हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/रीतिमुक्त काव्यधारा

रीतिकाल में कुछ ऐसे कवि भी हुए जिन्होंने लक्षण ग्रंथ लिखने की परंपरा का पालन नहीं किया। उनकी रचनाओं में किसी भी रीति पद्धति का अनुसरण भी दिखाई नहीं देता। चूंकि ये कवि लक्षण ग्रंथों से मुक्त होकर रचना करते रहे, इसलिए इन्हें रीतिमुक्त कवि माना गया। इन कवियों में घनआनंद, बोधा, आलम, ठाकुर, द्विजदेव आदि प्रमुख हैं।

रीतिकाव्य एवं रीतिमुक्त काव्य के बाह्य स्वरूप में कोई विशेष अंतर नहीं है। इन दोनों में मूल अंतर उस दृष्टि का है जिसे लेकर कोई कवि काव्य रचना में प्रवृत्त होता है। रीतिमुक्त कवि अपनी अनुभूतियों की अभिव्यक्ति के लिए काव्य रचना करते हैं, आश्रयदाता की प्रशंसा के लिए नहीं। रीतिकाव्य लेखकों का कविता के प्रति दृष्टिकोण दायित्व का नहीं, आनंद का था जबकि रीतिमुक्त कवियों ने कविता को साध्य माना है। ठाकुर रीतिकवियों की रुढ़िगत परिपाटियों की आलोचना करते हुए कहते हैं -

"डेल सो बनाय आय मेलत सभा के बीच,
लोगन कवित कीबो खेल करि जानो है।"

जबकि घनआनंद कविता के प्रति दायित्वबोध रखने वाले सजग रचनाकार हैं -

"लोग हैं लागि कवित्त बनावत,
मोहिं तो मोर कबित्त बनावत।"

रीतिमुक्त कवियों का प्रेम वासनाजन्य व संयोगपरक नहीं है। इनके प्रेम में शुद्ध शारीरिक आकर्षण के स्थान पर विरह की गरिमा है। इनका प्रेम एकनिष्ठ व सीधा सरल है। सुजान के प्रेम में रत घनआनंद कहते हैं -

"अति सूधो सनेह को मारग है, जहँ नेकु सयानप बाँक नहीं।"

रीतिमुक्त काव्य पर फारसी का प्रभाव भी स्पष्ट है। घनआनंद और आलम फारसी के विद्वान थे। इनके विरह पर फारसी शैली का प्रभाव भी पड़ा। दिल के टुकड़े, छाती के घाव जैसे विरक्तिपूर्ण उपमानों का प्रयोग हुआ जो संवेदना कम, बेचैनी अधिक उत्पन्न करता है।

वस्तुतः रीतिमुक्त काव्य शास्त्रों से मुक्ति का काव्य है। इन कवियों ने काव्यशास्त्र के नियमों पर ध्यान नहीं दिया। ये कवि हृदय की अनुभूति के आधार पर रचना करते हैं। इनका काव्य आलंकारिता का खंडन करता है तथा मार्मिकता पर ध्यान देता है। इनके यहाँ अलंकारों का प्रयोग कम हुआ है। घनआनंद ने अलंकार प्रयुक्त तो किए किंतु गहन भावों की अभिव्यक्ति के लिए न कि चमत्कार प्रदर्शन के लिए। उनका विरोधाभास अलंकार का उदाहरण उल्लेखनीय है - "उजरनि बसी है हमारी अँखियानि देखो।"