हिंदी भाषा और साहित्य ख/घनानंद कवित्त

घनानंद कवित्त

1 सम्पादन

रूप निधान सुजान सखी जब ते इन नैननि नेकु निहारे ।
दीठि थकी अनुराग छकी मति लाज के साज-समाज बिसारे ।
एक अचंभौ भयौ घनानंद हैं नित ही पल पाट उधारे ।
टारें टरैं नहीं तारे कहूँ सु लगे मनमोहन-मोह के तारे ।

1 ।

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 (2)
आँखि ही मेरी पैं चेरी भई लखि फेरी फिरै न सुजान की घेरी ।
रूप-छकी तित ही बिथकी, अब ऐसी अनेरी पत्यति न नेरी ।
प्राण लै साथ परी पर-हाथ बिकानि की बानि पैं कानि बखेरी ।
पायनि पारि लई घनआँनद चायनि, बावरी प्रीति की बेरी ।

2 ।

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रूप निधान सुजान लखे बिन आँखिन दीठि हि पीठि दई है ।
अखिल ज्यौं खरकै पुतरीन मैं, सूल की मूल सलाक भई है ।
ठौर कहूँ न लहै ठहरानि की मूदे महा अकुलानि भई है ।
बूढत ज्यौ घनआनँद सोचि, दई बिधि व्याधि असाधि नई है।

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हीन भएँ जलमीन अधीन कहा कछु मो अकुलानि समानै ।
नीर सनेही को लाय कलंक निरास ह्वै कायर त्यागत प्रानै ।
प्रीति की रीति सु क्यों समझै जड़ मीत के पानि को प्रमानै ।
या मन की जु दसा घनआँनद जीव की जीवनि जान ही जानै ।

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