हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/नयी कविता

आज़ादी के बाद मध्यवर्ग तथा निम्नवर्ग में आया स्खलन कई समस्याओं को जन्म दे चुका है। महंगाई, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार, बेईमानी, कालाबाजारी, जातियता, साम्प्रदायिकता, धर्माधता, यंत्रयुग के कारण बढ़ती बेरोजगारी, यौन जीवन में आया खुलापन, टुटते पारिवारीक संबंध, व्यक्ति मन में बढ़ता तनाव आदि ने यथार्थ के क्षण की महत्ता को रेखांकित किया।

लघुमानव के बहाने उसकी प्रतिष्ठा, महत्ता जरुरी लगी। कलाकारों, कवियों की नैतिक जिम्मेदारी ने उनमे बैचैनी, छटपटाहट, नैराश्य, तनाव और इन सबके विरुद्ध प्रतिबध्द संघर्ष की अभिव्यक्ति नयी कविता में हुई। मानवीय संबंधों के साथ अनुभूति व्यक्ति के लिए नयी भाषा का निर्माण हुआ जो जन-जन की भावना, क्रांती, संघर्ष, आस्था को लेकर सपाटबयानी, गद्यात्मकता, मुक्तछंद का प्रयोग किया जाने लगा। युगीन परिस्थिति और व्यक्ति के पारस्पारिक संघर्ष और समन्वय को काव्य विषय के रुप में नयी कविता ने स्वीकार किया। डॉ० रघुवंश ने लिखा है--"नयी कविता अपनी अभिव्यक्ति, प्रेषणीयता तथा उपलब्धि की दृष्टि से प्रयोगशील कविता के आगे की स्थिति है। प्रयोगशील कविता ने परम्परा से विद्रोह के रुप में प्रयोग तथा अन्वेषण का मार्ग स्वीकार किया था, पर नयी कविता के संदर्भ में वे उसकी प्रवृत्ति के सूचक है। प्रयोग युग का कवि अपने संघर्ष के प्रति निश्चित नहीं था, आज का कवि अपनी सारी शंकाओं के बीच अपने व्यक्तित्व के प्रति आस्थावान है। "[१]

स्वतंत्रता के बाद आज़ादी से लघु मानव का मोहभंग हो गया। बाद में भी उसकी सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक स्थिति में कोई सुधार नहीं हो पाया। परिणामत: मध्यवर्ग में अपनी स्थिति के प्रति संघर्ष भाव उत्पन्न हुआ। इसमें भी उसने विरोध को पाया। एक ओर राष्ट्रीय स्वाधीनता और उन्नति से उसके मन में आस्था और विश्वास निर्माण हो रहा था तो दुसरी ओर अपनी बढती हुई महत्वाकांक्षाओ की पूर्ति न होने से निराशा और अवसाद से वह घिर रहा था। कुछ ऐसी ही जटिल समस्याएँ उनके सामने आयी इसी प्रकार के बदलते मनुष्य तथा समाज को नयी कविता ने व्यक्त किया। उसकी प्रवृत्तियाँ निम्न है--

लघु मानव के व्यक्तित्व की खोज और स्थापना सम्पादन

लघु मानव का कल्पना-बोध नयी कविता की विशिष्टता है। नयी कविता ने जिस मानव की कल्पना की वह व्यापक मानव-आत्मा का लघुतम बोध कहा गया है। कविता किसी भी प्रकार के विराटत्व के समक्ष मनुष्य के अस्तित्व को नष्ट नहीं करना चाहती। विराटत्व के सामने व्यक्ति के अस्तित्व को कवियों ने संकट में पाया इसलिए उन्होंने उसकी महत्ता को कविता में रेखांकित कर उसके अस्तित्व को बचाना चाहा। इसी नये मनुष्य को लक्ष्मीकांत वर्मा ने 'लघु मानव' कहा और उसकी सबसे बड़ी विशेषता है, उसकी "संवेदना भीड़ की संवेदना नहीं है"... वह विवेक और आत्मसाक्षात्कार पर आधारित संवेदना है, वह चाहे जितनी नगण्य हो, चाहे जितनी अवहेलना के योग्य हो, उस समुहवाद से अधिक मुल्यवान है, जो केवल यंत्र द्वारा हमारी इंद्रियों को चालित करके अपना मन्तव्य तो सिद्ध कर लेना है किन्तु जो उस भीड़ की हर इकाई को खोखला ढूँढ़ बनाकर छोड़ देता है।"

नये लोकतंत्र और उद्योगिक व्यवस्था से निर्मित जो संस्कृति समाज नये कवियों को मिला उसमें उसका विवेक और स्वतंत्रता आहत हो गयी। उनमें कुंठा पैदा हुई और अपनी इस सम्पूर्ण स्थिति एवं परंपरागत सामाजिक-सांस्कृतिक व्यवस्था के प्रति विद्रोह का जन्म हुआ और ऐसे में मनुष्य की कल्पना को प्रोत्साहन दिया जो सारी व्यवस्था के सामने छोटा होता हुआ भी अपनी स्वतंत्रता और विवेक का नियन्ता हो गया। लक्ष्मीकांत वर्मा के अनुसार लघु मानव की निम्न विशेषताएँ है--

  1. लघु मानव के लघु परिवेश की बात इन कुंठाओं से पृथक है और मानवानुभूति और मानव सार्थकता के महत्व से संबद्ध है।
  2. लघु मानव का परिवेश अनुभूति की गहराई और विवेक की मर्यादा से प्रशासित होता है।
  3. भविष्य के प्रति वह अपनी आस्था तो रखता ही है, किन्तु लघु परिवेश की सार्थकता के साथ।
  4. उसकी अभिव्यक्ति में यह विश्वास भी निहित है कि उसका भावबोध किसी पूर्व निश्चित नियतिवाद या चमत्कार से प्रभावित नहीं है।
  5. स्वतंत्रता की कोई और परिभाषा बिना इस मानवीय स्तर के अर्थात लघु-मानव और उसके लघु परिवेश के पूरी नहीं होती।
  6. वह जीवन क्रियाशील के या क्रियाशील जीवन के उस रुप को चाहता है, जिसमें समग्रता हो, संकीर्णता न हो।
  7. जीवन की समग्रता का व्यवहारिक रुप एक-दूसरे को सहन करने में है न कि उस अव्यावहारिक आधिपत्य में, जिसमें विरोधों का नाश करके केवल एक सत्ता रुढ़ व्यक्ति के प्रति समस्त चेतना अर्पित हो जाए।

इसमें लघु मानव की ऐसी छवि उभरकर आती है, जो अपने लघु परिवेश, स्वतंत्रता, विवेक और जीवन पद्धति के प्रति पूर्णतः सजग है। उन्होने घोषणा की मानव इकाई को पूर्ण सम्मान दिया जाए अर्थात नयी कविता जीवन के प्रती स्वाभिमान, सदवृत्ति अस्था रखता है और ऐसे ही मनुष्य को सजग-लघु मानव कहा गया। जगदीश गुप्त के शब्दों में कहे तो "नया मनुष्य रुढिग्रस्त चेतना से मुक्त, मानव मूल्यों के रुप में स्वातंत्र्य के प्रति सजग, अपने भीतर अनारोपित सामाजिक दायित्व का स्वंय अनुभव करनेवाला, समाज को समस्त मानवता के हित में परिवर्तित करके नया रुप देने के लिए कृत-संकल्प, कुटिल स्वार्थ भावना से विरत, मानवमात्र के प्रति क्षोभ का अनुभव करने वाला, हर मनुष्य को जन्मत: समान माननेवाला मानव व्यक्तित्व को उपेक्षित निरर्थक और नगण्य सिद्ध करनेवाली किसी भी दैविक शक्ति या राजनैतिक सत्ता के आगे अनवरत, मनुष्य की अंतरंग-सदवृत्ति के प्रति आस्थावान, प्रत्येक व्यक्ति के स्वाभिमान के प्रति सजग, दृढ एवं संगठित अन्त:करण संयुक्त, सक्रिय किन्तु अपीड़क, सत्यनिष्ठ तथा विवेकसंपन्न होगा।"

नयी कविता में उसी मानव को महत्व दिया गया है, जो किसी प्रकार भी अलौकिक शक्ति से असंपन्न हो, साधारण जीजीविषू हो। मानवेत्तर नहीं मानवी हो, कृत्रिम नही स्वाभाविक वृत्ति वाला हो। लघु-बनकर, रहकर ही संघर्ष संभव है। विराट सुपरमैन से संघर्ष नहीं चमत्कार होता है। जो मनुष्य अस्तित्व को नकारता है। नयी कविता उसके उपेक्षित, हेय, अस्तित्व में तंत्रता भाव का प्रतिपादन करती है। देवराज ने लघु-मानव और नये मनुष्य को संतुलित दृष्टि से देखते हुए उसकी विशेषताओं को व्यक्त किया है--

  1. वह अपने चारों ओर बिखरे परिवेश से किसी प्रकार की आत्महीनता अनुभव नहीं करता।
  2. वह अपनी सीमित शक्ति को किसी प्रकार की पराजय का कारण नहीं मानता, बल्कि समय पड़ने पर अपनी समस्त चेतना से किसी भी बड़े संकट के विरुद्ध खड़ा होने का साहस रखता है।
  3. वह निश्चित रुप से यह मानता है कि इकाई की अस्मिता की सुरक्षा के बिना सामाजिक-अस्मिता की सुरक्षा का कोई अर्थ नहीं है क्योकि इकाई समाज का प्रमुख तत्व है।
  4. वह मानता है कि व्यक्ति और व्यक्ति के बीच मानवीय-मूल्यों के स्तर पर कोई भेद नहीं होता।
  5. वह अपने जीवन-निर्माण में किसी भी उस शक्ति को भागीदार नहीं बनाना चाहता जो काल्पनिक-महत्व से संबद्ध है क्योंकि ऐसा करके उसे आज तक छला गया है।
  6. वह अपने वर्तमान के प्रति पूर्णतः सजग है।
  7. वह अपने अस्तित्व का वाहक होने पर भी किसी प्रकार सामष्टिकता का विरोधी नहीं है क्योंकि मूलतः उसका संघर्ष सामाजिकता से नही, समाज में फैली मूल्यहीनता और अलोकतांत्रिक प्रवृत्ति से है।
  8. वह अपनी जय और पराजय दोनों का वरण स्वयं करता है, तथा यह प्रयास करता है कि वर्तमान के स्वरुप से भविष्य का निर्धारण किया जाए। सुख और दुःख दोनों को भोगने के लिए उसके पास जागरुक दृष्टि है।

आधुनिकता बोध की पहचान सम्पादन

नयी कविता में आधुनिकता बोध की पहचान का तात्पर्य है--मानव स्थिति के साक्षात्कार की नितांत नवीन जागरुक पद्धति, जीवन की समझ की गत्यात्मक प्रकृति, अपने काल को आत्मसात करने की अर्थपूर्ण चेतना, अर्थपूर्ण जीवन-मूल्यों को प्राप्त करने की विधि, परिवेश के प्रति व्यक्ति की सतत सजगता आदि।

इनका आधुनिकता बोध परिवर्तनीय है, इसमें कोई 'रुढ़' या 'जड़' धारणा नहीं। जो रुढ़ियाँ, परम्पराएँ परिवर्तन व 'मनुष्य स्वतंत्रता का विकास' साधने नहीं देती उसका विरोधी काव्य है नयी कविता। उसका यह अर्थ भी नहीं की वह समृद्ध अतीत परंपरा के कटी है बल्की उसके गतिशील तत्वों, मूल्यों, विश्वासों को नये सृजनात्मक संघर्ष क्षमता से उपजीव्य बनाती है। यही उसका स्वतंत्र विवेक है। समय के प्रती प्रतिबध्दता एवं सजगता है। इससे आधुनिकता बोध व्यक्ति को अपना सही दायित्व निबाहने की ओर प्रेरित करता है। आधुनिकता की दृष्टि विवेकपूर्ण दृष्टिकोण की स्थापना करती है। व्यक्ति अपने परिवेश को संवारने की दिशा में क्रियाशील रहे और किस गति से किस ओर जा रहा है यह सब सोचने की शक्ति आधुनिकता बोध की शर्त है।[२] अर्थात यह केवल भौतिक विकास साधने की नहीं मानसिक उन्नती पाने की कोशिश भर है। इसलिए उसमें एक ओर स्वीकृति है तो दूसरी ओर अस्वीकृति। वह जीवन को गती, विकास प्रदान कर रही है की उसके अस्तित्व का नाश कर रही है, इसी की तलाश है नयी कविता।

डॉ. देवराज के अनुसार उसकी विशेषताएँ--

  1. आधुनिकता बोध वह सहज ; स्वाभाविक और गतिशील प्रक्रिया है, जो जीवन को सही संदर्भ में समझने की दृष्टि प्रदान करती है।
  2. यह मूल रुप में परस्परविरोधी नहीं है--प्रत्युत व्यवस्थामुलक मुक्ति की भावना प्रधान होती है।
  3. आधुनिकता बोध वह दृष्टि है जो मनुष्य में छिपी सर्जनात्मकता को मुखरित करती है और उसे सत्य से सीधे साक्षात्कार के लिए तैयार करती है।
  4. आधुनिकता बोध में संकीर्णताओं के लिए कोई स्थान नहीं होता, उसके मूल में मानवतावादी दृष्टि होती है।
  5. आधुनिकता-बोध कोई बाहयारोपित तत्व नही है, बल्कि प्रगतिशील जीवन के विकास-क्रम के अनन्तर प्राप्त चेतना है, जो मूल्य न होते हुए भी वास्तविक जीवन-मूल्यों के प्रति सचेत करती है।

आस्था का स्वर सम्पादन

नये कवि अपने व्यक्तित्व पर भरोसा करते है। वे कठिन से कठिन विपदा में भी अपनी आस्था के बल पर उसे सहने एवं दूर करने का भाव रखते है। भविष्य की उज्जवलता पर उनका दृढ़ विश्वास है। जीवन के यथार्थ पक्ष को भी वे इसी दृष्टि से देखते है। इसी कारण वे जीवन-संघर्ष से छायावादियों तथा प्रयोगवादियों जैसा पलायन नहीं करते। उसे अपनाकर उनमें भरी विद्रूपता को दूर करते है। ऐसे समय उनकी कविता में व्यंग धार-धार प्रवाहित होता है। आधुनिक जीवन से सहानुभूति और सौहाद्र प्रायः समाप्त हो चुका है। मानव-मानव में झूठ और घृणा का व्यवहार चलता जा रहा है। इस प्रकार की 'पिशाच संस्कृति' पर कैलास वाजपेयी का व्यंग्य देखिए--

 
कैलाश वाजपेयी
कितना अच्छा है

सभी
'झूठ
बोलते है
कितना अच्छा है
सभी घृणा करते है
अपरिचय के माध्यम से जुड़ते है
अपरिचित बिछुडते है-
....न कोई रोता है
न कोई हँसता है
कितना अच्छा है अब

हर कोई डसता है।

जीवन यथार्थ की अभिव्यक्ति करते हुए केवल आस्था ही उनमे है पर साथ ही डर-भय, अनास्था, शंका, निराशा, अविश्वास भी उनमें है। जैसे मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' का नायक उन सभी स्थितियों से गुजरकर अपने 'गुरु' का 'शिष्य' होता है। तथा ब्रह्मराक्षस' 'जीवनमूल्यों की खोज में भटकते संशोधक की कहानी, दुःख दर्द के साथ व्यक्त हुई है। आधुनिक सामान्य व्यक्ति की यह 'ट्रैजडी' भी है तो 'बुध्दिजीविता' भी। जीवन चुनैतियों का स्विकार भी नया कवि करता है उसमे उत्पन्न विषाक्त मनःस्थिति को भी। फिर भी वह जीवन में आस्था रखता है।

क्षण-बोध की अभिव्यक्ति सम्पादन

नयी कविता क्षणानुभूति को अधिक महत्व देती है। सृजन के लिए क्षण ही बोध जगाते है। क्षण बोध की अनुभूति ही उन कवियों के लिए सत्य है। जीवन क्षण-संवेदना से भरा है। उसी में उसे जीवन के सुख दुःख मिलते है। उससे ही जीवन सतत परिवर्तनशील होता है। क्षण की संवेदना को अनुभव करना काव्य में उसे सुरक्षित करना फिर किसी दुसरे क्षण संवेदना को जीना इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक क्षण अपनी सीमा में ही गहन अनुभूतिमुक्त होता है और इसी कारण नयी कविता में क्षणानुभूति के अंकन को पर्याप्त महत्व दिया गया है। देवराज ने इसके दो प्रकार माने है एक सूक्ष्म और दुसरा स्थुल--"सूक्ष्म क्षण में कवि सत्य को साक्षात्कार कराने वाले क्षण की अनुभूतियों को व्यक्त करता है। यह मुक्ति का क्षण हो सकता है। .... जबकि स्थूल क्षण में असत्य, भौतिक, आसक्तियुक्त कालखंड की अभिव्यक्ति होती है।"

क्षण अनुभूतिपूर्ण एवं गहरे होते है। जिसमे 'स्थूल एवं सुक्ष्म' अनुभूतियाँ पैदा हो जाती है, उसकी अनुभूति एवं भोग की तीन स्थितियाँ देवराज के अनुसार होती है--एक स्तर वह, जिसमें संवेदना सुक्ष्म और अधिक गहन होती है, दूसरा वह जिसमें स्थूल को भोगकर अनुभूति एकत्र करने की अदम्य लालसा होती है और तीसरा वह जिसमें दो क्षणों के जुड़ने का तनाव रहता है। इसे व्यक्ति भोगना नहीं चाहता, किन्तु उसे भोगना पड़ता है।"

क्षणवाद की नयी स्थापना ही नयी कविता का विषय है। उसके संबंध में उनका विचार है, "क्षण कालहीन होता है, उसमें सत्य और यथार्थ के साक्षात्कार की सर्वाधिक गहन स्थिति होती है, उसमें अगले क्षण की प्रेरणा छिपी होती है, यह सत्य की उपलब्धि कराता है, इसमें आत्माभिव्यक्ति का सूक्ष्म रुप विद्यमान होता है आदि।"

इन्ही कारणों से यें कवि जीवन के सामान्य कार्य-व्यापार में नया अर्थ खोजते, भरतें है। उनकी गहरी पकड़ के कारण कविता मार्मिक बन जाती है। नयी कविता में क्षणबोध शाश्वत जीवन बोध का विरोधी नही बल्कि उसे प्राप्त करने की यथार्थ प्रक्रिया है। क्षण में अनुभूत होनेवाला जीवन उल्हास धर्मवीर भारती की कविता अंधा युग में आया आया है-

 
धर्मवीर भारती
जब कोई भी मनुष्य

अनासक्त होकर चुनौती देता है इतिहास को,
उस दिन नक्षत्रों की दिशा बदल जाती है।
नियति नहीं है पूर्वनिर्धारित-

उसको हर क्षण मानव-निर्णय बनाता-मिटाता है।

परिवेश के प्रति सजगता सम्पादन

आधुनिकता बोध और अनुभव की प्रामाणिकता के कारण नयी कविता परिवेश के प्रति सजग है। जिसके कारण सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन हुआ है। अपने परिवेश के प्रति वह दायित्वबोध को स्विकारते है। लघु मानव की दृष्टि को महत्त्व देने के पीछे की भूमिका यह भी रही है क्योंकि आधुनिक काल में सर्वाधिक उपेक्षित, त्रासद, विडम्बना से युक्त जीवन उसी के हिस्से में आया है। उसके मन में उभरकर आया नैराश्य, संत्रास, संकटबोध, संघर्ष की अभिव्यक्ति की सशक्तता ने नयी कविता को जीवन के साथ जोड़ दिया है। समाज अकेलेपन और वेदना के कारण सबसे बड़ा दुर्भाग्यशाली लघु मानव ही रहा है। छायावाद से लेकर प्रयोगवाद में व्यक्ति की स्थिति-गति में जो बदलाव आया उसके साथ नयी कविता-समय में यह निपट अकेला एवं त्रासद जीवन जीता रहा है। रघुवीर सहाय ने कहा है-

कितना अच्छा था छायावादी

एक दुःख लेकर वह एक गान देता था
कितना कुशल था प्रगतिवादी
हर दुःख का कारण वह पहचानता था
कितना महान था गीतकार
जो दुःख के मारे अपनी जान लेता था
कितना अकेला हूँ में इस समाज में

जहाँसदा मरता है एक और मतदाता।

नयी कविता का संवेदनशील कवि जब राजनेता का जनतंत्र के नाम पर, शांतीवादीता के नाम पर अनेक प्रकार के फरेब करते नेताओं को देखता है, तो वह तिलमिलाह उठता है। श्रीकांत वर्मा कहते है-

कुछ लोग मूर्तिया बनाकर

बैचेगें शांति की (अथवा षडयंत्र की)
कुछ और लोग
सारा समय
कसमे खायेगें

लोकतंत्र की।

यथार्थ, जनतंत्र के नाम पर शोषण तंत्र, दमन तंत्र, षडयंत्र का सशक्त विरोध मुक्तिबोध की कविता में हुआ है। 'अंधेरे में' उन सभी प्रतिष्ठित समाज की शिनाख्त यह करता है। उनके विरोध में वह खड़ा होता है यह एक चुनौती है।

अब अभिव्यक्ति के सारे खतरे

उठाने ही होगें।

तोडने होगें मढ और मढ सब

नयी कविता ने नये मानव की प्रतिष्ठा काव्य में की है। यही उसका लक्ष्य भी है। लक्ष्मीकांत वर्मा ने उसकी सजगता के संबंध में कहा है-"नयी कविता का आग्रह जिस विशेष तत्व पर है, वह उस मानव व्यक्तित्व की स्थापना और उसकी उपयोगिता से विकसित होता है, जो समस्त विद्रूपताओं और कटुताओं के बावजूद मनुष्य को उसकी मुल मर्यादा के प्रति, निजत्व और अस्तित्व के प्रति जागरुक रखना चाहता है।" यही कारण है की वह खतरों को उठाता है। दमघोटु परिवेश से मुक्त होने के लिए भागता-दौड़ता, संघर्ष करता, अपने-आप से संघर्ष करता जिजीविषू बनता है। फिर वे अज्ञेय हो या मुक्तिबोध, श्रीकांत वर्मा हो या जगदीश गुप्त, रघुवीर सहाय हो या कीती चौधरी सभी समय के प्रति सजग है।

यथार्थवादी दृष्टि सम्पादन

यथार्थ का प्रतिपादन प्रत्येक काल का कवि करता है परंतु उसके प्रति उसकी विभिन्न दृष्टि का आग्रह भी होता है। प्रगतिवादियों में सामाजिक यथार्थ था तो प्रयोगवादियों में व्यक्ति यथार्थ, या अतियथार्थवाद परंतु नयी कविता में समय यथार्थ में बनते-बिगड़ते व्यक्तित्व के यथार्थ को काव्य में प्रतिपादित किया है। मनुष्य का दर्द मुलत: एक ही है और आज का कवि बड़ी इमानदारी के साथ उसे संवेदनापूर्ण ढंग से व्यक्त करता है। अज्ञेय ने कहा-

....ये असंख्य

ऑखे थी
दर्द सभी में था

जीवन का दर्द सभी ने जाना

प्रयोगवादी की तरह केवल कुंठाओ आत्मकेंद्रितता एवं यौन वर्जनाओं को यथार्थ के रुप में न स्वीकारते हुए उसे समग्र सामुहिक रुप में अपनाया है।

जीवनानुभवों के प्रति ईमानदार सम्पादन

परिवेश प्रती सजगता और सामुहिक यथार्थ के चलते जीवनानुभवों के प्रति नया कवि सजग है। आधुनिक व्यक्ति में छिपकर दूसरों पर आक्रमण करनेवाले हिंस्त्र पशुत्व कवि मन में भी कैसे जागता है, उसका उदाहरण मुक्तिबोध की कविता 'औरांग-उटाँग' में आया है।

स्वयं की ग्रीवा पर

फेरता हूँ हाथ कि
करता हूँ महसूस
एकाएक गरदान पर उगी हुई
सधन आयाल और
शब्दों पर उगे हुए बाल तथा
वाक्यों में औरॉग... उटाँग के

बढे हुए नाखून।

जीवन की अनेक समस्याओं को देखकर वह विकट स्थिति में पड़ जाता है। जीवन में आयी हुई अस्थिरता का बोध भी उनमें जगता है। ऐसी कठिनाईयों के विरुद्ध भी वह खड़ा होता है। जैसे मुक्तिबोध 'मठ' और 'गठ' तोड़ने का कृत संकल्प करते है परंतु दुष्यंतकुमार में भी एक प्रकार का व्यर्थथा बोध-अनुभव उभरकर आता है-

 
भारत सरकार द्वारा दुष्यंत कुमार जी के सम्मान में जारी डाक टिकट
यह समंदर है

यहाँ जल है बहुत गहरा।
यहाँ हर एक का दम फूल
आता है।
यहाँ पर तैरने की चेष्टा भी

व्यर्थ लगती है।

अनेक घटना प्रसंगों में नयी कविता के कवियों ने जीवन-अनुभवों को इमानदारी से व्यक्त किया है।

उपेक्षित जनसाधारण का काव्य सम्पादन

 
आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी

रामस्वरुप चतुर्वेदी के अनुसार "नयी कविता आधुनिकता का तीसरा दौर है जो स्वाधीन भारत की पहली रचनात्मकता है। स्पष्ट ही अब तक राष्ट्रीयता का आग्रह मंद हो चुका है और उस के स्थान पर व्यापक जन-चेतना का दबाब बढ़ा है। इस रुप में एक तरह से राष्ट्र की अवधारणा सामान्य जनसमुह से एकाकार हुई है, विशेषतः जनसमुह के उस हिस्से से जो अपेक्षाकृत साधनहीन है। रचना-चिंतना में साधनहीन उपेक्षित जनसमुह के केन्द्र में आने के पीछे भी एक लंबी प्रक्रिया निहिन है। "वे इस प्रक्रिया का आरंभ भारतीय काव्यशास्त्रीय उस परंपरा के विरोध में मानते है, जहाँ देवता या किसी उच्चकुलीन मनुष्य को ही काव्य का चरितनायक बनाया जाने की परंपरा थी, उसकी जगह बंगाल के माइकेल मधुसुदन के 'मेघनाथ वध' (१८६१ ई.) जिसमें काव्य में पहली बार परंपरा से तिरस्कृत और लांछित राक्षस-वंश के मेघनाद को सहानुभूति देते हुए उसे नायक रुप में स्थापित किया गया है। यह जानना अपने में रोचक है कि माइकेल के उस रावणवंशीय काव्य का (कई अन्य काव्यों का भी) पद्य अनुवाद हिंदी में राम के अनन्य भक्त कवि मैथिलीशरण गुप्त ने किया। अपनी मौलिक रचना में तो कवि ने स्वंय इतना साहसिक कदम तो नहीं उठाया पर 'साकेत' में कैकयी का चरित्रांकन एक अभूतपूर्व सहानुभूति के साथ अवश्य किया।"[३]

 
दिनकर जी के सम्मान में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

इस परंपरा में सूत-पुत्र कर्ण, निषाद कुल का एकलव्य आदि प्रमुख है। दिनकर (रश्मीरथी), रामकुमार वर्मा (एकलव्य), जगदीश गुप्त (शंम्बुक), केदारनाथ मिश्र 'प्रभात (ऋतम्बरा), नरेश मेहता (शबरी) आदि। नयी कविता का यह 'गुणात्मक परिवर्तन' उपेक्षित चरित्रों को साहित्य के केंद्र में लाया। आधुनिकता के पहले दौर में नायक की परिकल्पना बदली गई: धरोदत्त राजा-देवता या मनुष्य-के स्थान पर सामान्य मनुष्य या राक्षस भी को काव्य का नायक बनाया गया। नयी कविता व्यक्तिगत नायकीय चरित्र को बदलने के साथ-साथ पूरी विषय परिकल्पना को बदल देती है। अब कोई रस प्रमुख नहीं रहा न काव्य विषय की जाती-वर्चस्व गत श्रेष्ठता। विनम्र ढंग से परंपरा संपृक्त 'लघु मानव' को काव्य में लाती है। मानो कविता की ही फिर से शुरुआत हो जाती है यहाँ। वृत यों पूरा घुम जाता है।

प्रगतिशील यथार्थ के प्रति यह जागरुकता नयी कविता की विशिष्टता है। प्रबंध के साथ कविता में भी यही भाव-संवेदन व्यक्त हुआ है। मुक्तिबोध, गिरिजाकुमार माथूर, दुष्यंतकुमार, रघुवीर सहाय की कविताएँ इसका साक्ष्य है।

आज दुनिया के करोडों आदमी

सह रहे है धूप सर्दी और नमी
जिन्दगी का एक भी साधन नहीं

बस तपती धूप है, सावन नहीं।

यही उस व्यक्ति का चरित्र है जो सदियों से पछाड़ खा गया था, बहिष्कृत था अब वह भी 'लघु' के भीतर 'विराट तत्व' को लेकर उपस्थित हुआ है।

व्यंग की प्रधानता सम्पादन

व्यंग्य सुधार की भावना से प्रेरित होता है। नयी कविता में व्यक्ति, समाज और युग तीनों की विषम-दयनीय स्थितियों पर व्यंग्य किए गए है। अज्ञेय की 'साँप' और भवानीप्रसाद मिश्र की 'गीत फरोश' जैसी कविताओं में मानवीय असामंजस्यों की चिन्तनीय स्थिति का चित्रण किया गया है। जगदीश गुप्त ने कहा है, नवलेखन में एक प्रधान स्वर व्यंग्य और विद्रूप का है, जिसका संबंध देश की विषय परिस्थितियों तथा मूल्यहीनता की दयनीय दशाओं से है, छोटी-मोटी इधर की रचनाओं ने अत्यन्त साहस के साथ इन पर गहरी चोट की है। व्यंग्य के जरिए वह समाज को बदलना चाहता है, नैतिकता में सुधार लाना चाहता है। व्यंग के साथ जुड़ा एक और मूल्य नयी कविता में है और वह है "अनुकूल अभिव्यक्ति का स्वरुप" उसके प्रति इमानदारी। नयी कविता ने परंपरागत मानदंडों, रुढ़ मान्यताओं एवं सड़े-गले मूल्यों को अस्वीकार किया है। उसने संपूर्ण शासनतंत्र एवं व्यवस्था के विरुद्ध विद्रोह किया है, अपने ढोंगी परिवेश का पर्दाफाश किया है। ऐसे समय भी कवियों ने व्यंग्य का बड़ा सुंदर प्रयोग किया है-

मैं असभ्य हूँ क्योकि खुले नंगे पावों चलता हूँ

आप सभ्य है क्योकि हवा में उड जाते है उपर
आप सभ्य है क्योकि आग बरसा देते है भूपर...
आप सभ्य है क्योकि जबड़े खून सने है
आप बड़े चिंतित है मेरे पिछड़ेपन के मारे
आप सोचते है कि सीखता यह भी ढंग हमारे
मैं उतारना नहीं चाहता जाहिल अपने बाने

धोती-कुरता बहुत जोर से लिपटायें हूँ याने!

अथवा उनकी प्रसिद्ध व्यंग्य कविता 'गीत फरोश' कवि की दयनीय स्थिति के साथ, सामाजिक उपेक्षा को व्यंग्य में उभारती है--

'...या भीतर जाकर पूछ आइए आप,

है गीत बेचना वैसे बिल्कूल पाप,
क्या करूँ मगर लाचार
हार कर गीत बेचता हूँ!

जी हाँ, हुजूर मैं गीत बेचता हूँ।

मानवतावादी स्वर सम्पादन

नये कवि सभी प्रकार के वादों से मुक्त है, ये केवल मानवतावादी है। 'वाद' संकीर्णता है और ये संकीर्ण होना नहीं चाहते। उनकी कविताओं में वाद विशेष को पाया जा सकता है पर वे किसी खुंटे से बंधे उनका समर्थन करते है ऐसा नहीं। रौंदी गयी मानवता उपेक्षित वंचितो के दुःख, करुणा के प्रति सहानुभूति नयी कविता की विशेषता है। वह सभी के प्रश्न अपनी आगोश में लेकर चलता। सभी की अभिव्यक्ति करता है, वह चुप रह ही नहीं सकता। जैसे दुष्टांतकुमार कहते है-

मुझमें रहते है करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ
हर गजल अब सल्तनत के नाम बयान है।

वह कल्पना की ऊँची उड़ान, के रुप में कविता नहीं करता। अपनी कविता को अपने से घर, परिवार, समाज, देश से जोड़ना चाहता है। यही कारण है की मिट्टी की गंध, हवा, धूप और रंग लेकर कविता लिखता है। ठीक इसी जगह उनकी कविता लोकोन्मुख हो जाती है और कविता में

हट्टे-कट्टे हाडों वाले

चौडी, चकली काठी वाले
थोडी खेती बाडी रक्खे
केवल खाते-पीते जीते
कत्था,चूना,लौंग सुपारी
तम्बाकु खा पीक उगलते
चलते फिरते बैठे ठाडे
गंदे यश से धरती रंगते
गुड़-गुड-गुड़-गुड़ हुक्का पकड़े
खूब घड़ाके धुआँ उडाते
फुहड बातों की चर्चा के
फौवारे फैलाते जाते
दीपक की छोटी बाती थी
मन्दी उजियारी के नीचे
घण्टों आल्हा सुनते-सुनते
सो जाते है मुर्दा जैसे।

(केदारनाथ अग्रवाल)

लोकजीवन की समृद्ध बाद-पानी से कविता भी समृद्ध हो जाती है। उदार-मानवीय हो जाती है। नये जीवनादर्श को स्थापित करती है। इन मुख्य प्रवृत्तियों के अलावा बौद्धिकता की व्यापकता, असम्पृक्ति, परायापन, अजनबीपन, प्रेम, नारी, प्रकृति, रसमयता आदि महत्वपूर्ण है। अब कवि ऐसी स्थिति में आ गया है की उसकी मौलिकता, गहराई, तीव्रता, संवेदना, व्यापकता, विश्वमानवता को वह नहीं उनकी कविता 'बोलेगी' सारे 'भेद' 'खोलेगी' रघुकर सहाय कहते है-

बात बोलेगी हम नहीं
भेद खोलेगी बात ही।

शिल्पगत विशेषता सम्पादन

प्रयोगवादियों की शिल्प प्रवृत्ति का प्रभाव नयी कविता में दिखाई देता है। बिम्ब, प्रतीक, नवीन अप्रस्तुत विधान आदि का प्रयोग पूर्ववर्ती कविता के साथ नयी परिवर्तन दृष्टि से किया गया है। नयी कविता के भीतर अभिव्यक्ति की सम्प्रेषणीयता का प्रश्न महत्वपूर्ण हो चुका है। भाषा सरंचना, भाषा प्रयोग, अनुभावित संवेद्य-तत्व, गतिशीलता की दृष्टि से नयी कविता की भाषा विशिष्ट है।

भाषा सम्पादन

नये कवियों में यह विचार पनपा की परम्परागत भाषा से युग-जीवन के सही चित्रण की आशा नहीं की जा सकती थी। मूल रुप में यही कारण था जिससें नये कवि को भाषा संस्कार की आवश्यकता पड़ी। नयी कविता भाषा की विशेषता यह है की वह किसी एक पद्धति में बंधकर नहीं चलती किन्तु प्रभावि एवं सशक्त अभिव्यक्ति के लिए उत्कृष्ट कवि बोलचाल की भाषा-प्रयोग को प्राधान्य देता है। नयी कविता भी उसी का स्वीकार करती है। भवानी प्रसाद की 'सतपुड़ा के जंगल' कविता जंगल प्रकृति और प्रवृत्ति दोनों को सामने लाती है। अशोक वाजपेयी की कविता 'शहर अब भी संभावना है' का उदाहरण प्रस्तुत है-

 
अशोक वाजपेयी
माँ

लौटकर जब आऊँगा
क्या लाऊँगा
यात्रा के बाद की थकान
सूटकेस में घर भर के लिए कपडे
मिठाइयाँ, खिलौने
बड़ी होती बहनों के लिए

अंदाज से नयी फैशन की चप्पलें

संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, जनपदीय बोली-शब्द का प्रयोग नयी कविता में हुआ। त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल, धुमिल, सर्वेश्वर आदि में यह देखे जाते है। 'लोक भाषा, लोक धुन और लोक संस्कृति का प्रयोग 'गीति साहित्य' में हुआ है। अज्ञेय की कलगी बाजरे की कविता उत्कृष्ट उदाहरण है।

नयी कविता के नये मुहावरे भाषा को 'सार्वजनीक' बनाते है। भाषा का साधारणीकरण नयी कविता की विशिष्टता है। कहीं कहीं सपाटबयानी या वक्तव्य नुमा भाषा का प्रयोग भी प्रचुर हुआ है। धुमिल आदि की भाषा इसी प्रकार की है। सामान्य आदमी, सामान्य भाषा उनकी खासियत है--

रांपी से उठी हुई आँखों ने मुझे

क्षणभर टटोला
और फिर
जैसे पतियाते हुए स्वर में
वह हँसते हुए बोला-
बाबूजी! सच कहूँ-मेरी निगाह में
नकोई छोटा है
न कोई बड़ा है
मेरे लिए, हर आदमी एक जोड़ी जुता है

जो मेरे सामने मरम्मत के लिए खड़ा है।

नयी कविता में गद्य भाषा का प्रयोग भी सर्व स्विकृत हो गया है। अधिकार लम्बे चौड़े वाक्य, वक्तव्य देते, बात समझाते, वर्णन करने इसी प्रकार की भाषा प्रयुक्त हुई है। अज्ञेय की कविता का एक उदाहरण-

और एक चौथा मोटर मैं बैठता हुआ चपरासी से फाइलें उठवाएगा-

एक कोई बीमार बच्चे को सहलाता हुआ आश्वासन देगा

देखो, हो सका तो जरुर ले आऊँगा

और एक कोई आश्वासन की असारता जागता हुआ भी मुस्काराकर कहेगा-

हाँ, जरुर, भूलना मत।

इससे क्या कि एक की कमर झुकी होगी
और एक उमंग से गा रहा होगा- 'मोसे गंगा के पार......
और एक के चश्मे का काँच टूटा होगा
और एक के बस्ते में स्कुल की किताबें आधि से अधिक फटी हुई होगी?
एक के कुरते की कुहनियाँ छिदी होंगी,

एक के निकर मे बटनों का स्थान एक आलपीन ने लिया होगा।

नयी कवियों के रचनाओं में चिह्न संकेतों से भी कविता पंक्तियाँ लिखी जा चुकी है। एक शब्द एक पंक्ति बना है। तो दुसरी ओर विराम, अर्धविराम, पूर्णविराम के चिह्नों को तिलांजलि दी गयी है। जैसे-

भाषण में जोश है

पानी ही पानी है
पर
की

ड़

खामोश है

मुक्तछंद का, मुक्तक शैली का स्वीकार नयी कविता के धारा में हुआ है। जटिल एवं उलझी हुई अनुभूतियों को व्यक्त करते समय जैसा चाहा वैसा प्रयोग हुआ है। इसकों देवराज भाषा क्षेत्र में 'विद्रोह' कहते है और इसके पीछे 'चमत्कार की अपेक्षा विवशता' की अधिकता मानते है। बदले हुए परिवश को चित्रित करने के लिए उन्होंने एक ऐसा मुहावरा स्वीकार कर लिया था, जिसके अनुसार आपाद-मस्तक कीचड़ से भरे मानव को भी मानव तुम सबसे सुंदरतम कहना जरुरी था। इसलिए उन्होंने ने भाषा को ही नये संस्कार दिये। प्रगति-प्रयोग काल की अपेक्षा नयी कविता की भाषा-शैली नयी ही रही है।

प्रतिक सम्पादन

नयी कविता में परंपरागत तथा नये प्रतीकों का प्रयोग हुआ है। कुछ कवियों के कविता शीर्षक ही प्रतीकात्मक है अज्ञेय की नदी के द्वीप, सागर तट की सीपियाँ, मुक्तिबोध की ब्रह्मराक्षस, भूल-गलती, लकड़ी का रावण, अंधेरे में, अंधेरा, काला पहाड, तिलक की मुर्ती, गांधी, आकाश में तालस्ताय आदी प्रतीक ही है।

'ब्रह्मराक्षस' वर्तमान में बाहयांतरीक संघर्षों के बीच पीड़ित मानव का प्रतीक है, तो 'लकड़ी का रावण' शोषक सत्ता का और 'वानर जनवादी' क्रांतिकारियों के प्रतीक है।

बढ़ न जाय।

छा न जाय।
मेरी इस अद्वितीय
सत्ता के शिखरों पर स्वर्णाभ
हमला न कर बैठे खतरनाक
कुहरे के जनतंत्री

वानर ये नर ये।

नयी कविता में तीन प्रतीक रुपों का प्रयोग हुआ है। एक जिनका संबंध भारतीय काव्यशास्त्र की परंपरा से है। इनमें प्राकृतिक, पैराणिक, ऐतिहासिक, अन्योक्ति मूलक, रुपक मूलक और बिम्ब मूलक आदि आते है। दुसरे वे प्रतीक है जिन्हें नये कवियों ने गढ़ा है और तीसरे वे प्रतीक है जो भारतीय साहित्य में किसी एक भावबोध के प्रतिनिधि है तथा दूसरे देशों के साहित्य में किसी दूसरे भाव-बोध के किन्तु नये कवियों ने दूसरे देश की मान्यता के आधार पर ही उन्हें अपने काव्य में प्रयुक्त किया है-

लो क्षितिज के पास-

वह उठा तारा, अरे! वह लाल तारा नयन का तारा हमारा

सर्वहारा का सहारा

में भारतभूषण अग्रवाल ने 'लाल तारा' रूसी क्रांती के रुप में प्रयुक्त किया है जबकी भारत में वह अपशगुन का प्रतीक माना जाता है। अज्ञेय की 'साँप' 'बावरा आहेरी' इसी प्रकार की कविता है। खंडकाव्यों में पैराणिक प्रतीकों का प्रचूर प्रयोग हुआ है। कर्ण, द्रोण, अभिमन्यू, एकलव्य, अश्वत्थामा, सीता, द्रोपदी, आदि।

बिम्ब सम्पादन

बिम्ब को मुर्त शब्द-चित्र कहते है। कविता के लिए वह महत्वपूर्ण साधन है जो कवि अनुभूति को प्रभावक्षमता के साथ पाठकों तक पहुँचाता है। स्वंयनिर्मित मौलिक बिम्ब का प्रचूर प्रयोग नयी कविता में हुआ है। बिम्ब कई प्रकार के होते है। मुक्तिबोध ने बिम्बों का समर्थ प्रयोग कविता में किया है। उन्होंने मानव-हृदय की जटिलता को एक प्राकृत गुहा के समान बिंब माना है--

भूमि की सतहों के बहुत नीचे

अंधियारी एकान्त

प्राकृत गुहा एक।

संदर्भ सम्पादन

  1. साहित्य का नया परिप्रेक्ष्य--डाॅ रघुवंश
  2. डॉ० नरेंद्र मोहन--आधुनिकता और समकालीन कविता सप्तसिंधू (नव काव्य विशेषांक- एक) (अगस्त, १९७३ अंक ८, पृ. २२)
  3. हिन्दी साहित्य और संवेदना का विकास--‌रामस्वरूप चतुर्वेदी