हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/आलोचना
आलोचना की परिभाषा :--आलोचना "लोच" धातु से बना है जिसका अर्थ होता है 'देखना' अर्थात् किसी वस्तु या कृति की सम्यक् व्याख्या अथवा उसका मूल्यांकन करना ही आलोचना है। अत: जहां साहित्य है, वहाँ किसी-न-किसी रूप में आलोचना भी है। कदाचित इसीलिए डॉ॰ श्यामसुंदर दास ने कहा है— "साहित्य को जीवन की व्याख्या मानें तो आलोचना को उस व्याख्या की व्याख्या मानना पड़ेगा।"
बाबू गुलाब राय के अनुसार— "आलोचना का मूल उद्देश्य कवि की कृति का सभी दृष्टि कोणों से आस्वाद कर पाठकों को उस प्रकार के आस्वाद में सहायता देना तथा उनकी रुचि को परिमार्जित करना एवं साहित्य की गति विधि निर्धारित करने में योग देना।"
हिंदी आलोचना का विकास क्रम
सम्पादनहिन्दी आलोचना का प्रारम्भिक रूप
सम्पादनहिन्दी साहित्य में आलोचना पहले-पहल केवल काव्यगत गुण-दोषों तक ही सीमित थी। भक्तिकाल में उसका रूप टीकाओ के रूप में मिलता है। जैसे 'मानस' की विविध टीकाएँ, कृष्ण साहित्य की पद्यानुबद्ध विवरणात्मक आलोचनाएँ आदि। इसके लिए नाभादास के 'भक्तमाल' का सूर-विषयक पद द्रष्टव्य है--
उक्ति ओज अनुप्रास वरन, अस्थिति अति भारी॥
वचन प्रीति निर्बाह अर्थ, अद्भुत तुक भारी।
इसके अतिरिक्त "सूर-सूर तुलसी ससी, उड्गन केशवदास", "तुलसी गंग ड़ुवों बाए सुकविन के सरदार, उनके काव्यन में मिली भाषा विविध प्रकार" आदि सूक्तियाँ भक्तिकालीन आलोचना का एक रूप प्रस्तुत करती हैं।
रीतिकाल में लक्षण-ग्रन्थों के रूप में रस, अलंकार, छंद नायक-नायिका भेद करने में समालोचना का रूप समाप्त हो गया। केशव, चिंतामणि, मतिराम, देव, बिहारी आदि ने अलंकार और रस को प्रमुखता दी। बिहारी सतसई की टीकाओं, कुलपति मिश्रा, श्रीपति, चिंतामणी और सोमनाथ द्वारा लिखी गई वाचनिका-वार्ता, तिलक आदि के रूप में आलोचना का रूप देखने को मिलता है परंतु इस प्रकार की आलोचना, साहित्य का अनुशासन करना तो दूर, उसका मार्ग-दर्शन भी न कर सकी। हिंदी में वार्ता-ग्रंथों, भक्तमालों और उनके टीका-ग्रंथों के रूप में आलोचना की जो प्राचीन परंपरा मिलती है, वह निःसंदेह हिंदी आलोचना का प्रवेश द्वार है।
हिंदी की विभिन्न विधाओं की तरह आलोचना का विकास भी प्रमुख रूप से आधुनिक काल की देन है। साहित्य की अन्य विधाओं की तरह आलोचना का भी संबंध यथार्थ बोध से हुआ और यह प्रतीत होने लगा कि रस किसी छंद में नहीं है बल्कि मानवीय संवेदना के विस्तार में है लेकिन यहाँ यह स्पष्ट आर देना आवश्यक है कि हिन्दी आलोचना के जन्म और विकास में संस्कृत के काव्यशास्त्रों के साथ-साथ पाश्चात्य आलोचना का योगदान रहा किन्तु हिंदी आलोचना की संकल्पना के सन्दर्भ में यह भी उल्लेखनीय है, जिसकी ओर विश्वनाथ त्रिपाठी ने संकेत किया है कि "हिंदी आलोचना पाश्चात्य की नक़ल पर नहीं, बल्कि अपने साहित्य को समझने-बूझने और उसकी उपादेयता पर विचार करने की आवश्यकता के कारण जन्मी और विकसित हुई।"
भारतेंदु युग
सम्पादनइस युग के प्रमुख रचनाकार बालकृष्ण भट्ट ने "साहित्य जनसमूह के ह्रदय का विकास है" सूत्र से साहित्य को परिभाषित किया तो हिंदी आलोचना भी उसके साथ होकर जन समूह की भावनाओं की सारथी बन गई। भारतेन्दु युग में हिन्दी आलोचना के परंपरागत रूपों के साथ-साथ पश्चिमी शिक्षा-संस्कृति के संपर्क में आने से नवीन आलोचना पद्धतियों का समावेश हुआ। तब हम इस युग के आलोचना के स्वरूप को निम्न भागों में बाँट सकते हैं—-
(क) काव्य के लक्षण या काव्य-सिद्धान्त निरूपण के क्षेत्र में प्रताप नारायण साह का ‘रस कुसुमकार’, कविराजा मुरारिदान का ‘जसवंत भूषण’ और भारतेन्दु का ‘नाटक’ उल्लेखनीय है। भारतेंदु ने अपने ‘नाटक’ विषयक लेख में नाटकों की प्रकृति, समसामयिक जनरुचि और प्राचीन नाट्यशास्त्र की प्रासंगिकता पर विचार किया। इसलिए भारतेंदु को हिंदी साहित्य का प्रथम आलोचक माना जा सकता है।
(ख) टीकाओं के क्षेत्र में सरदार कवि ने केशव की ‘कविप्रिया’ और ‘रसिक प्रिया’ की टीकाएँ, लल्लूलाल कृत ‘लालचन्द्रिका’ नाम से ‘बिहारी सतसई’ की टीका का संशोधित रूप जार्ज ग्रियर्सन ने प्रस्तुत किया।
(ग) इतिहास ग्रन्थों में कवि-परिचय के साथ उनके महत्त्व का प्रतीपादन करनेवाली आलोचना के अंतर्गत शिवसिंह सेंगर कृत ‘शिवसिंह सरोज’ तथा जार्ज ग्रियर्सन का इतिहास ग्रंथ आदि उल्लेखनीय हैं।
(घ) इस काल में व्यावहारिक आलोचना पत्र-पत्रिकाओं के लेखों, टिप्पणियों और निबंधों और पुस्तक समीक्षाओं से विकसित हुई है। ‘कविवचनसुधा’ ‘हरिश्चंद्र मैगज़ीन’, ‘हरिश्चंद्र चंद्रिका’, ‘भारत मित्र’, ‘सार सुधानिधि’, ‘ब्राह्मण’, और ‘आनंद कादंबिनी’ जैसी पत्रिकाओं के लेखों में साहित्य और देश की समस्याओं पर सोचने-विचारने और समाधान निकालने की प्रक्रिया में इस युग की आलोचना दृष्टि विकसित हुई। ‘कविवचनसुधा’ में ‘हिन्दी कविता’ नाम से भारतेन्दु ने, ‘संयोगिता स्वयंवर’ की समीक्षा प्रेमघन ने ‘आनंद कादंबिनी’ में और बालकृष्ण भट्ट ने ‘हिन्दी प्रदीप’ में आलोचना लिखी। प्रेमघन जी ने ‘आनंद कादम्बिनी’ के एक अंक में बाणभट्ट की ‘कादंबरी’ की प्रशंसात्मक आलोचना की और एक अन्य लेख में बाबू गदाधर सिंह द्वारा ‘बंग-विजेता’ नामक बांग्ला उपन्यास के हिंदी अनुवाद की आलोचना करते हुए उपन्यास के अंतरंग-बहिरंग दोनों पक्षों पर विचार किया है।
डॉ॰ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय के शब्दों में— "हम इन्हें आनेवाली समालोचना का प्रारम्भिक रूप मान लें तो संभवत: कोई अनुचित नहीं होगा।"
नागरी प्रचारिणी सभा
सम्पादनभारतेन्दु और द्विवेदी युग के बीच संयोजक कड़ी के रूप में नागरी प्रचारिणी सभा और पत्रिका की भूमिका हिन्दी आलोचना को दिशा दिखाने में अत्यंत ही महत्त्वपूर्ण है। यह आलोचना का नया युग नहीं है। इस पत्रिका में प्रकाशित गंगा प्रसाद अग्निहोत्री का 'समालोचना', बाबू जगन्नाथ दास रत्नाकर का 'समालोचनादर्श', अंबिका दत्त व्यास का 'गद्य काव्य-मीमांसा' आदि लेख हिन्दी समीक्षा को श्रेष्ठ प्रदाय हैं। इस सभा द्वारा प्राकाशित ‘हिन्दी साहित्य का वृहत इतिहास’ (17 खंडों में) आलोचना-साहित्य की विशिष्ट उपलब्धि है।
द्विवेदी युग
सम्पादनभारतेंदु के बाद हिंदी आलोचना ही नहीं, सम्पूर्ण हिंदी साहित्य पर आ० महावीर प्रसाद द्विवेदी का सबसे अधिक प्रभाव रहा। आ० द्विवेदी ने जहाँ 'सरस्वती' पत्रिका के संपादन के द्वारा आलोचना की भाषा का रूप सुस्थिर किया, वहीं बाबू श्यामसुन्दरदास ने आलोचना के आवश्यक उपादान एकत्र किये, उन्हें व्यवस्थित और संयोजित किया। द्विवेदी युग में सैद्धांतिक और परिचयात्मक आलोचना के साथ-साथ तुलनात्मक, मूल्यांकनपरक, अन्वेषण और व्याख्यात्मक आलोचना की भी शुरुआत हुई।
आचार्य द्विवेदी के 'कवि और कविता' और 'कविता तथा कवि-कर्तव्य' निबंधो में उनकी काव्य विषयक धारणाएं दृष्टिगत होती है। उनका 'कालिदास की निरंकुशता' निबंध अपने ढंग का आलोचनात्मक लेख है। 'रसज्ञ रंजन' में उन्होंने छंद, भाषा, अर्थ और नैतिकता पर बल दिया।
इस युग में एक ओर लक्षण-ग्रंथों के अनुकरण पर सैद्धान्तिक आलोचना के ग्रंथ लिखे गए, जैसे जगन्नाथ प्रसाद भानु का 'काव्य प्रभाकर', लाला भगवान दीन का 'अलंकार मंजूषा' तो दूसरी ओर तुलनात्मक आलोचना का सूत्रपात पदमसिंह शर्मा ने 'बिहारी और फारसी के कवि सादी' की तुलना करके, पं. कृष्ण बिहारी मिश्र ने 'देव और बिहारी' में, लाला भगवानदीन ने 'बिहारी और देव' में तथा मिश्र बंधुओं ने 'हिंदी नवरत्न' में नवरत्नों का चयन ही कवियों की परस्पर तुलना के द्वारा किया।
अध्यापकीय आलोचना की शुरुआत भी द्विवेदी युग की ही देन है। बाबू श्यामसुंदरदास ने एम.ए. के पाठ्यक्रम के लिए 'साहित्यालोचन', 'रूपक-रहस्य' और 'भाषा-रहस्य' नामक आलोचनात्मक ग्रन्थ लिखा।
इस युग के आलोचना के स्वरूप के विषय में आ० शुक्ल का मानना था— “यद्यपि द्विवेदी युग में विस्तृत समालोचना का मार्ग प्रशस्त हो गया था, किन्तु वह आलोचना भाषा के गुण-दोष विवेचन, रस, अलंकार आदि की समीचीनता आदि बहिरंग बातों तक ही सीमित थी।”
शुक्ल युग
सम्पादनहिंदी आलोचना को आलोचना शास्त्र के रूप में व्यवस्थित, गाम्भीर्य और समृद्ध करने का श्रेय आचार्य रामचंद्र शुक्ल को है। आचार्य शुक्ल ने सैद्धांतिक आलोचना को भारतीय साहित्य चिंतन परम्परा और पाश्चात्य साहित्य परम्परा के समन्वय से समृद्ध किया। आचार्य शुक्ल ने निजी पसंद-नापसंद पर आधारित आलोचना को ख़ारिज करके साहित्य के वस्तुवादी दृष्टिकोण का विकास किया। अपने पूर्ववर्ती उन्होंने साहित्यिक आलोचना और इतिहास के लिए साहित्येतर और उपयोगितावादी मानदंडों को स्वीकार नहीं किया।
उन्होंने 'हिंदी साहित्य का इतिहास', 'चिंतामणि' के निबंधों तथा 'रसमीमांसा' जैसे ग्रन्थों से सैद्धांतिक आलोचना को नई गरिमा प्रदान की। आ० शुक्ल के द्वारा सैद्धान्तिक आलोचना के योगदान को डॉ० गणपतिचान्द्र गुप्त स्पष्ट करते हुए कहते हैं—"उन्होंने शताब्दियों को प्राचीन रस सिद्धान्त का नया जीवन प्रदान किया। उन्होंने काव्य में सौन्दर्य या रस को सर्वाधिक महत्त्व प्रदान किया।" उसके साथ ही सूरदास, जायसी और तुलसीदास के काव्य के व्यवस्थित मूल्यांकन की प्रक्रिया में कुछ बीज शब्द गढ़े, जो आलोचनात्मक प्रतिमान के रूप में स्थापित हुए। 'कवि की अंतर्वृति का सूक्ष्म व्यवच्छेद', 'ह्रदय की मुक्तावस्था', 'आनंद की साधनावस्था', 'आनंद की सिद्धावस्था', 'लोक-सामान्य', 'साधारणीकरण', 'लोकमंगल', 'जनता की चित्तवृत्ति' आदि प्रतिमानों की स्थापना साहित्यिक समीक्षाओं के आधार पर करते है। इसलिए उनकी सैद्धांतिक और व्यावहारिक आलोचना में संगति है। वे 'भ्रमरगीतसार' की भूमिका में सूरदास को आनंद की सिद्धावस्था का कवि मानते है तो 'तुलसी' की भूमिका में तुलसीदास को साधनावस्था का और 'जायसी ग्रंथावली' की भूमिका में जायसी के काव्य में 'प्रेम की पीर' की व्यंजना को महत्त्व देते है। शुक्ल जी छायावाद के आध्यात्मिक रहस्यवाद को काव्य के क्षेत्र के बाहर की चीज समझते थे।
आचार्य शुक्ल ने उपन्यासों और कहानियों पर भी विचार करते हुए लेखकों से व्यापक सामाजिक-राष्ट्रीय जीवन के चित्रण करने का आग्रह किया है। साहित्य के प्राय: सभी क्षेत्रों में आ० शुक्ल के योगदान को लक्षित करके आ० नन्ददुलारे वाजपेयी कहते हैं— "हिन्दी साहित्य को शास्त्रीय और वैज्ञानिक भूमि पर प्रतिष्ठित करने में शुक्ल जी ने युग-प्रवर्तक का कार्य किया, वह हिन्दी के इतिहास में सदैव स्मरणीय रहेगा।"
उनके सहवर्ती आलोचकों में विश्वनाथ मिश्र ने 'हिन्दी साहित्य का अतीत' और 'बिहारी की वाग्विभूति', गुलाब राय के 'सिद्धान्त और अध्ययन', 'काव्य के रूप' और 'नवरस' जैसे ग्रन्थों के द्वारा आलोचना को पुष्ट किया।
रचना और आलोचना की समानधर्मिता या समांतरता को स्थापित करनेवाले शुक्ल जी के योगदान को डॉ राम विलास शर्मा के इस मंतव्य से समझा जा सकता है कि "जो काम निराला ने काव्य में और प्रेमचंद ने उपन्यासों के माध्यम से किया वही काम आचार्य शुक्ल ने आलोचना के माध्यम से किया"।
शुक्लोतर युग
सम्पादनस्वच्छंदतावादी आलोचना
सम्पादनआचार्य शुक्ल हिंदी आलोचना के शिखर पुरुष थे लेकिन शुक्लोतर हिंदी आलोचना का विकास शुक्ल जी मान्यताओं के साथ टकराहट के साथ शुरू हुआ। टकराने वालों में छायावाद के प्रति सहानुभूति पूर्ण रुख रखने वाले रचनाकार प्रसाद, पन्त और निराला तथा समीक्षक आ० नन्द दुलारे वाजपेयी थे। पन्त के 'पल्लव' को छायावादी आलोचना के नए प्रतिमानों का पहला घोषणापत्र कहा जाता है। इन कवि आलोचकों ने छायावादी साहित्य की काव्यभाषा, यथार्थ निरूपण, अर्थ मीमांसा, छंद मुक्ति, शिल्प-बोध आदि के एक नए साहित्य शास्त्र द्वारा काव्य बोध कराने का मार्ग प्रशस्त किया।
हिंदी आलोचना को जो प्रौढ़ता और सुव्यवस्था आचार्य शुक्ल ने प्रदान किया था, उसे आगे ले जाने का चुनौतीपूर्ण कार्य नन्द दुलारे वाजपेयी, हजारी प्रसाद द्विवेदी और डॉ नगेन्द्र की महान त्रयी ने किया। नन्द दुलारे वाजपेयी के 'आधुनिक साहित्य', 'नया साहित्य नए प्रश्न' तथा 'कवि निराला' आदि महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं।
ऐतिहासिक और सांस्कृतिक आलोचना
सम्पादनआचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का शुक्ल जी से मतभेद इतिहास-बोध को लेकर था। उन्होंने 'हिंदी साहित्य की भूमिका' तथा 'हिन्दी साहित्य का आदिकाल' में हिंदी साहित्य को एक समवेत, भारतीय चिंता के स्वाभाविक विकास के रूप में समझने का प्रयास और प्रस्ताव किया। अपने 'कबीर' आलोचनात्मक ग्रंथ के द्वारा इन्होंने हिन्दी साहित्य में कबीर को वह स्थान प्रदान किया जिसकी उपेक्षा शुक्ल जी से हुई थी। ऐतिहासिक समीक्षा के उदाहरण पं० विश्वनाथ मिश्र और आ० परशुराम चतुर्वेदी की आलोचनाओं में देखा जा सकता है।
मनोविश्लेषणावादी आलोचना
सम्पादनइलाचन्द्र जोशी के 'साहित्य-सर्जना', 'देखा-परखा', अज्ञेय के 'त्रिशंकु', 'आत्मनेपद', डॉ॰ नगेन्द्र के 'रस सिद्धान्त' तथा डॉ॰ देवराज के 'साहित्य का मनोवैज्ञानिक अध्ययन' में मनोविश्लेषणवादी समीक्षा दृष्टि का सैद्धान्तिक और व्यावहारिक रूप देखा जा सकता है।
प्रगतिवादी आलोचना
सम्पादनशुक्लोतर युग में हिंदी आलोचना के विविधमुखी विकास में प्रगतिवादी आलोचना प्रवृति भी प्रमुख है। प्रगतिवादी आलोचना का आधार मार्क्सवादी आलोचना थी। शिवदान सिंह चौहान, प्रकाश चन्द्र गुप्त, रामविलास शर्मा, रांगेय राघव और नामवर सिंह प्रमुख प्रगतिवादी आलोचक रहे है। शिवदान सिंह ने ‘आलोचना के मान’, 'प्रेमचंद की उपन्यास कला' और 'उपन्यास और लोक जीवन', रामविलास शर्मा ने 'प्रगति और परंपरा', 'प्रगतिशील साहित्य की समस्याएँ', प्रकाशचन्द गुप्त ने 'हिन्दी साहित्य के जनवादी परंपरा', मुक्तिबोध ने 'नई कविता का आत्मसंघर्ष तथा अन्य निबंध', 'नए साहित्य का सौन्दर्यशास्त्र' आदि लिखकर प्रगतिवादी समीक्षा परम्परा को समृद्ध किया। रामविलास शर्मा ने आदि काव्य से लेकर समकालीन हिंदी साहित्य की ठेठ जातीय परम्परा को स्थापित किया, जिसका प्रतिनिधि उन्होंने भारतेंदु, महावीर प्रसाद द्वेदी, प्रेमचंद, रामचंद्र शुक्ल और निराला को माना है।
नामवर सिंह ने 'छायावाद' में छायावादी काव्य के उपनिवेश विरोधी और रुढ़िवाद विरोधी चरित्र का उद्घाटन किया और काव्य के नए प्रतिमानों का प्रश्न 'कविता के नए प्रतिमान' में उठाया जिस पर पश्चिम की रूपवादी आलोचना का गहरा प्रभाव है। 'दूसरी परंपरा की खोज' की और 'वाद-विवाद-संवाद' के द्वारा आलोचना के नई परंपरा शुरू की।
नामवर सिंह के बाद विश्वंभर नाथ उपाध्याय, रमेश कुंतल मेघ, शिवकुमार मिश्र और मैनेजर पाण्डेय अहम योगदान है।
नयी समीक्षा
सम्पादन1954 ई॰ में 'नई कविता' की पूर्ण प्रतिष्ठा के साथ हिन्दी में 'नई समीक्षा' का स्वर मुखरित हुआ। इस आलोचना प्रवृत्ति पर पश्चिम के New Criticism का प्रभाव स्पष्ट है। पश्चिम की तरह हिन्दी के आलोचकों ने भी जटिल भावबोध और कलात्मक उपादानों— शब्द-संकेतों, बिंबों, प्रतीकों, उपमान आदि से युक्त संश्लिष्ट काव्य-भाषा वाली नई कविता की समीक्षा के लिए एक सर्वथा भिन्न समीक्षा-दृष्टि और शैली की आवश्यकता का अनुभव किया जिसके फलस्वरूप हिन्दी में 'नई समीक्षा' का प्रचार-प्रसार हुआ। इन समीक्षकों में अज्ञेय (भवन्ती), गिरिजाकुमार माथुर (नई कविता: सीमाएं और संभानाएँ), विजयदेवनारायण साही, जगदीश गुप्त (नई कविता: स्वरूप और समस्याएँ), मलयज (कविता से साक्षात्कार), रामस्वरूप चतुर्वेदी, अशोक वाजपेयी (फिलहाल) आदि नाम उल्लेखनीय हैं।
उपरोक्त पड़ावों के अलावा हिन्दी आलोचना संरचनावादी आलोचना, सर्जनात्मक आलोचना, समाजशास्त्रीय आलोचना तथा समकालीन हिन्दी आलोचना दृष्टियों से भी गुज़रकर जाती है। इस दृष्टि से शिवकुमार मिश्र, कर्णसिंह चौहान, मधुरेश, निर्मला जैन, परमानंद श्रीवास्तव, विश्वनाथ त्रिपाठी, अजय तिवारी एवं रेवती रमण का नाम उल्लेखनीय है।
इस प्रकार हम पाते हैं कि हिन्दी आलोचना काफी विकसित हो चुकी है और अन्य साहित्यिक विधाओं की भांति स्वतंत्र विफधा के रूप में रतिष्ठित हो चुकी है। अब यह दोयम दर्जे की श्रेणी से बाहर निकल चुकी है। क्योंकि डॉ॰ राजनाथ शर्मा के शब्दों में— "हम साहित्य के विशिष्ट गुणों या अंगों की सीमित आलोचना से हटकर, आज विश्व साहित्य को आधार मानकर उसकी आलोचना करने लगे हैं।"