हिंदी भाषा 'ख'/बाँधो न नाव इस ठाँव, बंधु!
निराला की यह कविता 'अर्चना' में संकलित है।
बाँधो न नाव इस ठाँव, बन्धु![१]
पूछेगा सारा गाँव, बन्धु!
यह घाट वही जिस पर हँसकर,
वह कभी नहाती थी धँसकर,
आँखें रह जाती थीं फँसकर,
कँपते थे दोनों पाँव बन्धु!
वह हँसी बहुत कुछ कहती थी,
फिर भी अपने में रहती थी,
सबकी सुनती थी, सहती थी,
देती थी सबके दाँव, बन्धु!
संदर्भ
सम्पादन- ↑ सूर्यकान्त त्रिपाठी 'निराला'-रागविराग, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद:२०१४, पृ.१६२