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घनानंद के कवित्त

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अति सूधो सनेह को मारग है, जहां नेकु सयानप बांक नहीं।
तहां सांचे चलैं तजि आपुनपौ, झिझकैं कपटी जे निसांक नहीं॥
घन आनंद प्यारे सुजान सुनौ, यहां एक ते दूसरो आंक नहीं।
तुम कौन धौं पाटी पढ़े हौ लला, मन लेहु पै देहु छटांक नहीं॥ 1॥

रावरे रूप की रीति अनूप, नयो नयो लागत ज्यौं ज्यौं निहारियै।
त्यौं इन आँखिन वानि अनोखी, अघानि कहूँ नहिं आनि तिहारियै।।
एक ही जीव हुतौ सुतौ वारयौ, सुजान, सकोच और सोच सहारियै।
रोकी रहै न दहै, घनआनंद बावरी रीझ के हाथनि हारियै।।