल अंत होते ही स्पष्ट हो जाता है। मृत्यु के बाद जिसका जिस प्रकार स्मरण किया जाता है उसी से उसके जीवित काल के कर्म प्रगट होते हैं । धन तथा शक्ति के बल जीवित रहते कोई सब कुछ कर ले और अपनी प्रशंसा भी कराले पर अंत सबसे प्रबल है उस पर किसी की नहीं चली और न चलेगी।

प्रथम अंक में गुरु जी दो चेलों के साथ आते हैं और भोजन के प्रबंध की बातचीत 'जो है सो'वाली साधु भाषा में होती [ ११७ ]है। गोवर्द्धनदास को भिक्षा के लिए 'लोभ पाप का मूल" उपदेश देकर भेजते हैं। भारतेन्दु जी के एक दरबारी इसी नाम के थे, जिनमें मुटाई ताजगी के साथ लोभ की मात्रा भी प्रचुरता से थी। यह हर फन मौला भी थे और स्यात् उन्हीं को दृष्टि में रखकर यह चित्रण हुआ है।

दूसरे अंक में बाजार का दृश्य है । हर एक विक्रेता अपनी अपनी वस्तु की प्रशंसा कर अंत में कहता है कि टके सेर है। काशी का घासीराम का चना प्रसिद्ध है । चना बेंचने वाला काशी की तत्कालीन प्रसिद्ध वेश्याओं तौकी, मैना, गफूरन और मुन्नी का नाम लेता है। इनमें प्रथम दो प्रसिद्ध गायिका थीं। तीसरी पटने के किसी नवाब साहब के हरम में चली गई। चना खाते समय डाढ़ी का हिलना भी खूब रहा । दूना टिकस का मत पूछिए । अभी भूकंप के ठीक बाद काशी के नए पुराने मकानों की कीमत डेवढ़ी दूनी असेस की गई है। मकानो की मालियत बढ़ाने का यह अनूठा नुस्खा स्यात् इसी चना के खाने के बाद सूझा रहा होगा । नारंगी वाली भी नौ रंग की बात कह गई, अश्लील बात भी रंगीन होकर श्लील रह गई।

कुंजड़िन द्वारा हिन्दुस्तान के मेवा फूट और बैर की की गई प्रशंसा सच्ची ही है, क्योकि यह प्रतिदिन अनुभूत हो रही है। मुगल भी टके सेर के मेवे की तारीफ करते हुए हिंदुस्तान पर आक्षेप कर रहा है । क्यो न करे ? पाचकवाला बहुत कुछ कह गया है । अमले रिश्वत क्यों न खायँ ? देने वाला कह नहीं सकता, क्योंकि देना स्वयं स्वीकार करते ही वह तो फँस जायग [ ११८ ]और लेना साबित करना कठिन । महाजन जमा की रकम इसी के जोर पर हजम कर जाते हैं पर क्या वे ऐसा करने पर महा+जन रह जायेगे ? पहिले और अब भी अदालतों में लाला लोगों की भरमार है और इसी कारण इन्हें बुद्धि का अजीर्ण रहना स्वाभाविक है। संपादक लोग बात पचा नहीं सकते, यह ठीक ही लिखा गया है। अभी ठाकुर-चतुर्वेदी की कथा नई ही है। साहब लोग चार सहस्र मील से क्या यहाँ तीर्थ करके तथा परोपकार करके पुण्य संचित करने आए हैं। अपने परिश्रम का फल लूट रहे हैं, इसमें हिंदू छीजें या सीझें। पुलिस वालों को कानून से क्या ? वे न कानूनदाँ, न कानूनगो । उन्हें अपने काम से काम । जात वाला खूब कह गया, पक्का अनुभवी था पर पचास साठ वर्ष पहिले ही का न था, अब उसने बहुत उन्नति कर ली है। टका लेना दूर अब कुछ देकर भी जाति बदलने को तैयार है । कुएँ पर पानी पीने न दो, मंदिर में जाकर पैसा चढ़ाने को मना करो, बस जाति धर्म सब कुछ देने को तैयार । धर्म भी क्या बच्चों की लंगोटी हो गई, जब चाहा उतार कर नंगे हो गए । अस्तु, इस प्रकार गोबरधनदास जी बाजार घूमकर, आवाजे सुनकर तथा भाव पूरी तौर जाँचकर मिठाई लेकर चल दिए।

तीसरे अंक में गुरु जी ने अंधेरनगरी का हाल देखकर वहाँ न रहना निश्चय किया पर गोबर्द्धनदास ने उपदेश न सुना और वहीं रह गया।

चौथे अंक में उसी प्रकार दरबार का तमाशा दिखलाया [ ११९ ]गया, जिस प्रकार आज कल सिनेमा चित्रपटों में अदालत का तमाशा होता है । बकरी दबने के कारण किसी को फाँसी दी जानी चाहिए इसलिए कोतवाल ही उसके लिए योग्य पात्र चुने गए । जैसा दावा वैसा फैसला ।

पाँचवें अंक में गोवर्द्धनदास गाते हुए आते हैं । इस गान में कुछ मर्म की बाते हैं, जो अत्यंत स्पष्ट रूप से कही गई है। इसके अनंतर टके सेर की मिठाई खाकर खूब तैयार हुए बलिपशु के समान गोवर्द्धनदास पकड़े जाते हैं । कारण केवल इतना ही बतलाया गया कि फॉसी का फंदा बड़ा है और कोतवाल हैं दुबले अतः न फॉसी का फंदा छोटा हो सकता है और न बकरी की जान के बदले किसी का जान लेना रुक सकता है। राजा की न्याय-विभीषिका से कोई मुटाता नहीं था इसलिए यही बाबा जी मुफ्त के मिले।

छठे अंक में गोवर्द्धनदास रोता चिल्लाता है, गुरुजी आ पहुँचते हैं और एक चाल चलते है कि स्वर्ग जाने का ठीक यही मुहूर्त है, इस समय जो मरेगा वह सीधा स्वर्ग पहुँच जायगा। अंधेर नगरी के सभी मूर्खों के इस अवसर का लाभ उठाकर स्वर्ग सिधारने का प्रयास करने के साथ यह प्रहसन समाप्त होता है।

टिप्पणी- यह आलेख भारतेंदु नाटकावली से लिया गया है।