रासो शब्द की उत्पत्ति

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रासो शब्द की उत्पत्ति के संदर्भ में चार मान्यताएँ प्रचलित हैं। प्रथम मत गार्सां द तासी का है जिन्होंने 'रासो' को मूल से रूप से 'राजसूय यज्ञ' से उत्पन्न माना। इससे यह अर्थ ध्वनित होता है कि रासो का मूल संबंध वीरता से है। दूसरा मत रामचंद्र शुक्ल का है जिन्होंने 'बीसलदेव रासो' नामक ग्रंथ को आधार मानते हुए उसमें प्रयुक्त 'रसायन' शब्द से इसकी उत्पत्ति मानी। तृतीय मत आचार्य रामस्वरूप चतुर्वेदी का है जिन्होंने माना कि 'रस' शब्द से ही रासो, रास एवं रासक की उत्पत्ति हुई। उन्होंने रासो काव्य-धारा के ही एक पद के माध्यम से इस मान्यता को प्रमाणित करने का प्रयास किया -

"रासउ असंधु नवरस छंदु चंदु किअ अमिअ सम।
शृंगार वीर करुणा बिभछ भय अद्भुतह संत सम।।"

चतुर्थ मत हजारी प्रसाद द्विवेदी का है। उनके अनुसार इस शब्द की व्युत्पत्ति रासक शब्द से हुई है। उन्होंने अपनी परंपरावादी दृष्टि से यह सिद्ध किया कि यह अचानक पैदा हुई परंपरा नहीं है वरन् संस्कृत काव्यधारा से ही चलती आ रही है। प्राकृत के विकास के दौरान जब अन्त्य व्यंजन हटने लगे तो रासक शब्द घिस कर रास हो गया। यही कारण है कि जैन साहित्य में जो रचनाएँ हुईं उनमें 'रास' का प्रयोग हुआ, जैसे - चंदनबाला रास, भरतेश्वरबाहुबली रास, उपदेश रसायन रास आदि। ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि ये प्रायः प्राकृताभास अपभ्रंश में ही लिखे गए।

इसके अनंतर, प्राकृत से अपभ्रंश के विकास के दौरान यह शब्द राजस्थान पहुँचा तो वहाँ की लोकभाषा की ओकारान्त प्रवृत्ति ने इसे रासो बना दिया। इस क्षेत्र में चूंकि वीरतापूर्ण रचनाएँ अधिक हुईं, अतः प्रायः ऐसा हुआ कि वीरतापूर्ण रचनाओं के अंत में रासो शब्द का प्रयोग होने लगा, जैसे - पृथ्वीराज रासो, हम्मीर रासो, परमाल रासो आदि। हालांकि इस पूरी परंपरा में कुछ आरंभिक रचनाएँ ऐसी भी थीं जो न तो जैन कवियों की थीं, और न ही राजस्थानी क्षेत्र की। ऐसी रचनाओं में प्रायः रासक शब्द का प्रयोग हुआ जिनमें सबसे प्रमुख कवि 'अद्दहमाण' (अब्दुर्रहमान या अब्दुल रहमान) की रचना 'सनेह रासउ' (संदेश रासक) है। इस प्रकार स्पष्ट होता है कि रास, रासो व रासक परंपराएँ मूलतः अलग-अलग नहीं, एक ही हैं। केवल स्थान तथा समय के अंतर से इनके नामकरण में भेद दिखाई देता है।

प्रश्न यह भी उठता है कि रासो परंपरा का मूल आधार कहाँ स्थित है? वस्तुतः संस्कृत साहित्य में 'रासक' शब्द के प्रायः तीन अर्थ किए जाते हैं - (१) नृत्यप्रधान रचना (२) दृश्यप्रधान रचना, तथा (३) गीत तथा भाव प्रधान रचना। हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार जैसे-जैसे संस्कृत साहित्य पालि, प्राकृत व अपभ्रंश साहित्य में परिवर्तित हुआ, वैसे-वैसे ऐतिहासिक प्रभावों के कारण नृत्यप्रधान व दृश्यप्रधान रचनाएँ प्रायः लुप्त सी हो गईं। गीत व भाव प्रधान रचनाएँ इन नई भाषिक परंपराओं में प्रचलित हुईं व इन्हीं रचनाओं को रासो साहित्य नाम दिया गया। यही कारण है कि छंदों का वैविध्य इन रचनाओं में पारंपरिक गुण के रूप में बना हुआ है।

रासो काव्य का वर्गीकरण

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रासो काव्यधारा में तीन तरह के ग्रंथ लिखे गए - वीरता प्रधान, शृंगार प्रधान तथा उपदेश प्रधान। चारण व भाट कवियों द्वारा रचित वीर काव्यों के अतिरिक्त शृंगार प्रधान व उपदेश प्रधान रचनाएँ भी इस परंपरा में आती हैं।

वीरता प्रधान रासो काव्य परंपरा में वीर रस अंगीरस है और संयोग शृंगार गौण रस है। इसमें चारण कवियों ने आश्रयदाताओं की प्रशंसा हेतु अतिशयोक्तिपूर्ण वीर काव्य लिखे हैं। उदाहरण के लिए पृथ्वीराज रासो (चंदबरदाई), हम्मीर रासो (शार्ङ्धर), खुमाण रासो (दलपत विजय), विजयपाल रासो (नल्लसिंह) आदि। इन काव्यों में सामंती मूल्यों की स्पष्ट झलक दिखाई देती है। जैसे -

"एउ जन्मु नग्गुह गिउ भड़सिरि खग्गु न भग्गु।
तिक्खाँ तुरियँ न माणियाँ, गोरी गली न लग्गु॥"[]

अर्थात् यह जन्म तो व्यर्थ गया। न सुभटों (रणकुशल योद्धा) के सिर पर तलवार टूटा, न खतरनाक या अड़ियल घोड़े को वश में किया और न ही किसी सुंदर स्त्री को गले लगाया।

शृंगारपरक रासो काव्यों में अंगीरस शृंगार है। इनमें शृंगार के संयोग व वियोग दोनों पक्षों का चित्रण है। अब्दुल रहमान का 'संदेश रासक' व नरपति नाल्ह का 'बीसलदेव रासो' उल्लेखनीय शृंगार प्रधान काव्य है। इन दोनों में ही विरह तत्व प्रबल रूप में उपस्थित है। धार्मिक रासो काव्यों की रचना जैन कवियों द्वारा अपने धर्म व उपदेश का प्रचार करने के लिए की गई है। इसमें जिनदत्त सूरि द्वारा रचित 'उपदेश रसायन रास', शालिभद्र सूरि द्वारा रचित 'भरतेश्वर बाहुबली रास' उल्लेखनीय है।

रासो काव्य की भाषा

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रासो काव्यों की भाषा का विश्लेषण विभिन्न आधारों पर किया जाता है क्योंकि रासो साहित्य का रचना क्षेत्र व काल अत्यंत व्यापक रहा है। ये आधार मुख्यतः दो हैं - कालगत आधार तथा प्रवृत्तिगत आधार।

कालगत परिप्रेक्ष्य में रासो काव्यों की भाषा में दो-तीन ऐतिहासिक चरण द्रष्टव्य हैं। इनमें प्राचीनतम चरण जैन कवियों की उन रचनाओँ की भाषा का है, जिनके अंत में 'रास' शब्द प्रयुक्त है। इन रचनाओं को 'प्राकृताभास अपभ्रंश' कहते हैं अर्थात ऐसी भाषा जो है तो अपभ्रंश किन्तु प्राकृत जैसी आभास दे रही होती है। दूसरा चरण उन रचनाओं का है जिन्हें आरंभिक अपभ्रंश की रचना माना जा सकता है, जैसे - संदेश रासक। तीसरा चरण उन रचनाओं का है जिनकी भाषा को कहीं-कहीं 'परवर्ती अपभ्रंश' व कहीं-कहीं 'परिनिष्ठित अपभ्रंश' कहा जाता है। अंतिम चरण वहाँ दिखता है जहाँ रासो काव्यों की भाषा पुरानी हिंदी के समान हो जाती है व कहीं-कहीं तो वर्तमान हिंदी के समान दिखाई देने लगती है। जैसे - परमाल रासो का यह प्रसंग -

"बारह बरस लौं कूकर जीएँ, औ तेरह लौं जिए सियार।
बरस अठारह क्षत्रिय जीएँ, आगे जीवन को धिक्कार।।"

व्यक्तिगत या स्थानगत आधार पर देखें तो रासो काव्यों की भाषा को २ वर्गों में बाँटने का प्रचलन है - डिंगलपिंगल। डिंगल प्रायः ओजगुण प्रधान शैली है जो प्रमुखतः वीरतापरक काव्यों - जैसे कि परमाल रासो में दिखाई देती है। पिंगल का आशय शृंगार व प्रेम के लिए प्रयुक्त कोमल व व्याकरण सम्मत व्यवस्थित भाषा से है, जिसका प्रयोग मुख्यतः मध्य देश में व शृंगार प्रधान काव्यों में हुआ, जैसे कि बीसलदेव रासो। ऐसा भी नहीं है कि एक रासो काव्य में एक ही शैली का प्रयोग किया जाता हो। सामान्यतया रासो काव्यों में दोनों शैलियों का समन्वय मिलता है। युद्ध आदि के प्रसंग में डिंगल तथा शृंगार आदि के प्रसंग में पिंगल शैली को अपनाया गया है।

डिंगल और पिंगल

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रासो काव्य परंपरा की भाषा के संबंध में एक विवाद है कि डिंगल व पिंगल शब्द विभिन्न भाषाओं को सूचित करते हैं या विभिन्न बोलियों को? डिंगल व पिंगल में कोई वास्तविक भेद है भी या नहीं? जहाँ तक डिंगल का प्रश्न है, इस शब्द की व्युत्पत्ति पर अत्यधिक विवाद है। आचार्य हरप्रसाद शास्त्री ने इसकी उत्पत्ति डंगल (अनपढ़) शब्द से मानी है और डॉ. तेसीतरी का भी मत है कि डिंगल एक अनियमित व गँवारू शैली का नाम था। ओजगुण प्रधानता के आधार पर भी डिंगल को परिभाषित करने का प्रयास किया गया। मोतीलाल मेनारिया ने इसे 'डींगल' के रूप में लिया जिसका अर्थ था 'डींग हाँकना'। 'ड' वर्ण की अधिकता के आधार पर भी इसे इसकी व्याख्या की गई तो 'डिम+गल' अर्थात् गले से डमरू जैसी ओजपूर्ण ध्वनियाँ निकलने के आधार पर भी इसे डिंगल माना गया। कुल मिलाकर डिंगल वह शैली है जिसमें ओजगुण की उपस्थिति हो तथा जिसका प्रयोग सामान्यतः व्याकरण सम्मत ढंग से न हुआ हो।

पिंगल इस साहित्य परंपरा की दूसरी शैली है जिसमें व्याकरणिक व्यवस्था तथा माधुर्य गुण की अवस्थिति निर्णायक विशेषताएँ मानी गईं। रामचंद्र शुक्ल ने इसे ब्रजभाषा के आरंभिक रूप में स्वीकार किया। आगे चलकर रामकुमार वर्मा तथा धर्मवीर ने तो इसे पूर्णतः ब्रज ही माना। इस संदर्भ में शुक्ल जी लिखते हैं - "प्रादेशिक बोलियों के साथ-साथ ब्रज या मध्यदेश का आश्रय लेकर एक सामान्य साहित्यिक भाषा भी स्वीकृत हो चुकी थी जो चारणों में पिंगल भाषा के नाम से पुकारी जाती थी।"[]

वस्तुतः पिंगल छंदशास्त्र के रचयिता का नाम था। जो रचनाएँ व्यवस्थित किस्म की भाषा शैली में रची गई थीं उन्हें पिंगल कहने की परंपरा थी। श्यामसुंदर दास व डॉ॰ तेसीतरी ने पिंगल को ब्रज के समान तो माना ही किंतु मुख्य बल इस बात पर दिया है कि यह व्याकरण व्यवस्था के अनुकूल भाषा थी। देखा जाय तो डिंगल व पिंगल दो भिन्न भाषाएँ नहीं थीं बल्कि एक ही भाषा की दो शैलियाँ मानी जा सकती हैं। प्रायः शृंगार संबंधी पदों में पिंगल की अधिकता तथा युद्धों के ओजपूर्ण वर्णनों में डिंगल की अधिकता दिखाई पड़ती है।

संदर्भ

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