हिंदी भाषा और साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/प्रगतिवाद की अवधारणा और काव्य आंदोलन

मार्क्सवादी विचारधारा से प्रभावित साहित्यिक रचनाओं को भारत में प्रगतिवादी साहित्य की संज्ञा प्रदान की गई है, मोटे तौर पर इसकी शुरूआत सन् १९३६ ई० में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना तथा उसके प्रथम अधिवेशन से माना जाता है, जिसके संस्थापक सज्जाद जहीर और डॉ॰ मुल्कराज आनंद थे और लखनऊ में इसके प्रथम अधिवेशन की अध्यक्षता मुंशी प्रेमचंद ने की थी, इस अधिवेशन में प्रेमचंद का अध्यक्षीय भाषण जब हिन्दी में रूपांतरित हुआ तो हिन्दी लेखकों की प्रेरणा का स्रोत बन गया। इस संघ की स्थापना फ्रांस में इ॰ एम॰ फॉस्टर के सभापतित्व में १९३५ में प्रथमतः अधिवेशित प्रोग्रेसिव राईटर्स एसोसिएशन (progressive writers association) के तर्ज पर हुआ था।[] उस समय राजनैतिक दास्ता के वातावरण में पूंजीवादी एवं सामंति शक्तियां फल-फूल रही थी तथा शोषण का चक्र पीड़ितों को नाश कर रहा था। इन सब कारणों ने भारत में साम्यवादी आन्दोलन को जन्म दिया, जिससे साहित्य भी अछूता ना रहा। भारत में इस विचारधारा के वाहक कवि नागार्जन, मुक्तिबोध, केदारनाथ अग्रवाल, सूर्यकान्त त्रिपाठी निराला, सुमित्रानंदन पन्त, रामधारी सिंह दिनकर आदि रहे, वहीं गद्य के क्षेत्र प्रेमचंद ने महत्वपूर्ण भूमिका निभायी। प्रगतिशील मान्यता पर लल्लन राय का कथन है कि––"प्रगति संबंधि मान्यताएँ किसी स्थिर अवधारणा पर आधारित नहीं रही है––प्रगतिशील कविता के सामने हमेशा एक केंद्रीय मुद्दा रहा है वह है देश की बहुसंख्यक शोषित, उत्पीड़ित जनता की वास्तविक मुक्ति।"

भारत सरकार द्वारा प्रेमचंद के सम्मान में जारी डाक टिकट

सामाजिक यथार्थवादी दृष्टि

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कल्पना, स्वप्न, एकांत जीवन में जीने के छायावादी कवियों के अंतर्मुखी चेतना की जगह वस्तुनिष्ठ एवं सामाजिक यथार्थ अभिव्यक्ति मार्क्सवादी कविता की मुख्य प्रवृत्ति है। 'क्या होना चाहिए' की जगह 'क्या है' इसकी खोज यह कविता करती है। आदर्श और सामाजिक यथार्थ की भावना " भारतेन्दु तथा द्विवेदी युगीन कविता में भी है पर वे सामाजिक समस्याओं का समाधान वैज्ञानिक दृष्टिकोण से, देने में असमर्थ रहे है। मार्क्सवाद ने यह कार्य किया।" जीवन को भौतिक दृष्टि से देखकर उसमे चेतना भरने के प्रयास मार्क्सवादीयों की ओर से ही हुए है। जीवन सच्चाई के रूप में वे सौंदर्य के साथ कुरुपता, नग्नता, बीभत्सता को भी ग्रहण करते है। यही कारण है की यह साहित्य यथार्थ विषय रूपों के कारण अच्छा और सच्चा लगता है। समाज के सबसे उपेक्षित वर्ग की विडम्बना, उपहास, को साहित्य के केंद्र में लाया गया। संकीर्णता के घेरे में से निकलकर 'भू' स्वर्ग को देखना पंतजी ने ही प्रारंभ किया -

 
२०१५ में भारत सरकार ने पन्त जी की स्मृति में एक डाक-टिकट जारी किया

"ताक रहे हो गगन?
मृत्यू - नीलिमा गहन गगन?
अनिमेष अवितवन, काल-नयन?
निस्पंद, शून्य, निर्जन, निपवन
देखो भूको

जीव - प्रसू को"

जैसे ही 'भू' स्वर्ग को प्रगतिवादी कवियों ने देखा कई कविता विषय बने मुक्तिबोध का यह कथन सत्य है की --

"जीवन में आज के

लेखक की कठिनाई यह नहीं कि
कमी है विषयों की
वरना यह कि आधिक्य उनका ही
उसको सताता है

और वह ठीक चुनाव नहीं कर पाता है।"

जीवन की विरुपता ने साहित्य में सौंदर्य भरा। एक ओर काव्य विषयों में परिवर्तन आया रहस्य, वैयक्तिक प्रेम, कल्पना का कानन, आदर्श की जगह मनुष्य का संघर्षशील जीवन, मैटमैला भारती का मैला आँचल, भूख से तड़पती गस्त लगाती छिपकली, चिलचिलाती धूप में पत्थर तोडनेवाली स्त्री, धर्म, ईश्वर प्रती क्षोभ, कल-कारखानों में काम करनेवाले श्रमिक, किसान की दरिद्रता, उनके अशिक्षित बच्चे, अंधविश्वास से भरा एक सामाजिक तबका, आदि विभिन्न वर्गों के भाव-भावनाओं, संवेदनाओं, सुख-दुःखों, स्वप्नों, अकांक्षाओं का चित्रण साहित्य में आया, तो दुसरी और "गाँवों के जीवन में घुसते ही अपनी वैयक्तिता को भूलकर गाँव में रहनेवाले तरह-तरह के लोगों को देखता है और उनका चित्र उकेरता है। अहीर की निरक्षर लड़की चम्पा, भोरई केवट, प्राइमरी स्कुल के मास्टर दुखरन झा, चना-चबेना खानेवाला चन्दू, चित्रकुट के बौडम यात्री वगैरह" नागार्जुन के 'दुखरन झा' और उनके स्कुल का चित्र कुछ ऐसा ही है--

"धुन खाए शहतीरों पर की बारहखड़ी विधाता बाँचे
फटी भीत है , छत चूती है , आले पर विसतुइया नाचे
बरसा कर बेबस बच्चों पर मिनट - मिनट में पाँच तमाचे

इसी तरह से दुखरन मास्टर गढ़ता है आदम के साँचे।"

इस काल अवधि में पूंजीपतीयों, सेठ, साहुकारों, मालिकों की क्रुरता, हृदयहीनता की शल्य-क्रिया भी कविता में हुई है। पूंजीवादी सभ्यता शहर से गाँव गलियों तक फैली है। उसकी विलासिता, अमानवीय वृत्ति, शारिरिक मानसिक शोषण से प्रताड़ित शोषक जनजाती का यथार्थ उद्घाटन कविता में हुआ है। कल्पना-कानन की कविता रानी, धरती के सुख-दुःख के साथ जुड़ गयी। नागार्जुन मुक्तिबोध जैसे कवि इसके श्रेष्ठ उदाहरण है।

क्रांति का आह्वान

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हमने पहले ही स्पष्ट किया है की प्रगतिवादी कविता वर्गहीन समाज की साम्यवादी व्यवस्था की स्थापना चाहती है। इसके लिये मार्क्सवादी कवियों ने आर्थिक विषमता को दूर करने की शर्त रखी है और इसे तभी दूर किया जा सकता है जब सामाजिकों में हिंसात्मक क्रांति भावना को फैलाया जाए। पूँजीवादी सभ्यता को नष्ट किया जाए। 'क्रांति' सम्यक समाज स्थापना का माध्यम या साधन है। उसी के गीत कवियों ने गाये है। इसके लिये डॉ . रामविलास शर्मा सर्वसामान्य किसानों, मजदूरों को इकट्ठा करना चाहते हैं, उन्हें प्रस्थापित व्यवस्था की क्रूरता से परिचित कराना चाहते है, उनमें असंतोष के बीज बोना चाहते है तभी क्रांती की फसल उगायी जाने का विचार व्यक्त करते है। प्रगतिवादी अधिकांश कवियों ने क्रांति भावना का चित्रण शोषकों में स्फुर्ती भरने, अपनी स्थिति से अवगत होने, अपनी शक्ति का परिचय पाने, अपने अस्तित्व को जानने के लिये कविता में किया है। यह क्रांति सामाजिक और राष्ट्रीय दोनों रुपों को अभिव्यक्त करती है। क्रांति की यह भावना वर्ग-व्यवस्था के विनाश हेतू आंतर्राष्ट्रीय रुप में व्यक्त होती है। इसलिए वह विश्वमानवतावादी, शांतावादी है। यह क्रांति ध्वंसात्मक नहीं सृजनात्मक है। नवनिर्माण से पूरित है। सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक दुर्व्यवस्था से पीड़ित है कवि 'नवीन' ऐसे ही विप्लव का गान करता है--

 
बाल कृष्ण शर्मा 'नवीन'

"कवि कुछ ऐसी तान सुनाओ
जिससे उथल-मुथल मच जाए।
नियम और उप-नियमों के ये बन्धन टूक-टूक हो जाएँ
विश्वंभर की पोषक वीणा के सब तार मूक हो जाएँ
शांति दण्ड टूटे- उस महारुद्र का सिंहासन थर्राए,
उसकी पोषक श्वासोच्छवास, विश्व के प्रांगण में घहराए,

नाश, नाश हो ! महानाश की प्रलयंकारी आँख खुल जाए।"

प्राचीन वर्ण-सभ्यता, व्यवस्था, का नाश हो जाए। मानवता का दुःख नष्ट हो जाए,नई व्यवस्था स्थापित हो जाने का आग्रह कवि करता है। समग्र परिवर्तन की भावना कवियों में है। जिससे स्वस्थ समाज निर्मित किया जा सकता है। 'जीर्ण पुरातन' के 'नष्ट' होने और नये नुतन को 'पल्लवित होने के लिए कवि पंत का स्वर प्रखर हो चुका है-

"नष्ट- भ्रष्ट हो जीर्ण पुरातन,
ध्वंस-भ्रंश जग के जड़ बन्धन।
पावक जग घर आवे नुतन,

हो पल्लवित नवल मानवपन।"

या भारत भुषण का 'जागते रहो' स्वर गुंज उठा है।

बौद्धिकता का आग्रह

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प्रगतिवादी कवि ने वैज्ञानिक दृष्टि का परिचय देते हुए बौद्धिकता को अपनाया है। कविता में प्राचीत रुढ़ियों, परंपरा एवं मान्यताओं का खंडन हुआ है। इनकी बौध्दिक दृष्टि, भाग्य, भगवान, कर्म, पुनर्जन्म, आत्मा, परमात्मा, अंधविश्वास आदि कारणों से होनेवाले शोषण विरोधी रुप में व्यक्त हुई है। शोषण प्रवृत्तियों को दूर करने हेतू ही निराला की 'कुकुरमुत्ता' जैसी कविता में व्यंग्यात्मकता का तीव्र स्वर व्यक्त हुआ है। नागार्जुन जैसे कवि ने भी 'जर्जर समाज' और 'आजादी का वैषम्य' स्पष्ट करते हुए व्यंग्य में कहा है -

"कागज की आजादी मिलती।

ले लो दो दो आने में।"

प्रगतिवादी कवि तर्क, प्रश्न, के जरिए कार्य-कारण भाव का प्रतिपादन करते हुए प्रत्येक विचार, घटना, को विशद करते है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी भी कविता के क्षेत्र में बौध्दिकता का आग्रह प्रतिपादित कर चुके थे परंतू उनमें अतीत के प्रति भवुकता का आधिक्य ज्यादा रहा है। वह परंपरागत व्यवस्था का अनुपालन करते हुए आदर्श को व्यक्त करते थे परन्तु प्रगतिवादियों ने मात्र यथार्थ को सामने लाने में सब को संदेह के घेरे में लाया, सब पर प्रश्न उपस्थित किये इसीलिए सामाजिक अपप्रवृत्तियों का विरोध वें तिव्र ढंग से कर पाये। उनकी व्यंग्यात्मक कविता में यह अधिक मात्रा में मुखर हुआ है।

व्यंग्य की प्रधानता

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सामाजिक कुरीतियों, परंपराओं, विषमताओं को साहित्य में उभारने हेतू प्रगतिवादी कवियों ने व्यंग्य का प्रयोग किया है। इन कवियों के व्यंग्य में सामाजिक सुधार की भावना निहित है।

 
दिनकर जी के सम्मान में भारत सरकार द्वारा जारी डाक टिकट

उनके व्यंग्य विषय में पूंजीपति, विलासी, व्यक्तित्व, उनके शोषण की प्रवृत्ति, राजनीति, झूठी लिडरशिप, आर्थिक सामाजिक विषमता को लक्ष्य किया गया है। सर्वहरा के दुःख, दैन्य का वर्णन भी किया है। निराला की 'भिखारी' कविता इसी प्रकार की है। 'कुकुरमुत्ता' के 'अबे ! सुन बे ओ गुलाब' में आया गाली का स्वर विषमता के प्रति आक्रोश भाव को व्यक्त करता है। कवि दिनकर

ने भी सामाजिक विषमता का चित्रण करते हुए लिखा है-

श्वानों को मिलता दूध वस्त्र, भूखे बालक अकुलाते हैं,

माँ की हड्डी से चिपक ठिठुर जाडों में रात बिताते हैं।
युवती के लज्जा वसन बेच, जब ब्याज चुकाये जाते हैं,
मालिक जब तेल-फुलेलो पर, पानी सा द्रव्य बहाते हैं।

पापी महलों का अहंकार, देता तुझको तब आमंत्रण…

मुक्तिबोध, नागार्जुन, भगवतीचरण वर्मा आदि कवियों की कविता इस दृष्टि से उल्लेखनिय है। नागार्जुन की ख्यातीलब्ध कविता 'प्रेत का बयान' व्यंग का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। जिसके संबंध में नामवर जी ने लिखा है--

 
नामवर सिंह जी

नेतालोग जो अक्सर कहते है कि हमारे यहाँ भूख या अकाल नहीं है; पर उस यमराज तथा एक मरे हुए मास्टर की बातचीत के द्वारा यहाँ कितना सुंदर व्यंग किया गया है। नरक के मालिक यमराज 'प्रेत का बयान' लेते हुए पुछता है कि कैसे मरा तू ? जवाब में 'नाचकर लम्बे चमचों- सा पँचगुरा हाथ, रुखी पतली किटकिट की आवाज

में प्रत अपना पुरा पता बतलाते हुए कुरमी की पत्तियाँ खाने की आधी ही कथा कह पाता है कि दण्डपाणि महाकाल अविश्वास की हँसी हँसकर कहते है- " बडे अच्छेमास्टर हो! आए हो मुझको भी पढ़ाने!! वाह भाई वाह! तो तुम भुख से नहीं मरे?' इस पर हद से ज्यादा जोर डालकर प्रेत कहता है कि "और और और और भले नाना प्रकार की व्याधियाँ और भले नाना प्रकार की व्याधियाँ हो भारत में किन्तु-किन्तु भुख या क्षुधा नाम हो जिसका ऐसी किसी व्याधि का पता नही हमको! और भाप का आवेश निकल जाने के बाद शांत-स्मित स्वर में फिर कहता है- कि जहाँ तक मेरा अपना संबंध है, सुनिए महाराज-

"तनिक भी पीर नहीं

दुःख नहीं, दुविधा नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण

सह न सकी आँत जब पेचिश का हमला ...

रुढ़ियों का विरोध

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सृष्टि की निर्मिति नहीं बल्की उत्पत्ती हुई है, विकास हुआ है यह विचार रखकर मार्क्स ने ईश्वर की सत्ता, आत्मा, पुनर्जन्म, भाग्यवाद का कड़ा विरोध किया। ईश्वर के नाम पर होनेवाले शोषण को उजागर किया। धर्म को आफिम कहकर उसका भी नशा उतारा। मनुष्य और मनुष्यता को श्रेष्ठ मानकर उन्होंने सामाजिक वर्ग, वर्ण,जात विषमता को मानवीयता पर कलंक कहा। इसलिए मार्क्सवाद में काला-गोरा, शूद्र-ब्राह्मण, अनार्य-आर्य, श्रेष्ठ-कनिष्ठ भावना का थोथा रुप स्पष्ट हुआ है। मुलतः वह ईश्वर में आस्था नहीं रखता इसलिए धर्म व्यवस्था के साथ उससे जुड़ी रुढ़ियों, गलत परंपराओं, मान्यताओं, विश्वासों का विरोध करता है। आज के समय में मंदिर-मस्जिद, गीता-कुरान का कोई महत्व नहीं है। ईश्वर और धर्म के प्रति क्षोभ भावना को महेन्द्र भटनागर व्यक्त करते है-

"जड़के पास

खंडित और कुरुपा
जो रंगा सिंदूर से हनुमान -सा पाषाण
टिककर गोद में बैठा
कि जिसकी अर्चना करते मनुज कितने
नयन ही परिक्रमा करते
व आधी रात को आ

खात जिसको चाटते।"

धर्म-रुढ़ियों के प्रति कई कवियों ने प्रतिक्रियावादी विचार रखे है। उसके रुढ़िग्रस्त स्वरूप की आलोचना की है। ऐसी कविताओं में प्रमुख है— पंत की 'जहाज' केदारनाथ अग्रवाल की 'चित्रकुट के यात्री' रामविलास शर्मा की 'मूर्तियाँ' आदि। इन कवियों के अनुसार मनुष्य पहले मनुष्य है का विचार व्यक्त किया है।

मैं हिन्दू हूँ, तुम मुसलमान

पर क्या दोनों इन्सान नहीं
दोनों ही धरती के जार्य

हम अनचाहे मेहमान नहीं

रुढी, प्रथा, परंपराओं की बेड़ियों से मनुष्य मनुष्यता को मुक्त करने की चाह प्रगतिवादी कवियों में रही है। प्रगति का अर्थ भी यही है।

शोषितों का करूण गान

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किसी भी प्रकार की गुलामी में होनेवाला शोषण मानव जाति के लिये घोर अभिशाप है। यह नहीं होना चाहिए ऐसा मार्क्सवादी कवि चाहता है। समाजवादी व्यवस्था की स्थापना के लिये जनता में उसके प्रति सहानुभूति निर्माण करने के लिये उसका करूण गान कविता में आया है। दुसरे अर्थ में वह उन्हें सचेत भी करता है अपनी दयनीय दशा से उन्हें अवगत कराता है। चंद्रकिरण सौनरिक्सा कहती है-

"दुनिया के मजदूर भाईयों, सुन लो एक हमारी बात।
सिर्फ एकता में ही बसता, इस दुनिया के सुख का राज॥"

किसानों, मजदूरों अर्थात शोषितों में एकता होगी तो ही वह शोषण से मुक्ति पायेगें मुक्तिबोध ने भी यही कहा है-

कभी अकेले में मुक्ति नहीं मिलती
यदि वह है तो सबके ही साथ है।

दलितों,शोषतों का करूण गान करते हुए निराला ने भिक्षुक ने लिखा है-

 
महाकवि निराला जी की स्मृति में जारी डाक टिकट
वह आता

दो टुक कलेजे के करता

पछताता पथ पर आता।

या कल-कारखानों में काम करनेवाले श्रमिक, मालिकों के लिए सभी प्रकार के सुख-सुविधा के साधन जुटाकर देते है और स्वयं उससे दूर रहते है। भुख से बेहाल, फटेहाल किसान-मजदूर का चित्र कविता में आया है--

"ओ मजदूर, ओ मजदूर

तू सब चीजों का कर्ता, तू ही सब चीजों से दूर
ओ मजदूर, ओ मजदूर,
इस खलकत का खलिक तू है,
तू चाहे तो पल में कर दे,
इस दुनिया को चकनाचुर

ओ मजदूर, ओ मजदूर।

यहीं पीड़ित मानव 'बंगाल के अकाल' पर बेहाल हो जाता है, जर्जर हो जाता है, इसलिए निराला कहते है -

बाप बेटा बेचता है, भूख से बेहाल होकार।

धर्म धीरज प्राण खोकर, हो रही अनरीति बर्बर

सारा राष्ट्र देखता है।

या दीन-दलितों की हीन-दीन दशा पर 'अंचल' लिखते है-

वह नस्ल जिसे कहते मानव

पीड़ा से आज गई बीती।
बुझ जाती तो आश्चर्य न था

हैरत पर कैसे जीती।

शोषितों की पीड़ा की मार्मीक अभिव्यक्ति इस काल की कविता की खास प्रवृत्ती है।

शोषकों के प्रति घृणा और रोष

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शोषक वर्ग मार्क्स ने मालिक, पूँजीपति, व्यापारी, जमीनदार, उद्योगपती आदि को रख है। ये सभी शोषण परक व्यवस्था को बनाये रखने की कोशिश करते है तो प्रगतिशील कवि इस प्रकार की व्यवस्था का घोर विरोध करता है। प्रगतिवादी कवियों ने शोषकों की घोर निंदा की है, आलोचना की है-

फिर विवश उठी वह कंगालिन

शोषण का चक्र घुमाने को
अपने बच्चे के आँसु पी
कुत्तों का दूध जुटाने को
फिर भी प्रलय नहीं होता
फटती न किसी की छाती है।
मंदिर में देव नही काँपते
धरती न रसातल जाती है।
पर कौन जगत में निर्धन को,
जो दहल उठे, जो उठे कांप
नरपाल पालते कुत्तों को

लक्ष्मी पति लक्ष्मी के गुलाम

पूंजीपति और मजदूर का एक तुलनात्मक चित्रण करनेवाली 'अंचल' जी की कविता 'किरण बेला' भी शोषक-शोषित का वर्णन करती है-

"एक हवेली में उतराता, एक पड़ा क्वार्टर में सड़ता

उसे चाहिए रोज नई, यह सांझ हुए नित घर आलड़ता
धन के नाजायज वितरण से एक लिये श्रम जर्जर काया

और दूसरा पुश्तैनी उपभोग स्वत्व को सुविधा लाया।"

इस प्रकार की सामाजिक विषमता को उभारने में प्रगतिवादी कवि ने बल दिया है। दिनकर की एक कविता का उदाहरण 'श्वानों को मिलता दूध, दही, बच्चे भूख से तड़पते है' को हमने पहले देखा है। निराला ने 'कुकुरमुत्ता' में इसका सशक्त चित्रण किया है-

"अबे ! सुन बे ओ गुलाब !

भूल मत जो पाई खुशबू रंगों आब
खून चूसा खाद का तुने अशिष्ट

डाल पर इतरा रहा है कैपिटलिस्ट।"

यहाँ कवि उच्च वर्ग, धनिकों का धिक्कार कर रहा है उसे अशिष्ट, कैपिटालिस्ट संबोधित कर उसे निचा दिखा रहा है और अपना महत्व, तथा पीड़ा को व्यक्त कर रहे है।

नारी के प्रति नवीन दृष्टिकोण

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प्रगतिवाद ने नारी को भी पुरुषसत्ताक, ईश्वरी, तथा धर्म व्यवस्था के कारण शोषित माना है। वह भी केवल विलास की वस्तु के रुप में प्रयुक्त हुई है। उसकी नैतिकता का मानदंड उसका शरीर रहा है परंतु कवि पंत ने ही उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व को महत्व देकर उसे प्रतिष्ठा दिलायी है-

'योनि नहीं है रे नारी, वह भी मानवी प्रतिष्ठित
उसे पूर्ण स्वाधीन करो, वह रहे न नर पर आसीन।'

असहाय जीवन जीनेवाली नारी 'अबला की छवि द्विवेदी युग में गुप्तजी ने अंकित की थी परंतु वह दासता से मुक्त नहीं हो पायी थी। प्रगतिवाद ने उसकी प्रगति का पुरस्कार किया उसे बंधनों से मुक्त करने का आवाहन किया-

"खोलो हे मेखला युगों से कटि-प्रदेश से, तन से,
अमर प्रेम ही बंधन उसका वह पवित्र तन-मन से।"

पं० नरेद्र शर्मा ने भी वेश्याओं के प्रति साहानुभूति प्रकट कर, उसके पतन के लिए समाज को जिम्मेदार ठहराया है-

"गृह सुख से निर्वासित कर दी हाय ! मानवी बनी सर्पिणी,
यह निष्ठुर अन्याय, आओ बहीण।"

प्रगतिवादी कवि नारी प्रेम को स्वस्थ, सामजिक, पारिवारिक प्रेम में व्यक्त करता है। उसमें कहीं पर भी उच्छृखलता, स्वेच्छाचार, यौनाचार, कुंठा नहीं है। डॉ० नामवरसिंह ने कहा है- ऐसा नहीं है कि प्रगतिशील कवि को प्रेम संबंधी दुःख-दर्द नहीं सताता, सताता है। वह भी आदमी है और इस व्यवस्था में उसे जहाँ आर्थिक कष्ट है, वहाँ उन आर्थिक कष्टों के कारण अथवा उनके अलावा अन्य प्रकार की भी मानसिक व्याथाएँ होती है। घोर निर्धनता में उसे अपनी प्रिया का 'सिंदूर-तिलकित भाल' याद आता है।... संपूर्ण प्रगतिवादी कविता में इस 'सिंदूर-तिलकित भाल' की शूचिता के दर्शन नहीं हो सकते...परंतू स्वच्छंद प्रेम वर्णन में संयम और स्वस्थ मनोवृत्ति है। त्रिलोचन का उत्साहवर्धक प्रेम का एक चित्र देखिए--

यों ही कुछ मुसकराकर तुमने

परिचय की वह गाँठ लगा दी
था पथ पर मैं भूला भूला
फूल उपेक्षित कोई फूला
जाने कौन लहर थी उस दिन
तुमने अपनी याद जगा दी
कभी-कभी यों हो जाता है
गीत कहीं कोई गाता है
गूँज किसी उर में उठती है
तुमने वही धार उमगा दी
जड़ता है जीवन की पीड़ा
निस्तरंग पाषाणी क्रिड़ा
तुमने अनजाने वह पीड़ा

छबि के शर से दूर भगा दी!

यही प्रेम भावना कवियों में सामाजिक प्रेम भावना जगा देती है। "मुझे जगत्- जीवन का प्रेमी/ बना रहा है प्यार तुम्हारा" का भाव उनमें जागता है। सामाजिक प्रेम की यह पीड़ा, निराशा को वह अकेला भोगना नहीं चाहता। उससे ऊब कर, नारी प्रेम में थोड़ी-सी निजात पाने की कोशिश करता है। आगे चलकर के यही प्रेम, देश, अंतर्राष्ट्रीय, सामाजिक प्रेम में विकसित हो जाता है।

राष्ट्रीय तथा अंतर्राष्ट्रीय भाव

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राष्ट्रीय भावों में मार्क्सवाद की राष्ट्रीय भावना या देश प्रेम गांधीजी के अहिंसात्मक आत्मक्लेशमूलक या आदर्शमुलक दृष्टि के विरोध में जनक्रांति की भावना से ओतप्रोत है। भारतेन्दु युग में देश प्रेम का करूण गान, राजभक्ति में लीनता थी तो द्विवेदीयुग में राष्ट्रीय जागृति का भाव देश में फैलाया गया। यह कभी बंग से प्रभावित रही तो कभी अंततोन्मुख प्रवृत्ति से। छायावाद में देशगान और बलिदान की भावना स्वतंत्रता आंदोलन की चेतना के पृष्ठभूमि में हुई है। तो प्रगतिवाद में सर्वहारा वर्ण की गुलामी की मुक्ति स्वरूपा हिंसात्मक क्रांती के साथ 'ग्राम प्रेम' को देश प्रेम में अभिव्यक्ति मिली है। वह अपने 'विप्लव' स्वरों से शोषण करनेवालों पर टुट पड़ता है। उसके लिए वह बलिदान भी करने के तैयार और तत्पर है परंतु वह केवल जनक्रांती ही नहीं है बल्कि राष्ट्रीय आजादी के क्रांती गीत भी इन कवियों ने गाये है। सन १९४२ की क्रांति, आजाद हिंद फौज, नौसैनिक विद्रोह भी उनकी कविता में स्वर पाये है। जिसमें उल्लेखनिय है, निराला की 'बेला', जगन्नाथप्रसाद 'मिलिंद' की 'अगस्त क्रांति का गीत', १९४२ के क्रांती पर महेंद्र भटनागर की 'जयहिंद', नरेद्र शर्मा की 'आदेश' और एक गीत- जयहिंद, आजाद हिंद फौज पर महेन्द्र भटनागर की 'बदलता युग', सुमन की 'आज देश की मिट्टी बोल उठी है', शमशेर बहादुर सिंह की 'शहीद कहीं हुए है' आदि नौ सैनिक विद्रोह पर लिखी गई है। प्रगतिवादी कवियों ने 'ग्राम प्रेम' में देश प्रेम को अभिव्यक्त किया है। उसके संबंध में नामवर सिंह ने कहा है, पहले की देशभक्ति सामान्योन्मुखी है तो प्रगतिशील-युग की देशभक्ति विशेषोन्मुख है और इसलिए अधिक ठोस और वास्तविक है, यह विशेष के भीतर से ही सामान्य को प्रकट करती है। प्रगतिशील कविता का यही यथार्थवाद है। मार्क्सवादी कवि की दृष्टि देश के साथ ही अपने गाँव तथा जनपद के प्रति भी अपार प्रेम रखती है। "नागार्जुन की 'तरड़नी' कविता द्रष्टव्य है। सुमन की 'न्यूयार्क की शाम' महेन्द्र भटनागर की 'आजादी का त्यौहार' जैसी कविता में स्वतंत्रता बाद टूटे स्वप्नों के प्रति आक्रोश भाव पैदा हुआ है। एक तरह से बाद की कविता में यह आजादी के प्रति मोहभंग की स्थिति को व्यक्त करनेवाली कविताओं में से है-

लज्जा ढकने को

मेरी खरगोश सरीखी भोली पत्नी के पास
नहीं है वस्त्र
कि जिसका रोना सुनता हूँ सर्वत्र।...
मेरे दोनों छोटे मूक खिलौने से दुर्बल बच्चे
जिनके तन पर गोश्त नहीं है
जिनके मुख पर रक्त नहीं है
अभी-अभी लड़कर सोये है
रोटी के टुकडों पर
यदि विश्वास नहीं हो तो
अभी तुम उनकी ठंडी सिसकी सुन सकते हो

जो वे सोने में रह-रह कर भर लेते है।
अंतर्राष्ट्रीयता की भावना

अंतर्राष्ट्रीयता की भावना भी कवियों ने अभिव्यक्त की है। वह अपने दुःख को सार्वकालिक रुप में प्रकट करता है क्योकि पूंजीवादी, सामंतवादी, दासप्रथा शोषण परक व्यवस्था केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व में फैली है। इसलिए वह रूस और रूसी क्रांती विचारों को मानवता उद्धार रुप में देखते है। उसकी प्रशंसा करते है, उसका मार्ग अनुसरण करते है। शिवमंगल सिंह सुमन की 'मास्को है दूर अभी', 'चली जा रही है बढ़ी लाल सेना' जैसी कविताओं में वह व्यक्त हुआ है-

बर्लिन अब नजदीक है

फासिस्तों की काल-रात्रि में घोर घटा घिर आई।

चली लाल सेना ज्यों चलती सावन में पुरवाई।

या नरेंद्र शर्मा कहते है-

लाल रूस है ढाल साथियों! सब मजदूर किसानों की,
वहाँ राज है पंचायत का, वहाँ कहाँ है बेकारी।
 
कार्ल मार्क्स

संपूर्ण विश्वमानव प्रति वह अपनी मंगल कामना को प्रकट करता है। पूंजीवाद के विरुद्ध जुझनेवाली यह शांतीमुलक विचारधारा है। वैसे मार्क्स ने दुनिया को दो वर्गों में विभाजित कर शोषण चित्र को खिंचा था। भारत के मार्क्सवादी अपना नाता रूस के साथ जोड़ते है। इसी में उनकी विश्वमानवतावादी भावना दिखाई देती है।

समसामयिक समस्याओं का अंकन

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प्रगतिवादी कवि देशी-विदेशी समस्याओं प्रति सजग रहें है। मार्क्स दर्शन मुलतः जीवन-परिवर्तन का क्रियात्मक दर्शन है। संघर्ष उसका स्थायी भाव है, वर्ग विहीन रचना उसका लक्ष्य है। ऐसे में समसामयिक प्रश्नों पर वह लिखता रहा यह उसकी सजगता का प्रमाण है। विश्व पटल पर वह साम्राज्यवाद, पूँजीवाद से संघर्ष करता है। देशी-विदेशी महत्वपूर्ण घटनाओं पर उन्होने लिखा है। १९४२ की क्रांती, बंगाल का अकाल, द्वितीय विश्वयुध्द तथा उससे उत्पन्न परिस्थिति की विभीशिका, नौ-सेना का विद्रोह, आजाद हिंद फौज, स्वाधीनता संग्राम, साम्प्रदायिक दंगे, भारत विभाजन, आज़ादी प्राप्ति, गांधीजी की हत्या, कश्मीर समस्या, चीन का आक्रमण, आदि देशी घटनाओं पर उन्होंने कविता लिखी है। अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं में विश्वघटनाओं में शोषित मानवता को प्रति कवियों में सहानुभूति की वाणी रही है। हीरोशिमा की बरबादी, कोरिया युध्द, आदि समस्याओं का चित्रण उन्होंने किया है। राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की मृत्यू ने इन संवेदनशील कवियों को झकझोरा और शिवमंगलसिंह सुमन, माथूर जी ने उन पर कविता लिखी। नागार्जुन ने 'महाशत्रुओं की दाल न गलने देंगे' जैसी कविता लिखकर भारत में बढ़ते कट्टरवादियों की करतुतों तथा बापू के प्रति आकुलाहट को व्यक्त किया है-

बापू मेरे ....

अनाथ हो गई भारत माता...
अब क्या होगा...
हाय ! हाय ! हम रहे कहीं के नहीं
लुट गये

... रो-रो करके आँख लाल कर ली धूर्तों ने

चन्द्रकुँवर वाल ने हिरोशिमा की बर्बादी पर आँसू बहाते हुए अमरीका को कोसा है "हिरोशिमा का शाप-

एक दिन न्यूयार्क भी मेरी तरह हो जायगा;

जिसने मिटाया है मुझे वह भी मिट जायगा।...
देख लो लंदन मुझे पेरिस मुझे तुम देख लो

है सभी के भाग्य में इस भाँति मिटना लिखा।

इसी प्रकार देश में बढ़ती विषमता, बेरोजगारी, भुखमरी, लूट, टैक्सचोरी, महँगाई, अकाल, महामारी जैसी घटनाओं से यह कवि द्रवित हो जाता है। साम्प्रदायिक दंगो में भारत लम्बे समय से झुलस रहा है। प्रगतिवादी साहित्य मानव- एवं उसका मुक्ति का भी साहित्य होने के कारण धर्मांधता, साम्प्रदायिकता, जातियता का विरोध व्यक्त करता रहा है। भारत में १६ अगस्त १९४६ को कलकत्ता, नोआखाली, बिहार, पंजाब आदि स्थानों पर भीषण नरसंहार हए। कवियों ने मानवतावादी भावना से इस प्रकार की कट्टरता का, पागलपन का विरोध किया है और नये युग-निर्माण की भावना व्यक्त की है। पंजाब हत्याकांड पर डॉ. रामविलास शर्मा ने कुछ ऐसा ही भाव व्यक्त किया है-

नयी फसल देशी फिर धरती लपटों से झुलसाई।

स्वार बनेंगे लुट और हत्या के ये व्यवसायी।
पाँचों नदियाँ एक साथ सीचेंगी यह हरियाली।

लपटों के बदले होगी उगते सुरज की लाली।

अतीत और परंपरा को भी कवियों ने वर्तमान संदर्भो में देखने का सम्यक प्रयास किया है। भारतेन्दु या द्विवेदी युग की तरह वे अतीत प्रति अंधा मोह नहीं रखते और न उनमें पुनरुत्थान की भावना काम करती है। प्रगतिवाद में अतीत चित्रण अंधविश्वासी नहीं बल्कि नवनिर्माण की दृष्टि से किया गया है। दिनकर के 'कुरुक्षेत्र' और 'रश्मिरथी', रांगेय राघव के 'मेधावी', जैसे प्रबंध काव्य तथा गिरिजाकुमार माथूर की 'बुद्ध', सुमन की 'जल रहे है दीन', 'जलती है जवानी', रांगेय राघव की 'सेतुबंध' जैसी कविताएँ उल्लेखनिय है। समसामयिक समस्या चित्रण में कवियों ने व्यंग्य, हास-परिहास का उपयोग किया है। नागार्जुन की 'कागज की आजादी मिलती ले लो दो-दो आने में' बड़ी प्रसिध्द पंक्तियाँ है।

प्रगतिवाद का कला कौशल

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प्रगतिवादी काव्य जनसाधारण का काव्य है। इसलिए उसकी अभिव्यक्ति भी जनसाधारण की ही रही है। उन्होंने अभिव्यक्ति पक्ष से ज्यादा अनुभूति पक्ष पर जोर दिया है। सुमित्रानंदन पंत ने कहा है-

तुम वहन न कर सको, जन मन में मेरे विचार।
वाणी मेरी चाहिये क्या तुम्हें अलंकार॥

यह भाव ही अलंकरण की प्रवृत्ति, छंदोबध्दता की शैली को जनसाधारण में साहित्य के माध्यम से मार्क्सवादी विचारों को पहुंचाने, उन्हे सजग करने, क्रांति के लिये तैयार करने में बाधा के रूप में देखता है उन्हें परिवर्तन की लड़ाई लड़नी है इसके लिये मात्र वे स्वाभाविक चित्रयुक्त शैली को अपनाते है-

खुल गये छंद के बंध, प्रातः के रजत पास,
अब गीत मुक्त औ, युगवाणी बाती अयास।

इसलिये प्रगतिवादी कविता की भाषा सहज, सरल, बोधगम्य है। छंद क्षेत्र में गीतों और लोकगीतों के साथ मुक्तक, अतुकांत का प्रयोग किया है। प्रगतिवादी काव्य में पहले पहल गाँव का खुरदुरापन, खिलंडदपन था बाद में उसमें कोमलता और सरसता का संचार हुआ फिर भी अधिकांशत: वह कठोर, व्यंग्यात्मक, विद्रोही, अनगढ़ रूपों को लेकर ही चली है। इन कवियों ने सर्वजन की सर्वसम्मत भाषा का प्रयोग किया है।

संदर्भ

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  1. नामवर सिंह, आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियाँ, लोकभारती प्रकाशन, इलाहाबाद, ISBN: 978-93-5221-021-3, पृष्ठ-60