नाटक हिंदी साहित्य में सबसे पहले विकसित होने वाली साहित्यिक विधा है। रामचंद्र शुक्ल इसे रेखांकित करते हुए लिखते हैं- यह विलक्षण बात है कि आधुनिक हिंदी साहित्य का विकास नाटकों से शुरु हुआ। हिंदी में नाटक विधा को शुरु करने वाले और कुछ ही वर्षों में ऊँचाई पर प्रतिष्ठित करने वाले साहित्यकार थे भारतेंदु हरिश्चंद्र। उन्होंने अपने ‘नाटक’ शीर्षक निबंध में अपने से पूर्व लिखे गए तीन नाटकों का उल्लेख किया है। इनमें रीवां नरेश विश्वनाथ सिंह का ‘आनन्द रघुनन्दन’ नाटक हिन्दी का प्रथम मौलिक नाटक माना जाता है। जो लगभग 1700 ई. में लिखा गया था, किन्तु एक तो उसमें ब्रजभाषा का प्रयोग हुआ है, दूसरे वह रामलीला की पद्धति पर है। अतः वह आधुनिक नाट्यकला से सर्वथा दूर है। हिन्दी साहित्य के आदि और मध्य युग में गद्य अत्यन्त अविकसित स्थिति में था और अभिनयशालाओं का सर्वथा अभाव था। आधुनिक काल के आगमन के साथ गद्य का तेजी से विकास हुआ। प्रेस के आने तथा वाद- विवाद की भाषा बनने से हिंदी की अभिव्यंजना शक्ति भी बहुत बढ़ गई। भारतेंदु ने रंगमंच के अभाव को पूरा करने की भी चेष्टा की। इससे नाटक के विकास के लिए उपयुक्त वातावरण तैयार हो गया। आधुनिक कालीन नाटकों के विकास को अध्ययन की सुविधा के लिए छह कालों में बाँट सकते हैं।

  1. भारतेन्दुयुगीन नाटक : 1850 से 1900 ई.
  2. द्विवेदी युगीन नाटक : 1901 से 1920 ई.
  3. प्रसाद युगीन नाटक : 1921 से 1936 ई.
  4. प्रसादोत्तर नाटक : 1937 से १९४७ तक
  5. स्वातंत्र्योत्तर नाटक : 1947 से 2000 तक
  6. समकालीन नाटक 2000 से अब तक

भारतेंदु युगीन नाटक सम्पादन

हिन्दी में नाट्य साहित्य की परम्परा का प्रवर्त्तन भारतेन्दु हरिश्चंद्र द्वारा हुआ।