हिंदी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल)/छायावाद

छायावाद (1918 से 1937 ई०)

द्विवेदी युग के अंतिम चरण में स्वच्छंदतावाद की धारा वेगवती होती चली गई थी। यों तो स्वच्छंदतावाद की चर्चा श्रीधर पाठक की रचनाओं को देखकर होने लगी थी किंतु मुकुटधर पांडे, मैथिलीशरण गुप्त, प्रसाद और पंत ने भी अपनी कविता में यत्र-तत्र नए भाव और नवीन अभिव्यंजना शैली को स्थान देना प्रारंभ कर दिया था।[]

यह स्वच्छंद नूतन पद्धति अपना रास्ता निकाल ही रही थी कि श्री रवींद्रनाथ की रहस्यात्मक कविताओं की धूम हुई और कई कवि एक साथ रहस्यवाद और प्रतीकवाद या चित्रभाषावाद को ही एकांत ध्येय बनाकर चल पड़े। चित्रभाषा या अभिव्यंजना पद्धति पर ही जब लक्ष्य टिक गया तब उसके प्रदर्शन के लिए लौकिक या अलौकिक प्रेम का क्षेत्र ही काफी समझा गया। इस बंधे हुए क्षेत्र के भीतर चलने वाले काव्य ने छायावाद का नाम ग्रहण किया।[]

जबलपूर से प्रकाशित "श्री शारदा" पत्रिका में मुकुटधर पाण्डेय की एक लेख माला 'हिन्दी में छायावाद' शीर्षक से निकली यही से अधिकारिक तौर पर छायावाद की विशेषताओं का उद्घाटन हुआ। आचार्य शुक्ल नें अपने इतिहास में सन् 1918 से तीर्थ उत्थान का आरम्भ माना है किन्तु उन्होनें यह भी स्वीकार कियी है कि छायावादी ढंग की कविताओं का चलन तत्कालीन पत्र पत्रिकाओं में सन् 1910 से ही हो गया था। "श्री पाल सिंह क्षेम" नें जयशंकर प्रसाद को छायावाद का प्रवर्तक घोषित किया है। परमाण स्वरूप सन् 1909 में 'इन्दु' के प्रकाशन की बात कही है, जिसमें चित्राधार, कानन कूसूम, झरना आदि छप चुकी थी।

परिवेश

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छायावाद का युग भारत के लिए अस्मिता की खोज का युग है। सदियों की दासता के कारण भारतीय जनता आत्मकेंद्रित होती हुई रूढ़िग्रस्त हो गई थी। पाश्चात्य साम्राज्यवादियों के आगमन ने देश में एक विराट तूफान पैदा कर दिया था, जिसके कारण रूढ़ियों में सुप्त देश की आत्मा पूरी शक्ति और उद्वेलन के साथ जाग उठी।

पाश्चात्य ढंग की शिक्षा ने, विशेषकर अंग्रेजी की शिक्षा ने, देश के बुद्धिजीवियों के सामने एक नए क्षितिज का उद्घाटन किया। परिणामस्वरूप भारतीय मनीषी अपने परिवेश की त्रासपूर्ण विघटनमयी स्थिति के प्रति सजग हुए और उसके व्यापक सुधार की आवश्यकता की ओर उनका ध्यान आकर्षित हुआ। इसका एक और कारण भी था, जिसका संबंध इसाई धर्म के प्रचार से है। सत्ता का संबल पाकर ईसाई धर्म प्रचारक पाश्चात्य जीवन पद्धति की गरिमा और भारतीय सांस्कृतिक निस्सारता का प्रचार करने लगे।

राजनीतिक दासता के साथ-साथ इस सांस्कृतिक आक्रमण ने यहां की चिंतकों को और भी अधिक आंदोलित कर दिया। इसका परिणाम था भारतीय पुनर्जागरण का व्यापक आंदोलन, जिसके जन्मदाता थे राजा राममोहन राय। स्वामी दयानंद, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानंद, गोपाल कृष्ण गोखले, बाल गंगाधर तिलक, महात्मा गांधी आदि इसी विराट आंदोलन के नेता थे। इन सब महापुरुषों ने देश की अतीत परंपरा से मूल्यवान तत्वों को खोज कर उन्हें नए जीवन के अनुरूप ढालने का प्रयास किया।

सांस्कृतिक दृष्टि से छायावाद युग में यथार्थ और संभावना के बीच गहरी खाई दिखाई देती है। सदियों से रूढ़िग्रस्त भारत ने जब एकाएक अपने आपको वैज्ञानिक समृद्धि से पूर्ण पाश्चात्य सभ्यता के सम्मुख खड़ा पाया, तो उसे अपने और युग के बीच उस गहरी खाई का एहसास हुआ। ध्यान देने की बात यह है कि भारत में विज्ञान और यंत्रों का विकास सहज स्वाभाविक रूप से उसके अपने प्रयासों के फलस्वरूप नहीं हुआ था, अपितु यह यहां साम्राज्यवाद के साथ आए और भारतीय विकास का साधन बनकर नहीं, वरन शोषण का साधन बन कर आए।

नवीन शिक्षा पद्धति, अंग्रेजी के प्रभाव और अंग्रेजी से प्रभावित बांगला साहित्य के संपर्क ने व्यक्तिवादी भावना को जगाया, जिससे व्यक्ति का अहं उद्दीप्त हो उठा। जो कुछ भी इस उदित अहम के विरोध में आया, उसे अस्वीकार करने की, उसका विरोध करने की कोशिश की गई। इसलिए एक ओर तो इस युग के काव्य में द्विवेदीयुगीन नैतिकता और स्थूल की प्रतिक्रिया दिखाई देती है और दूसरी ओर विदेशी दासता के प्रति विद्रोह का स्वर सुनाई देता है।

उदाहरणार्थ, राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा के कवियों ने विदेशी शासन का विरोध किया और जनता में आत्मविश्वास की भावना उत्पन्न की। यह विद्रोह छायावादी कवियों में भी व्यापक रूप में दिखाई देता है उन्होंने विषय, भाव, भाषा, छंद आदि सभी क्षेत्रों में नए मूल्यों की प्रतिष्ठा का प्रयास किया। सभी छायावादी कवियों की आरंभिक रचनाओं में निराशा और कुंठा का स्वर दिखाई देता है।[]

परिभाषा

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(क)आचार्य नंददुलारे बाजपेयी ने छायावाद को परिभाषित करते हुए लिखा है "मानव अथवा प्रकृति के स्वच्छ में किंतु व्यक्त सौंदर्य में अध्यात्मिक छाया का भान मेरे विचार से छायावाद की सर्वमान्य व्याख्या हो सकती है।" किंतु आध्यात्मिक शब्द से चिढ़ने वाले लोग उसका एक ही अर्थ जानते हैं आत्मा और परमात्मा का अभेद। उन्होंने आधुनिक साहित्य में कहा है कि आधुनिक छायावादी काव्य किसी क्रमागत अध्यात्म पद्धति लेकर नहीं चलता।


(ख)डॉ. नगेन्द्र ने छायावाद को स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह कहा है । यह विद्रोह भाव तथा शैली दोनों स्तरों पर है । स्थूल से कदाचित् उनका अभिप्राय पूर्व - स्वच्छन्दतावादी इतिवृत्तात्मकता से ही है । किन्तु यह विद्रोह बद्ध काव्यरीति और दृष्टिकोण के विरुद्ध है । पंत के ' पल्लव ' की भूमिका से जाहिर है , सारा काव्यान्दोलन रीतिबद्धता के विरोध में है । पर वे शुक्ल जी की इस बात से सहमत नहीं हैं कि छायावाद मात्र विशिष्ट काव्यशैली है । शुक्ल जी ने छायावाद की काव्यशैली की प्रशंसा तो की है पर उसकी भावभूमि पर संकीर्णता का आरोप लगाया है । यदि वक्तव्य वस्तु नई नहीं है तो भाषा - शैली की नवीनता अलंकरण मात्र होगी । एक को अच्छा तथा दूसरे को संकीर्ण कहना एक विचित्र अन्तर्विरोध है ।


(ग)रामचंद्र शुक्ल ने छायावादी काव्यभाषा का संबंध फ्रांसीसी प्रतीकवाद से जोड़ा है । जब इसे रोमैटिक अंग्रेजी कविता के साथ संबद्ध नहीं किया गया तब हिन्दी की छायावादी काव्यभाषा से संबद्ध करना दुराग्रह नहीं तो क्या है । फ्रांसीसी प्रतीकवाद का प्रभाव ब्रिटेन के रोमैटिक कवियों पर नहीं है बल्कि इलिएट , एट्स , आडेन , डायलन टामस आदि पर है । उसी प्रकार फ्रांसीसी प्रतीकवादियों का प्रभाव हिन्दी के आधुनिक कवियों - अज्ञेय , शमशेर बहादुर सिंह आदि पर है । []

प्रतिनिधि कवि

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जयशंकर प्रसाद

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जयशंकर प्रसाद (1890-1937) छायावाद के चार स्तंभों में से एक हैं। उनकी रचित कामायनी छायावाद की सर्वश्रेष्ठ रचना मानी जाती है। प्रारंभ में इन्होंने ब्रजभाषा में कविताएं लिखी किंतु बाद में खड़ी बोली में कविता करने लगे इनके काव्य कृतियों में भाषा,छंद,भाव आदि की दृष्टि से अनेकरूपता दिखाई देती है। कवि होने के साथ-साथ ये गंभीर चिंतक भी थे। 'कामायनी' में इन्होंने यंत्र ओर तर्क पर आधारित समाज के चित्रण के साथ साथ शैव दर्शन की अभिव्यक्ति भी की है।

इनकी काव्य रचनाएँ हैं- 'उर्वशी'(1909), 'वनमिलन'१९०९, 'प्रेमराज्य'(1909), 'अयोध्या का उद्धार'(1910),'शोकोच्छ्वास'(1910)', 'वभ्रूवाहन ' ( 1911 ) , ' कानन कुसुम'(1913 ) , ' प्रेम पथिक ' ( 1913 ) , ' करुणालय ' ( 1913 ) , ' महाराणा का महत्व' ( 1914 ) , ' झरना ' ( 1918 ) , ' आंसू ' ( 1925 ) , ' लहर ' ( 1933 ) और ' कामायनी ' (1935)। 'प्रेम - पथिक ' को रचना पहले ब्रजभाषा में की गयी थी , किंतु बाद में उसे खड़ोबोली में रूपांतरित कर दिया गया । यह भी उल्लेखनीय है कि 'कानन कुसुम' और 'झरना' के परवर्ती संस्करणों में कवि ने कुछ नई कविताओं का समावेश किया तथा 'आंसू' में चौंसठ छंद और जोड़ दिए। स्पष्ट है कि 'झरना' के पूर्व की सभी रचनाएं दिवेदी युग के अंतर्गत लिखी गई थी। 'आंसू' का आरंभ कवि की विरह-वेदना की अभिव्यक्ति से हुआ है:

इस करुणा कलित ह्रदय मैं
अब विकल रागिनी बजती
क्यों हाहाकार स्वरों में
वेदना असीम गरजती ?"

इसके अंत में यह छन्द दिया गया है:

"सबका निचोड़ लेकर तुम
सुख से सूखे जीवन में
बरसो प्रभात हिमकण-सा
आंसू इस विश्व सदन में।"

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सुमित्रानंदन पंत

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कवि पंत (1900-1970) छायावाद को प्रतिष्ठित करने वाले प्रारंभिक कवि हैं। कौशांबी में जन्में पंत को अल्मोड़ा की प्राकृतिक सुषमा ने बचपन से ही आकृष्ट किया। इनके मन में प्रकृति के प्रति इतना मोह पैदा हो गया था कि यह जीवन के नैसर्गिक व्यापकता और अनेकरूपता में पूर्ण रूप से अशक्त ना हो सके:

"छोड़ द्रुमों की मृदु छाया,
तोड़ प्रकृति से भी माया,
बाले तेरे बाल जाल में
कैसे उलझा दू लोचन?
छोड़ अभी से इस जग को।"

पंत जी की पहली कविता गिरजे का घंटा सन 1916 की रचना है। तब से वह निरंतर काव्य साधना में तल्लीन है। उनके आरंभिक काव्य-ग्रंथ है-'उच्छ्वास'(1920),'ग्रन्थि'(1920),'वीणा' (1927),'पल्लव',(1928),'गुंजन'(1932)। गुंजन को उनका अंतिम छायावादी काव्य संग्रह कहा जा सकता है। इसके बाद के कविता-संकलन पहले प्रगतिवाद चेतना से और फिर अरविंद-दर्शन से प्रभावित है।

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला

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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला (1896-1962) छायावाद के सर्मेंवाधिक बहुमुखी प्रतिभा के कवि हैं। उनकी कविता के कारण ही छायावाद बहुजीवन की झांकी बन सकी। वे सन 1916 से 1958 तक निरंतर काव्य-साधना में तल्लीन रहे। उनकी छायावादयुगीन रचनाएँ हैं-'अनामिका'(1923),'परिमल'(1930),'गीतिका'(1936),'तुलसीदास'(1938)। कुछ समय तक उन्होंने 'मतवाला' और 'समन्वय' का संपादन भी किया। निराला की चार लंबी कविताएं छायावाद की श्रेष्ठतम उपलब्धियां हैं। राम की शक्ति पूजामें रामकथा के प्रसंग के द्वारा उन्धहोंने र्म और अधर्म के शाश्वत संघर्ष का चित्रण किया है। राम की शक्ति पूजा में राम-रावण युद्ध का वर्णन करते हुए कवि कहता है:

"प्रतिपल-परिवर्तीत-व्यूह,भेद-कौशल-समूह,
राक्षस-विरुद्ध-प्रत्यूह,क्रुद्ध-कपि-विषम हूह,
विचछुरित वह्नि-राजिवनयन-हत-लक्ष्य- बाण,
लोहित-लोचन-रावण-मदमोचन-महीयान।"

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महादेवी वर्मा

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महादेवी वर्मा (1907-1987) मीरा के बाद हिंदी की सर्वाधिक लोक्परीय कवयत्री हैं। उन्होंने छायावाद में प्रगीत शैली में कविता की है। वे प्रायः रहस्यवाद की कवित्री मानी जाती है। अज्ञात प्रियतम की विरहानुभूति में उन्होंने वेदना के गीत लिखे हैं। वेदना ही उनके काव्य की विषय वस्तु है। किंतु यह रहस्य भावना मध्यकालीन रहस्य भावना से भिन्न है।

उन्होंने अपनी सूक्ष्म वेदना को कला - रूप दिया है। उन्होंने प्रकृति के अनेक उपकरणों द्वारा अज्ञात प्रियतम के प्रति आत्म निवेदन किया है। इसकी शुरुआत 'निहार' (२४ से २८ तक की रचनाओ) से ही हो जाती है-

  -"पीड़ का साम्राज्य बस गया
    उस दिन दूर क्षितिज के पार
    मिटना था निर्वाण जहाँ
    नीरव रोदन था पहरेदार ।
              कैसे कहती हो सपना है
              अलि उस मूक मिलन की
              बात ?
              भरे हुए अब तक फूलो
              में मेरे आंसू उनके हास।

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महादेवी की काव्य रचना-सन १९२४ से १९३२ तक हैं। छायावाद-युग इनके काव्य-संग्रह प्रकाशित हुए :'निहार' (१९३०),'रश्मि,(१९३२),'नीरजा'(१९३५) ओर,'सांध्यगीत'(१९३६)। ,'याम'(१९४०),'निहार','रश्मि','नीरज'और 'सांध्यगीत'के सभी गीतो का संग्रह हैं।[]

प्रवृत्तियां/विशेषताएँ

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छायावाद युग - आधुनिक हिंदी साहित्य व हिंदी कविता का तृतीय उत्थान युग है जो काव्य कला और साहित्य की दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। यह दो महायुद्ध के बीच का समय है। विद्वानों का एक वर्ग मानता है कि अंग्रेजी के रोमांटिक कवियों तथा रविंद्र नाथ ठाकुर का प्रभाव द्विवेदी काल की इतिवृत्तात्मकता तथा तथा उपदेशात्मकता कविता की प्रतिक्रिया अंग्रेजो का दमन चक्र, असफल असहयोग आंदोलन, व्यक्ति तथा सामाजिक आध्यात्मिक दर्शन आदि ने छायावादी काव्यधारा को जन्म दिया


प्रकृति काव्य

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छायावाद को प्रकृति काव्य सिद्ध करने वाले भी कई आलोचक हैं उनके मत में छायावाद का प्राण प्रकृति है। वह प्रधानत: प्रकृति काव्य है। प्रकृति का मानवीकरण अर्थात प्रकृति पर मानव व्यक्तित्व का आरोप है।

प्रकाशचंद्र गुप्त - "छायावादी काव्य ने प्रकृति के प्रति अनुराग की दीक्षा दी। अनुभूतियों को तीव्रता प्रदान की, कल्पना के द्वार मानो वायु के एक ही प्रबल झोंके से खोल दिए। भारत की प्रकृति का अन्यतम दर्शन पाठक को छायावादी काव्य में मिला।"[]

छायावादी कवियों की सौंदर्य-भावना ने प्रकृति के विविध दृश्यों को अनेक कोमल-कठोर रूपों में साकार किया है। प्रथम पक्ष के अंतर्गत प्रसाद की 'बीती विभावरी जाग री', निराला की 'संध्या-सुंदरी', पंत की 'नौका-विहार' आदि कविताओं का उल्लेख किया जा सकता है, जबकि 'कामायनी' का प्रलय-वर्णन, निराला की 'बादल-राग' कविता तथा पंत की 'परिवर्तन' जैसी रचनाओं में प्रकृति के कठोर रूपों का चित्रण भी मिलता है। छायावादी काव्य में अनुभूति और सौंदर्य के स्तर पर प्रायः मानव और प्रकृति के भावों और रूपों का तादात्म्य दिखायी देता है।[१०]

नवीन अभिव्यंजना पद्धति

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छायावादी काव्य की अभिव्यंजना पद्धति भी नवीनता और ताजगी लिए हुए है। द्विवेदीकालीन खड़ीबोली और छायावादी खड़ीबोली में बहुत अंतर है भाषा का विकास समग्र काव्यचेतना के विकास का ही अंतरंग तत्व होता है। द्विवेदीयुगीन काव्य बहिर्मुखी था। इसलिए उसकी भाषा में स्थूलता और वर्णनात्मक का अधिक थी। इसके विपरीत छायावादी काव्य में जीवन की सूक्ष्म निभृत स्थितियों को आकार प्राप्त हुआ, इसलिए उसकी शैली में उपचारवक्रता मिलती है,जो मानवीकरण आदि अनेक विशेषताओं के रूप में दिखाई देती है। ब्रजभाषा तथा खड़ीबोली के विवाद के कारण भी छायावादी कवियों में आग्रहपूर्वक खड़ीबोली को अधिक सूक्ष्म, चित्रात्मक और वक्र बनाया। छायावादी अभिव्यंजना निसंदेह अर्थ गांभीर्य के उस उत्कर्ष तक पहुंच जाती है, जिससे आगे जाने की संभावना नहीं रहती है।- [११]

छायावादी कवियों के अभिव्यंजना कौशल को छायावाद की सबसे बड़ी उपलब्धि माना जाता है। अज्ञेय ने इय कौशल को छायावाद के केन्द्रीय मूल्य स्वातंत्रीय का प्रथम साधान माना है।

"झड़ चुके तारक कुसुम जब
  रश्मि ओके रजत पल्लव,
  संधि में आलोक तम की
  क्या नहीं नभ जानता तब,
  पार से, अज्ञात वासंती
  दिवस रथ चल चुका है।"

              - महादेवी वर्मा

अन्योक्तिपद्धति का अवलंबन

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चित्रभाषा शैली या प्रतीक पद्धति के अंतर्गत जिस प्रकार वाचक पदों के स्थान पर लक्षण पदों का व्यवहार आता है उसी प्रकार प्रस्तुत के स्थान पर उसकी व्यंजना करने वाले अप्रस्तुत चित्रों का विधान भी। अतः अन्योक्तिपद्धति का अवलंबन भी छायावाद का एक विशेष लक्षण हुआ। इस प्रतिक्रिया का प्रदर्शन केवल लक्षण और अन्योक्ति के प्राचुर्य के रूप में ही नहीं, कहीं-कहीं उपमा और उत्प्रेक्षा की भरमार के रूप में भी हुआ।[१२]

सहृदयता और प्रभावसाम्य

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छायावाद बड़ी सहृदयता के साथ प्रभावसाम्य पर ही विशेष लक्ष्य रखकर चला है। कहीं-कहीं तो बाहरी सादृश्य या साधर्म्य अत्यंत अल्प या न रहने पर भी आभ्यंतर प्रभावसाम्य लेकर हम अप्रस्तुतों का सन्निवेश कर दिया जाता है। ऐसे अप्रस्तुत अधिकतर उपलक्षण के रूप में या प्रतीकवत् (सिंबालिक) होते हैं- जैसे सुख, आनंद, प्रफुल्लता, यौवनकाल इत्यादि के स्थान पर उनके द्योतक उषा, प्रभात, मधुकाल, प्रिया के स्थान पर मुकुल; प्रेमी के स्थान पर मधुप; श्वेत या शुभ्र के स्थान पर कुंद, रजत; माधुर्य के स्थान पर मधु; दीप्तिमान या कांतिमान के स्थान पर स्वर्ण; विषाद या अवसाद के स्थान पर अंधकार, अँधेरी रात, संध्या की छाया, पतझड़, मानसिक आकुलता या क्षोभ के स्थान पर झंझा, तूफान, भावतरंग के लिए झंकार, भावप्रवाह के लिए संगीत या मुरली का स्वर इत्यादि, आभ्यंतर प्रभावसाम्य के आधार पर लाक्षणिक और व्यंजनात्मक पद्धति का प्रगल्भ और प्रचुर विकास छायावाद की काव्यशैली की असली विशेषता है।[१३]

प्रणयानुभूति की प्रधानता

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छायावादी कवियों ने प्रधान रूप से प्रणय की अनुभूति को व्यक्त किया है। उनकी कविताओं में प्रणय से संबद्ध विविध मानसिक अवस्थाओं का-आशा, आकुलता, आवेग, तल्लीनता, निराशा, पीड़ा, अतृप्ति, स्मृति, विषाद आदि का अभिनव एवं मार्मिक चित्रण मिलता है। रीतिकालीन काव्य में श्रृंगार की अभिव्यक्ति नायक-नायिका आदि के माध्यम से हुई है, किंतु छायावादी कवियों की अनुभूति की अभिव्यक्ति प्रत्यक्ष है। यहां कवि और पाठक की चेतना के बीच अनुभूति के अतिरिक्त किसी अन्य सत्ता की स्थिति नहीं है। स्वानुभूति को इस भांति चित्रित किया गया है कि सामान्य पाठक सहज ही उसमें तल्लीन हो जाता है। स्वानुभूति के संप्रेषण के लिए यह आवश्यक है कि कवि उसे निजी संबंधों और प्रसंगों से मुक्त करके लोकसामान्य अनुभूति के रूप में प्रस्तुत करे। छायावादी कवि की प्रणयानुभूति की अभिव्यक्ति भी इसी लोक-सामान्य स्तर पर हुई है।[१४]

छायावादी काव्य के स्वरूप के संबंध में यह सहज ही स्वीकार किया जा सकता है कि उसमें कवि की अनुभूति की प्रधानता है और यह अनुभूति कवि-प्रतिभा द्वारा परिष्कृत हो कर ऐसे सौंदर्यमय रूप में व्यक्त होती है, जो सभी सहृदयों को अपने में सहसा आसक्त कर लेती है। छायावादी काव्य में अनुभूति की इस प्रधानता के कारण ही उसे स्थूल के प्रति सूक्ष्म का विद्रोह माना गया है।[१५]

गीतात्मक शैली

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छायावाद की रचनाएं गीतों के रूप में ही अधिकतर होती हैं। इससे उनमें अन्विति कम दिखाई पड़ती है। जहां यह अन्विति होती है वहीं समूची रचना अन्योक्ती पद्धति पर की जाती है। इस प्रकार साम्यभावना का ही प्राचुर्य हम सर्वत्र पाते हैं।[१६]

जैसे-

      "दुख दावा से नवअंकुर
       पाता जग जीवन का बन,
       करुणार्द्र विश्व का गर्जन
       बरसाता नवजीवन कण।"
                   - गुंजन

व्यक्तिनिष्ठ एंव कल्पनाप्रधान

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द्विवेदीयुगीन काव्य विषयनिष्ठ, वर्णनप्रधान और स्थूल था। इसके विपरीत छायावादी काव्य व्यक्तिनिष्ठ और कल्पनाप्रधान है। प्रसाद, निराला आदि कवियों ने अधिकतर अपनी सुख-दु:खमयी अनुभूति को ही मुखर किया है। जिस प्रकार द्विवेदीयुगीन कविता में अष्टि की व्यापकता और अनेकरूपता को समेटने का प्रयास है, उसी प्रकार छायावादी काव्य में मनोजगत की गहराई को वाणी में संजोने का प्रयत्न किया गया है। मनोजगत का सत्य सूक्ष्म होता है, जिसे सर्जना द्वारा साकार करने के लिए छायावादी कवियों ने उर्वरा कल्पना-शक्ति का उपयोग किया है। कल्पना का उपयोग अनुभूति के विविध पक्षों और प्रसंगों की उद्भावना में भी किया गया है और उन्हें व्यक्त करने वाले प्रतीकों तथा बिंबों की सर्जना में भी। इसीलिए छायावादी अभिव्यंजना पद्धति विशिष्ट और सांकेतिक हो गयी है।[१७]

खड़ी बोली का सुंदर प्रयोग

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छायावाद से पहले तक यह भावना कवियों मे कही ना कही जीवित थी कि कविता ब्रज में ही सुंदर हो सकती है, खड़ी बोली में निरसता है। इस बात को गलत सिद्ध छायावादी कवियों नें किया। खड़ी बोली का सबसे सुंदर रूप में प्रयोग हमें छायावाद में मिलता है। खड़ी बोली में जिस तरह से रस छायावादी कवियों नें भरा उससे खड़ी बोली को निरस बोलने वालों की आवाज बन्द हो गई। प्रेम, सौन्दर्य और प्रकृति मूख्य विषय होने के कारण छायावादी कवियों की भाषा चित्रात्मक, लाक्षणिक, बिम्बग्राही बन गई है। अज्ञेय के अनुसारः- "छायावाद के सम्मुख पहला प्रश्न अपने काव्य के अनुकूल भाषा का नई संवेदना, नये मुहावरे का था। इस समस्या का उसनें धैर्य और साहस के साथ सामना किया।"

इन कवियों मे ब्रज भाषा के माधुरीय के साथ संस्कृत निष्ठ तत्सम शब्दावली का अधिकायिक प्रयोग किया है। नीराला की निम्न पंक्तियां चायावाद की सुकोमल भाषा का उत्तम उदाहरण हैः-

विजन वल वल्ली पर
सोती थी सुहाग भरी, स्नेह स्वप्न मग्न
अमल कोमल तनु तरुणी, जुही की कली

नारी के प्रति दृष्टिकोण

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छायावादी कवियों ने प्रकृति के सौन्दर्य को महत्व दे कर स्त्रियों पर से सौन्दर्य का भार कम किया, जो भार रीतिकाल के कवियों नें उन पर लाद दिया था कन्तु इन कवियों नें स्त्रियों को सामान्य पद से उठा कर ईश्वर की भूमि पर बिठा दिया। जहाँ से अब वेंलोग अपने दुःख, व्यथा को समान रूप में व्यक्त नहीं कर सकती थी। हम कह सकते है कि एक ओर उनके ऊपर से इन कवियों ने एक भार कम किया पर उन्हें एक दूसरे भार तले दबा दिया। पंत नें स्त्री को 'देवी माँ सहचरी प्राण' कहा तो प्रसाद कहते हैः-

नारी तुम केवल श्रद्धा हो
विश्वास रजत नग पग तल में
पियुष स्रोत सी बहा करो
जीवन के सुंदर समतल में

छायावाद में महादेवी वर्मा ही एक कवयित्री थी जिन्होनें स्त्रियों की वेदना को सही रूप में अंकन किया बाकियों नें उनकों ईश्वर बना कर उनके कई हक को सीमित कर दिया था।

छायावाद युगीन अन्य काव्यधाराएँ

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हास्य-व्यंग्यात्मक काव्य

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छायावाद-युग में हास्य - व्यंग्यात्मक काव्य की भी प्रभूत परिमाण में रचना की गयी-एक और तो । ईश्वरीप्रसाद शर्मा, हरिशंकर शर्मा , उग्र , बेढब बनारसी प्रभृती कुछ कवियों ने इस काव्यधारा का प्रमुख रूप में अवलंबन लिया और दूसरी ओर ऐसे कवियों की संख्या भी कम नहीं है , जिन्होंने समानत: अन्य विषयों पर काव्य - रचना करने पर भी प्रसंगवश हास्य - व्यंग्य को स्थान दिया है । 'मनोरंजन ' के संपादक ईश्वरीप्रसाद शर्मा इस युग के प्रथम उल्लेखनीय व्यंग्यकार हैं । ' मतवाला ' ' गोलमाल ' , ' भूत ' , ' मौजी ' , ' मनोरंजन ' आदि पत्रिकाओं में इनकी अनेक हास्यरसात्मक कविताओं का प्रकाशन हुआ था । हरीशंकर शर्मा इस काव्यधारा के अन्य वरिष्ठ कवि। यद्यपि छायावाद-युग मे उनका कोई कविता-संकलन प्रकाशित नही हुआ, किन्तु'पींजपोल' और 'चिड़ियाघर'शीषर्क गध-रचनाओं में कुछ हास्य-व्यंग्यात्मक कविताओ और पैरोडियों का इन्होंने कही-कही समावेश किया है।

छयावाद-युग के व्यंगकारो में पांडेय बेचन शर्मा'उग्र' (1900-1967)का अलग ही स्थान हैं। इसकी व्यंग्य कविताओं और पैरोडियों में जो ताज़गी और निर्भीकता मिलती है , वह आज भी उतना ही प्रभावित करती है । इसी कोटि के एक अन्य प्रसिद्ध हास्य - व्यंग्यकार थे - कृष्णदेवप्रसाद गौड़ ' बेढब बनारसी ' ( 1895 - 1968 ) । छायावाद - युग में ही नहीं , उसके बाद भी समसामयिक सामाजिक - धार्मिक आचार - व्यवहार को ले कर इन्होंने व्यंग्य - विनोद की जो धारा प्रवाहित की , वह अपनी व्यावहारिक भाषा - शैली के कारण और भी अधिक उल्लेखनीय है । हास्य की छटा बिखेरने के लिए इन्होंने अंग्रेज़ी और उर्दू की शब्दावली का भी खुल कर प्रयोग किया है । उपमा और वक्रोक्ति के प्रयोग द्वारा व्यंग्य को तीखा बनाने में भी ये सिद्धहस्त थे । इनकी काव्य - शैली का एक उदाहरण देखिए :

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बाद मरने के मेरे कब्र पर आलू बोना
 हश्र तक यह मेरे ब्रेकफास्ट के सामां होंगे ,
 उम्र सारी तो कटी घिसते कलम ए बेढब
 आखिरी वक्त में क्या ख़ाक पहलवां होंगे । "

आलोच्य युग में हास्य - व्यंग्य को प्रमुखता देने वाले अन्य समर्थ कवि हैं - अन्नपूर्णानंद (महाकवि चच्चा ) , कान्तानाथ पांडेय ' चोंच ' और शिवरत्न शुक्ल । अन्नपूर्णानंद ने पश्चिम के अंधानुकरण , सामाजिक रूढियों की दासता , मानव - स्वार्थ आदि विषयों पर उत्कृष्ट व्यंग्य - काव्य स्चना की है । कान्तानाथ पांडेय ' चोंच ' की कृतियों में ' चोंच - चालीसा ' , ' पानी पांडे ' और महकावि सांड़ ' उल्लेखनीय हैं , जिनमें से अंतिम दो में इनकी कुछ हास्य - रसात्मक कहानियां भी समाविष्ट हैं।

===ब्रजभाषा-काव्य===
आधुनिक युग को ब्रजभाषा - काव्य की एक दीर्घ - समुन्नत परंपरा प्राप्त हुई थी , इसलिए आधुनिक युग के आरंभिक कवियों के लिए यह स्वाभाविक था कि वे उस परंपरा से प्रभावित हों - प्रभावित ही न हों , उसे आगे भी बढ़ायें । भारतेंदु हरिश्चंद्र और ब्रजभाषा के परवर्ती कवियों की रचनाएं प्राचीन परंपरा से प्रभावित होते हुए भी नवीनता की ओर - नये विषयों और नयी अभिव्यंजना पद्धति की ओर अग्रसर हुई । किंतु छायावाद - युग में ब्रजभाषा - काव्य की परंपरा एक गौण धारा के रूप में ही दिखायी देती है । इसका प्रमुख कारण यह है कि आधुनिक काल में गद्य - रचना की भांति काव्य - रचना के लिए भी खड़ीबोली को स्वीकार कर लिया गया । फिर भी काव्य की भाषा को ले कर काफी दिनों तक तीव्र विवाद होता रहा । ब्रजभाषा के समर्थन में यह तर्क दिया जाता था कि यदि हम सूर , तुलसी , सेनापति , बिहारी और घनानंद जैसी समर्थ प्रतिभाओं की परंपरा को भूलना नहीं चाहते तो हमें ब्रजभाषा को साहित्य में जीवित रखना होगा और इसका उपाय यह है कि काव्य में ब्रजभाषा को ही स्वीकार किया जाये । साथ ही यह भी कहा जाता था कि ब्रजभाषा को अनेक महान प्रतिभाओं ने संवार कर काव्य के उत्तम माध्यम के रूप में ढाल दिया है , जबकि खड़ीबोली का रूप अव्यवस्थित , कर्कश और खुरदरा है और वह काव्य - भाषा के गुणों से रहित है । इसलिए कवियों और विद्वानों के एक वर्ग ने ब्रजभाषा का जोरदार समर्थन किया । बाद में जब प्रसाद ,निराला,आदि छायावादी कवियो ने खड़ीबोली-कविता में भी अनुभूतियो की मार्मिक अभिव्यक्ति कर उसकी अतरंग शक्ति को प्रत्यक्ष कर दिखाया, तब खड़ीबोली-कविता का विरोध शांत हो गया। इसके बावजूद अनेक कवि ब्रजभाषा मे काव्य रचना करते रहे। इसके बावजूद अनेक कवि ब्रजभाषा में काव्य रचना करते रहे । इनमें रामनाथ जोतिसी ( 1874 ) , रामचंद्र शुक्ल ( 1884 - 1940 ) , राय कृष्णदास ( 1892 - 1980 ) , जगदंबाप्रसाद मिश्र ' हितैषी ' ( 1895 - 195611 दलारेलाल भार्गव ( 1995 ) , वियोगी हरि ( 1896 - 1988 ) , बालकृष्ण शर्मा ' नवीन ' , अनूप शर्मा ( 1900 - 1966 ) , रामेश्वर ' करुण ' ( 1901 ) . किशोरीदास वाजपेयी , उमाशंकर वाजपेयी ' उमेश ( 1907 - 1957 ) आदि का उल्लेख मुख्य रूप से अपेक्षित है । रामनाथ जोतिसी की रचनाओं में ' रामचंद्रोदय काव्य ' ( 1936 ) मुख्य हैं । बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' ने ब्रजभाषा में अनेक स्फूट रचनाएँ लिखी हैं।,किन्तु इनके कृतित्व का वेशिष्टय 'उर्मिला' महाकाव्य के पंचम सर्ग में लक्षित होता है इसमें विरहिणी नायिका की मनोदशाओ का मर्मस्पर्शी चित्रण हुआ है यथा:

<poem>-"वे स्वपिनल रतिया मधुर, वे बतिया चुपचाप।
  हवै विलीन हिय में बनी आज विछोह विलाप।।
  साजन संस्मृति नेह की , खटकि खटकि रहि
  जाए।।
  अटकि अटकि आंसू झरे,भरे ह्रदय निरुपाय।।

छायावाद - युग में ब्रजभाषा काव्य के उन्नयन में अनूप शर्मा का योगदान अविस्मरणीय है । चम्पू - काव्य ' फेरि मिलिबौ ' ( 1938 ) में कुरुक्षेत्र में राधा - कृष्ण के पुनर्मिलन का वर्णन है , श्रीमद्भागवत पुराण ' के संबद्ध प्रसंग पर आधारित हैं । इसका कथानक 75 प्रसंगों में विभाजित है तथा गद्य और पद्य दोनों में ब्रजभाषा को अपनाया गया है । कथा - प्रवाह , रस - व्यंजना , चरित्र - चित्रण की स्वाभाविकता और भाषा की सहज मधुरता इस कृति की सहज विशेषताएं हैं । ।[१८]

गध-साहित्य

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छायावादयुगीन गद्य - साहित्य के अध्ययन -अनुशीलन के पूर्व इस युग की राजनीतिक , सामाजिक और साहित्यिक पृष्ठभूमि का संक्षिप्त सर्वेक्षण आवश्यक है , क्योंकि युगविशेष का साहित्य जहां पवर्ती साहित्य से जुड़ा होता है , वही समसामयिक वातावरण और रचना - प्रवृत्तियों का भी उस पर पर्याप्त प्रभाव पड़ता है । राजनीतिक दृष्टि से इस युग में महात्मा गांधी का नेतृत्व जनता को सत्य , अहिंसा और असहयोग के माध्यम से स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए निरंतर प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान कर रहा था । 1919 ई . के प्रथम अवज्ञा आंदोलन की असफलता , जलियांवाला कांड तथा भगतसिंह को प्रदत्त मृत्युदंड जैसी घटनाओं से जनता का मनोबल कम नहीं हुआ था , साइमन कमीशन के बहिष्कार तथा नमक - कानून - भंग सदृश जन - आंदोलनों से इसी तथ्य की पुष्टि होती है । पश्चिमी सभ्यता तथा संस्कृति के प्रभावस्वरूप इस युग के सामाजिक जीवन में भी परिवर्तन आ गया था । युवा मन परंपरागत रीति - रिवाजों को तोड़ कर पश्चिमी राष्ट्रों के स्वतंत्र नागरिकों के समान जीवन - यापन के लिए लालायित था । सामाजिक - राजनीतिक परिवर्तनों की जैसी स्पष्ट छाप छायावाद - युग के गद्य - साहित्य में लक्षित होती है , वैसी काव्य - साहित्य में नहीं होती । वस्तुत : आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी को प्रेरणा से हिंदी - गद्य का व्याकरण सम्मत परिमार्जित रूप प्रायः स्थिर हो चुका था , फलस्वरूप समकालीन परिवेश के संदर्भ में विभिन्न गद्यविधाओं का यथार्थोन्मुख विकास - परिष्कार स्वाभाविक था । इसलिए छायावाद - युग का गद्य - साहित्य पूर्ववर्ती युगों की तुलना में अधिक विकासशील और समृद्ध है । ।[१९]

नामकरण की दृष्टि से विचार करें तो हिंदी - नाट्यसाहित्य के इस युग को ' प्रसाद-युग 'कहना युक्तिसंगत होगा । यद्यपि प्रसाद जी ने सन् 1918 के पूर्व ही नाटकों की रचना आरंभ पर उनकी आरंभिक रचनाएं : सज्जन , कल्याणी - परिणय , प्रायश्चित , करुणालय , राज्यश्री आदि नाट्यकला की दृष्टि से अपरिपक्व हैं । इनके अध्ययन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि वे अपने माध्यम की खोज कर रहे थे । यह माध्यम उन्हें आलोच्य युग में प्राप्त हुआ — विशाख ( 1921), अजातशत्रु ( 1922 ) , कामना ( रचना 1923 - 24 , प्रकाशन 1927 ) , जनमेजय का नागयज्ञ ( 1926 ) , स्कंदगुप्त ( 1928 ) , एक चूंट ( 1930 ) , चंद्रगुप्त ( 1931 ) और ध्रुवस्वामिनी ( 1933 ) शीर्षक नाट्यकृतियों के रूप में । इनके माध्यम से उन्होंने हिंदी - नाट्यसाहित्य को विशिष्ट स्तर और गरिमा प्रदान की । वस्तुत : हिंदी - उपन्यास और कहानी के क्षेत्र में जो स्थान प्रेमचंद का है , नाटक के क्षेत्र में लगभग वही स्थान प्रसाद का है ।

एकांकी नाटक

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हिंदी में एकांकी नाटकों का प्रचलन विशेष रूप से विवेच्यकाल के अंतिम कुछ वर्षों में ही हुआ , यों आरंभ से ही एकांकी लिखने के छटपुट प्रयास होने लगे थे । उदाहरणस्वरूप , महेशचंद्र प्रसाद के ' भारतेश्वर का संदेश ' ( 1918 ) शीर्षक पद्यबद्ध एकांकी , देवीप्रसाद गुप्त के ' उपाधि और व्याधि ' ( 1921 ) तथा रूपनारायण पांडेय द्वारा अमूल्यचरण नाग के बंगला - नाटक ' प्रायश्चित ' के आधार पर लिखित ' प्रायश्चित प्रहसन ' ( 1923 ) का उल्लेख किया जा सकता है । ब्रिजलाल शास्त्री - कृत ' वीरांगना ' ( 1923 ) में ' पद्मिनी ' , ' तीन क्षत्राणियां ' , ' पन्ना ' , ' तारा ' , ' कमल ' ' पद्मा ' , ' कोड़मदेवी' , ' किरणदेव ' प्रभृति एकांकी संगृहित हैं । बदरीनाथ भट्ट के एकांकी - संग्रह ' लबड़ धो धों ' ( 1926 ) में मनोरंजक प्रहसन संकलित हैं । हनुमान शर्मा - कृत ' मान - विजय ' ( 1926 ) , बेचन शर्मा ' उग्र ' के एकांकी - प्रहसनों का संग्रह ' चार बेचारे ' ( 1929 ) और प्रसाद का ' एक घूंट ' ( 1930 ) भी इस काल की उल्लेखनीय रचनाएं हैं । उग्र जी ने समसामयिक परिस्थितियों का व्यंग्यपूर्ण शैली में निर्मम विश्लेषण प्रस्तुत किया है । इस विवरण से यह स्पष्ट है कि एकांकी - रूप में नाटकों की रचना बहुत पहले होने लगी थी । सच पूछे तो यह विधा हमारे लिए बिलकुल नयी नहीं थी ।

उपन्यास

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हिंदी उपन्यास साहित्य के संदर्भ में आलोच्य युग को 'प्रेमचंद युग' की संज्ञा लगभग निर्विवाद रूप में मिल चुकी है क्योंकि 'सेवासदन' (1918) का प्रकाशन न केवल प्रेमचंद (1880-1936) के साहित्यिक जीवन की अपितु हिंदी उपन्यास की भी एक महत्वपूर्ण घटना थी 'सेवासदन' पूर्वर्ती कथा साहित्य का अभूतपूर्व विकास था इससे पहले कथा साहित्य में या तो अजीबोगरीब घटनाओं के द्वारा कुतुहल और चमत्कार के सृष्टि रहती थी अथवा आर्य समाज और तत्समान अन्य सामाजिक आंदोलन से प्रभावित समाज-सुधारो का प्रचार ही उसकी उपलब्धि रह गई थी। सेवासदन ' के बाद प्रेमचंद के ' प्रेमाश्रम ' ( 1922 ) . ' रंगभूमि ' ( 1925 ) , ' कायाकल्प ( 1926 ) , ' निर्मला ' ( 1927 ) , ' गबन ' ( 1931 ) , ' कर्मभूमि ' ( 1933 ) और ' गोदान ' ( 1935 शीर्षक सात मौलिक उपन्यास प्रकाशित हुए । इस बीच उन्होंने अपने दो पुराने उर्दू उपन्यासों को भी हिंदी में रूपातंरित और परिष्कृत करके प्रकाशित किया । ' जलवए ईसार ' का रूपांतर ' वरदान ' 1921 में प्रकाशित हुआ तथा ' हमखुर्मा व हमसवाब ' के पूर्व प्रकाशित हिंदी - रूपांतर ' प्रेमा अर्थात दो सखियों का विवाह ' को परिषकृत कर उन्होंने ' प्रतिज्ञा ' ( 1929 ) शीर्षक से उसे सर्वथा नये रूप में प्रकाशित कराया । एक उल्लेखनीय तथ्य यह है कि आरंभ में प्रेमचंद अपने उपन्यास पहले उर्दू में लिखते थे और फिर स्वयं उनका हिंदी - रूपांतर करते थे । ' सेवासदन ' , ' प्रेमाश्रम ' और ' रंगभूमि ' क्रमशः ' बाज़ारे - हुस्न ' , ' गोशए - आफ़ियत ' और ' चौगाने - हस्ती ' नाम से उर्दू में लिखे गये थे , किंतु प्रकाशित पहले ये हिंदी में ही हुए । वैसे , मूल रूप से हिंदी में लिखित उनका पहला उपन्यास ' कायाकल्प ' है । इसके बाद उन्होंने सभी उपन्यासों की रचना हिंदी में ही की , उर्दू की बैसाखी की जरूरत उन्हें अब नहीं रह गयी थी ।

हिंदी कहानी का प्रकार और परिमाण दोनों ही दृष्टियों से वास्तविक विकास विवेच्य काल में ही हुआ , यह एक निर्विवाद तथ्य है । जिस प्रकार प्रेमचंद इस काल के उपन्यास - साहित्य के एकच्छत्र सम्राट् बने रहे , उसी प्रकार कहानी के क्षेत्र में भी उनका स्थान अद्वितीय रहा । इस अवधि में उन्होंने लगभग दो सौ कहानियां लिखीं । उनके कहानी - लेखन की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि स्वयं उनकी ही कहानियों में हिंदी कहानी के विकास की प्रायः सभी अवस्थाएं दृष्टिगोचर हो जाती हैं । उनकी आरंभिक कहानियों में किस्सागोई , आदर्शवाद और सोद्देश्यता की मात्रा अधिक है । यद्यपि व्यावहारिक मनोविज्ञान का पुट दे कर मानवचरित्र के सूक्ष्म उद्घाटन की क्षमता के फलस्वरूप प्रेमचंद ने अपनी कहानियों को विशिष्ट बना दिया है . पर उनकी आरंभिक कहानियों का कच्चापन और यथार्थ की उनकी कमज़ोर पकड़ अत्यंत स्पष्ट है । इन कहानियों में हम एक अत्यंत प्रबुद्ध कलाकार को कहानी के सही ढांचे या शिल्प की तलाश में संघर्षरत पाते हैं । ' बलिदान ' ( 1918 ) , ' आत्माराम ' ( 1920 ) , ' बूढ़ी काकी ' ( 1921 ) , ' विचित्र होली ' ( 1921 ) , ' गृहदाह ' ( 1922 ) , ' हार की जीत ' ( 1922 ) , ' परीक्षा ' ( 1923 ) , ' आपबीती ' ( 1923 ) , ' उद्धार ' ( 1924 ) , ' सवा सेर गेहूं ' ( 1924 ) , ' शतरंज के खिलाड़ी ' ( 1925 ) , ' माता का हृदय ' ( 1925 ) , ' कजाकी ' ( 1926 ) , ' सुजान भगत ' ( 1927 ) , ' इस्तीफा ' ( 1928 ) , ' अलग्योझा ' ( 1929 ) , ' पूस की रात ' ( 1930 ) , ' तावान ' ( 1931 ) , ' होली का उपहार ' ( 1931 ) , ' ठाकुर का कुआँ'(1932), 'कफन'(1936) आदि कहानियो में इस तलाश की रेखायें स्पष्ट देखी जा सकती हैं।

इस काल के दूसरे प्रमुख कहानीकार जयशंकर प्रसाद । यद्दपि उनकी पहली कहानी ' ग्राम ' सन 1911 में ही ' इंदु ' में छप चुकी थी , तथापि उनके महत्त्वपूर्ण कहानी - संग्रह ' प्रतिध्वनि ( 1926 ) , ' आकाशदीप ' ( 1929 ) , ' आंधी ' ( 1931 ) , इंद्रजाल ' ( 1936 ) आदि विवेच्य काल सेही प्रकाश में आये । कहानी - लेखक के रूप में उनकी प्रकृति प्रेमचंद से बिलकुल अलग है । जहां प्रेमचंद का रुझान जीवन के चारों ओर फैले यथार्थ में था , वहीं प्रसाद रूमानी स्वभाव के व्यक्ति थे । उनकी कहानियों में जीवन के सामान्य यथार्थ को कम और स्वर्णिम अतीत के गौरव , मसृण भावुकता , कल्पना की ऊंची उड़ान तथा काव्यात्मक चित्रण को अधिक महत्त्व मिला है । उनकी कुछ कहानियां तो आधुनिक कहानी की तुलना में संस्कृत - गद्यकाव्य के निकट हैं ।

राष्ट्रीय- सांस्कृतिक काव्यधाराएँ

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हिंदी साहित्य में छायावाद का प्रवर्तन द्विवेदी युग के अवसान के साथ-साथ हो गया था। छायावादी काव्य प्रवृत्ति के कुछ सूत्र दो - तीन कवियों की रचनाओं में देखे जा सकते हैं , उनका उल्लेख हमने छायावाद शीर्षक प्रकरण में किया है । छायावाद युग के समकालीन कुछ ऐसे कवि हैं जिन्होंने विभिन्न विषयों की मुक्तक रचनाएँ प्रस्तुत कर अपनी पहचान छायावाद से पृथक् बनायी । काल की दृष्टि से उनका समय अवश्य छायावाद की सीमा में आता हैं। भाव और अभिव्यंजना शिल्प की दृष्टि से उन्हें छायावादी कवि नहीं कहा जा सकता। इन कवियों की रचनाओं में राष्ट्रीय सांस्कृतिक धारा को प्रमुख स्थान मिला है । उसका एक विशेष कारण है। सन 1922 से 32 तक का समय अहिंसात्मक आंदोलन की दृष्टि से राष्ट्रीय जागरण का काल था। ब्रिटिश शासन की दासता से मुक्ति पाने के लिए अखिल भारतीय कांग्रेस महात्मा गाँधी के नेतृत्व में एक देशव्यापी आन्दोलन चला रही थी और उसका प्रमाभ देश की सभी भाषाओं के रचनाकारों पर पड़ रहा था । हिन्दी में भी उस समय ऐसे अनेक कवि उत्पन्न हुए जिन्होंने राजनीति तथा भारतीय संस्कृति को केन्द्र में रखकर अपनी रचनाएँ प्रस्तुत की । राजनीतिक जन जागरण के क्षेत्र में इन कवियों का योगदान सदैव स्मरण किया जायेगा । द्विवेदी युग के कवियों की चर्चा में हमने ऐसे कई कवियों के नाम संकेतित किये है जिन्होंने छायावाद युग में रहते हुए भी युगधर्म के साथ विशिष्ट आन्दोलनों को ध्यान में रखकर , देशभक्तिपूर्ण कविताएँ लिखी ।

उनमे प्रमुख हैं: माखनलाल चतुर्वेदी, सियारामशरण गुप्त, बालकृष्ण शर्मा नविन, सुभद्राकुमारी चौहान, जगन्नाथ प्रसाद मिलिंद, रामधारी सिंह दिनकर, उदयशंकर भट आदि

माखनलाल चतुर्वेदी (1889-1968): श्री चतुर्वेदी का जन्म 1889 ई. में मध्यप्रदेश के होशंगाबाद के गांव बावई में हुआ था। इनके पिता अध्यापक थी और इनकी प्रारम्भिक शिक्षा गाँव में हुई । शैशव से ही कविता के प्रति इनका गया था । वैष्णव संस्कार वाले परिवार में पूजा - पाठ आदि का प्रचलन था इसलिए चतुर्वेदीजी भी प्रेमसागर जैसी पुस्तकें बचपन से ही पढ़ने लगे थे । युवा होने पर एक स्कूल में अध्यापक हो गये किन्तु स्वतन्त्रचेता कवि होने के कारण उनका स्कूल की अध्यापकी में नहीं लगा और त्यागपत्र देकर पत्रकारिता के क्षेत्र गये । पहले प्रभा नामक एक मासिक पत्र के सम्पादकीय विभाग में काम उसके बाद प्रताप तथा कर्मवीर में लम्बे अरसे तक सम्पादन कार्य से सम्बटर इन्होंने अपना उपनाम ' एक भारतीय आत्मा ' रखा जो कि उपनाम की परम्परा से कुछ हटकर था । उनकी लोकप्रिय कविता है पुष्प की अभिलाषा:

-"चाह नहीं,मैं सुरबाला के गहनों में गूंथा जाऊं,
चाह नहीं,प्रेमी माला में बिंध प्यारी को ललचाऊँ,
चाह नहीं,सम्राटों के शव पर हे हरि,डाला जाऊं,
चाह नहीं,देवों के सिर पर चढू,भाग्य पर इठलाऊं
मुझे तोड़ लेना बनमाली,उस पथ में देना तुम फेंक
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने,जिस पथ जावें वीर
अनेक।

बालकृष्ण शर्मा 'नवीन' (1887-1960): नवीन का जन्म 1897 ई . में ग्वालियर राज्य के भयाना गाँव में हुआ था । हाईस्कूल की परीक्षा पास करने के बाद ये गणेशशंकर विद्यार्थी के पास गये और उन्होंने इनको कॉलेज में दाखिल करा दिया । सन् 1921 के गाँधीजी के आह्वान पर कॉलेज छोड़कर राजनीति में सक्रिय भाग लेने लगे । विद्यार्थीजी के पत्र ' प्रताप ' में सह - सम्पादक का कार्य भी किया और छात्र - जीवन से ही राजनीतिक विषयों पर लेख , कविता आदि लिखना प्रारम्भ किया । लम्बे समय तक राजनीतिक आन्दोलनों में भाग लेने के कारण इन्हें कई बार जेल जाना पड़ा । वहाँ भी उन्होंने अपना काव्य - प्रेम अक्षुण्ण रखा और फुटकर कविताएँ लिखते रहे । इनका पहला कविता संग्रह कुंकुम 1935 में प्रकाशित हुआ । इन्होंने एक उर्मिला शीर्षक काव्य भी लिखा था जो बहुत वर्षों तक तक अप्रकाशित पड़ा रहा । इस काव्य में उन्होंने युगानुरूप कुछ सन्दर्भ जोड़ने का प्रयास किया है । उर्मिला के चरित्र के माध्यम से भारत की प्राचीन संस्कृति को नवीन परिवेश में प्रस्तुत करने का उनका प्रयास स्तुत्य है । उनकी रचनाओं में प्रणय और राष्ट्र प्रेम दोनों भावों की अभिव्यक्ति हुई है । उनके अन्य प्रमुख गर्न्थो के नाम है अपलक,रश्मि रेखा,हम विषपायी जन्मके आदि।

जयशंकर भटट(1898-1961):उदयशंकर भट्ट ( 1898 - 1961 ) : श्री भट्ट का जन्म उत्तर प्रदेश के बुलन्दशहर जिले के कर्णवास गाँव में सन् 1898 ई . को हुआ था । छायावादी कविता के उत्कर्ष काल में भट्टजी ने कविता के क्षेत्र में पदार्पण किया । उनका प्रारम्भिक रचनाओं में छायावादी काव्य शिल्प और भाव का प्रभाव स्पष्ट देखा जा सकता है । राका , मानसी . विसर्जन , युगदीप , अमृत और विष आदि कविता संग्रहों में इनकी वैयक्तिक अनुभति की सूक्ष्मता , प्रकृति के मानवीकरण की योजना , अभिव्यक्ति के लिए लक्षणा और व्यंजना का सार्थक प्रयोग भट्टजी के काव्य की विशेषता है । भाव नाट्य के क्षेत्र में भी भट्टजी की रचना विश्वामित्र और दो भाव नाट्य उच्च कोटि की रचनाएँ हैं । भट्टजी के परिवार की भाषा गुजराती थी । उनकी जन्मस्थली ब्रजमण्डल में होने के कारण इन पर ब्रजी का भी प्रभाव था । संस्कृत के अध्येता और अध्यापक होने के कारण उनकी रचनाओं में तत्सम पदावली का लावण्य और माधुर्य पाया जाता है । इनका निधन 1961 ई . में दिल्ली में हुआ ।

रामधारी सिंह दिनकर(1908 से 1974): रामधारी सिंह दिनकर का जन्म 1908 ई. में बिहार के सिमरिया गांव जिला में हुआ। बी.ए. तक शिक्षा प्राप्त करने के बाद में इन्हें पारिवारिक परिस्थितियों के कारण सरकारी नौकरी करनी पड़ी । सीतामढ़ी में सब - रजिस्ट्रार के पद पर लम्बे अरसे तक कार्य किया । भारत के स्वतन्त्र होने पर बारह वर्ष तक संसद - सदस्य ( राज्य सभा ) रहे । एक वर्ष तक भागलपुर विश्वविद्यालय के कुलपति पद पर कार्य करने के बाद भारत सरकार के हिन्दी सलाहकार के रूप में छ : वर्ष तक कार्य करते रहे । मूलतः दिनकर कवि थे किन्तु गद्य के क्षेत्र में भी इन्होंने इतिहास , निबन्ध , समीक्षा आदि पर पुस्तकें लिखीं । छायावादोत्तर कवियों में , जिन्हें हमने छायावादी समकालीन कवि कहा है , दिनकर का स्थान मूर्धन्य पर है । उन्होंने स्वयं लिखा है कि मैं छायावाद की ठीक पीठ पर आये कवियों में हूँ । छायावाद की व्यंजनात्मक उपलब्धियों को स्वीकार करते हुए उन्होंने भाव और विचार के क्षेत्र में अपनी नयी भूमिका प्रस्तुत की । राष्ट्रीय चेतना के उद्बोधक गीत लिखकर जो ख्याति चौथे दशक में दिनकर को प्राप्त हुई वैसी किसी अन्य कवि को नहीं मिली । मेरे नगपति मेरे विशाल हिमालय को सम्बोधित उनकी प्रसिद्ध कविता है । ' दिनकर के काव्य में जीवन और समाज का तात्कालिक परिवेश देखा जा सकता है । यह ठीक है कि राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विषयों में गहरी रुचि होने के साथ ही वे छायावादी भंगिमा को छोड़ नहीं सके थे । उन्होंने बड़ी कुशलता से छायावादी काव्यधारा के अभिव्यंजना पक्ष को सरलीकृत रूप में प्रस्तुत कर , अपनी पृथक् पहचान बनायी राष्ट्रीय कविताओं के प्रति उनका प्रेम जिन परिस्थितियों में संवेदना के मार्मिक संस्पर्श से उद्वेलित हुआ था उसका एक विशेष कारण था । [२०]

प्रेम और मस्ती का काव्य

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प्रस्तुत काल के काव्य में छायावादी रचनाएं इतनी प्रौढ़ और शक्तिशाली है कि प्राय: इस काल का विवेचन करते हुए आलोचकों का ध्यान केवल छायावादी काव्य धारा में ही केंद्रित होकर रह जाता है। इसका परिणाम यह होता है कि इस काल के कवि जो पूरी तरह से छायावाद के अंतर्गत नहीं आ पाते,उपेक्षित से हो जाते हैं। बालकृष्ण शर्मा ' नवीन ' , भगवतीचरण वर्मा , बच्चन ,नरेन्द्र शर्मा, अंचल आदि की प्रणयमूलक वैयक्तिक कविताओं का अध्ययन इसी सन्दर्भ में अपेक्षित हैं।और यौवन की प्रखरता तथा आवेश को व्यक्त करने वाली इनकी अधिकांश काल में प्रकाशित हुई . तथापि इस दिशा में इनका आरम्भिक कृतित्व छायावाद युग मे ही प्रकाश में आयाः फलस्वरूप आलोच्य युग की इस काव्यधारा पर यहां संक्षेप में विचार कर लेना युक्तियुक्त होगा । बालकृष्ण शर्मा ' नवीन ' ने राष्ट्रीय - सांस्कृतिक काव्य की रचना की है , किन्त उनकी सम्बन्धी रचनाएं भी महत्वपूर्ण है । यह कहा जा सकता है कि प्रणय और योवन कर छायावादी काव्य में बड़ी तल्लीनता के साथ किया गया है , इसलिए इन कविनों को स्वतन्त्रमा रूप से प्रेम और मस्ती की काव्यधारा के अन्तर्गत रखने का क्या आधार हैं? उत्तर स्पष्ट है ; छायावादी कवियो में प्रणय का महत्त्व सीमित है । इस दृष्टि से प्रसाद का 'आंसू' काव्य छायावादी प्रणय-भावना के दोनों रूपों को मांसल वासनात्मक रूप को और उदात्त करुणा के रूप को व्यक्त करता है । 'कामायनी' में श्रद्धा, जो कामगोत्रजा है और प्रेम का संदेश सुनाने के लिए अवतरित हुई है, एक सीमा तक ही लौकिक प्राणी की आलंबन रहती है और अंत में उसी की रागात्मिका वृति का संमबल पाकर मनु आनंद-आनंद लोक तक पहुंचते है ।निराला के 'तुलसीदास' में भी प्रणय के इस सामान्य लौकिक रूप का निषेध कर राग बोध को एक उदास आध्यात्मिक और सांस्कृतिक स्तर पर प्रतिष्ठित करने का प्रयास है।[२१]

संदर्भ

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  1. विजयेन्द्र स्नातक - हिन्दी साहित्य का इतिहास,साहित्य अकादेमी,1996,पृ.२५२
  2. रामचंद्र शुक्ल- हिन्दी साहित्य का इतिहास,रॉयल बुक डिपो,पृ.४३८
  3. नगेन्द्र- हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपर बैक्स,१९७८, पृ.५१७-१८
  4. बच्चन सिंह - आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास,लोकभारती प्रकासन, पृ.१४१
  5. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५४५
  6. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५४७
  7. डॉ.बच्चन सिंह-आधुनिक हिंदी साहित्य का इतिहास,लोकभारती प्रकाशन,२०१०,पृ.१८०
  8. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५५३
  9. विजयेन्द्र स्नातक- हिन्दी साहित्य का इतिहास, साहित्य अकादेमी,१९९६, पृ.२५४
  10. डाॅ.नगेन्द्र- हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स, १९७३, पृ.५२९
  11. डाॅ. नगेन्द्र - हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर पेपरबैक्स,१९७३, पृ.५२७-२८
  12. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रॉयल बुक डिपो, पृ. ४४०
  13. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रॉयल बुक डिपो, पृ. ४४०
  14. डाॅ.नगेन्द्र- हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स,१९७३, पृ.५२८
  15. डाॅ. नगेन्द्र, हिंदी साहित्य का इतिहास, मयूर बुक्स,१९७३, पृ.५२९
  16. आचार्य रामचंद्र शुक्ल- हिन्दी साहित्य का इतिहास, रॉयल बुक डिपो, पृ.४४२
  17. डाॅ.नगेन्द्र- हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर बुक्स,१९७३, पृ.५२८
  18. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५४६-५४८
  19. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५४९
  20. विजयेंद्र स्नातक-हिंदी साहित्य का इतिहास, सहित्य अकादेमी,२००९,पृ.२६५-२६८
  21. डॉ.नगेन्द्र-हिंदी साहित्य का इतिहास,मयूर पेपरबैक्स,१९७३,पृ.५५६