हिंदी साहित्य का इतिहास (रीतिकाल तक)/हिंदी साहित्येतिहास लेखन में काल विभाजन की समस्या
इतिहास की प्रवृत्तियों का अध्ययन सुगम और सुबोध बनाने के लिए काल विभाजन की आवश्यकता पड़ती है। यूं तो कोई भी इतिहास निरंतरता की प्रवृत्तियों के कारण समग्र होता है किंतु उसकी समग्रता का अवबोध कराने के लिए उसका वैज्ञानिक वर्गीकरण आवश्यक हो जाता है। इस दृष्टि से काल विभाजन की समस्या साहित्य के इतिहास में महत्वपूर्ण हो जाती है। हिंदी साहित्येतिहास लेखन परंपरा में जो आरंभिक प्रयास थे, चाहे वे 'भक्तमाल' या 'कविमाला' सदृश रचनाएं हों, चाहे 'गार्सां द तासी' या 'शिवसिंह सेंगर' के प्रयास; उनमें काल-विभाजन का प्रयास नहीं किया गया।
'जॉर्ज अब्राहम ग्रियर्सन' ने काल विभाजन का पहला प्रयास किया और पूरे हिंदी साहित्य को ११ कालखंडों में विभाजित किया। इस विभाजन की समस्या यह थी कि इसमें कई कालखंड गैर साहित्यिक आधारों पर स्थापित किए गए थे, जैसे - 'मुगल दरबार', 'कंपनी के शासन में हिंदुस्तान', 'महारानी विक्टोरिया के शासन में हिंदुस्तान', '१८वीं शताब्दी' आदि। कुछ काल व्यक्ति विशेष पर आधृत हो गए, जैसे - 'मलिक मुहम्मद जायसी की प्रेम कविता', 'तुलसीदास' इत्यादि। उन्होंने पहले काल अर्थात चारणकाल का निश्चित समय ७०० से १३०० ई॰ तो बताया किंतु शेष कालों का निश्चित विभाजन न कर सके। कुल मिलाकर यह विभाजन अव्यवस्थित ही रहा।
काल विभाजन का अगला प्रयास मिश्रबंधुओं ने किया व मूलतः पाँच काल खंडों को स्वीकृत किया। पुनः पहले तीन खंडों के दो-दो उपखंड बनाए जिससे कुल आठ काल निर्धारित हुए, जो इस प्रकार हैं -
१. पूर्व प्रारंभिक काल - ६४३-१२८६ ई॰
२. उत्तर प्रारंभिक काल - १२८७-१३८७ ई॰
३. पूर्व माध्यमिक काल - १३८८-१५०३ ई॰
४. प्रौढ़ माध्यमिक काल - १५०४-१६२४ ई॰
५. पूर्व अलंकृत काल - १६२४-१७३३ ई॰
६. उत्तर अलंकृत काल - १७३४-१८३२ ई॰
७. परिवर्तन काल - १८३३-१८६८ ई॰
८. वर्तमान काल - १८६९-अद्यतन
मिश्रबंधुओं के काल विभाजन की मूल समस्या यह है कि यह अत्यंत जटिल है, तथा इसका पर्याप्त तार्किक व वैज्ञानिक आधार नहीं है।
हिंदी साहित्य के काल विभाजन का सबसे ठोस प्रयास रामचंद्र शुक्ल ने किया। उन्होंने लगभग १००० वर्षों की साहित्यिक परंपरा को चार कालों में विभाजित किया -
१. वीरगाथाकाल - १०५०-१३७५ संवत्
२. भक्तिकाल - १३७५-१७०० संवत्
३. रीतिकाल - १७००-१९०० संवत्
४. आधुनिक काल - संवत् १९००-अद्यतन
यह काल विभाजन न केवल वैज्ञानिक है बल्कि जटिलताओं से मुक्त भी है। इसमें समस्या मात्र यह आती है कि भक्तिकाल के अंत में रीतिकाल की प्रवृत्तियाँ दिखने लगती हैं तथा भारतेंदु काल में भी रीतिकाल की छाप दिखती है। इसकी व्याख्या शुक्ल जी ने इन्हें गौण प्रवृत्तियाँ कहकर की।
हजारी प्रसाद द्विवेदी ने सामान्यतः शुक्ल जी के ढाँचे को स्वीकार किया किंतु काल विभाजन में थोड़ा बहुत परिवर्तन किया। उन्होंने आदिकाल की सीमा को कुछ आगे तक बढ़ाया व इससे भक्तिकाल व रीतिकाल की सीमा स्वतः आगे बढ़ गई। इनका काल विभाजन इस प्रकार है -
१. आदिकाल - १०००-१४०० ई॰
२. पूर्व मध्यकाल - १४००-१७०० ई॰
३. उत्तर मध्यकाल - १७००-१९०० ई॰
४. आधुनिक काल - १९००-अद्यतन
वर्तमान समय में आचार्यद्वय के मतों में समन्वय पर लगभग आम सहमति कायम हो चुकी है। आज के समय में समस्या यह है कि विगत १५० वर्षों के आधुनिक काल को कैसे उप-खंडों में विभाजित किया जाय? चूंकि जनता की चित्तवृत्तियों में परिवर्तन और साहित्यिक चेतना का विकास तीव्र गति से हुआ है, अतः काल-परिवर्तन अब ३००-४०० वर्षों के स्थान पर १०-२० वर्षों में होने लगा है। हालांकि अब इस पर भी सामान्य सहमति कायम हो चुकी है, जिसके अनुसार काल विभाजन इस प्रकार है -
(१) भारतेंदु युग - १८५०-१९०० ई॰ (२) द्विवेदी युग - १९००-१९१८ ई॰ (३) छायावाद - १९१८-१९३६ ई॰ (४) प्रगतिवाद - १९३६-१९४३ ई॰ (५) प्रयोगवाद - १९४३-१९५१ ई॰ (६) नई कविता - १९५१-१९६० (७) साठोत्तरी कविता - १९६०-अद्यतन
ध्यान से देखें तो १९१८ ई॰ के बाद का पूरा विभाजन कविता को केंद्र में रखकर किया गया है, जबकि अब गद्य का महत्व अधिक है। इसलिए गद्य-विधाओं का विभाजन अलग से किया गया, जो कि इस प्रकार है -
१. उपन्यास - (क) प्रेमचंद पूर्व युग (ख) प्रेमचंद युग (ग) प्रेमचंदोत्तर युग (घ) स्वातंत्र्योत्तर युग
२. कहानी - (क) प्रेमचंद पूर्व युग (ख) प्रेमचंद युग (ग) प्रेमचंदोत्तर युग (नई कहानी, अकहानी, सहज कहानी, सक्रिय कहानी, समांतर कहानी, सचेतन कहानी, समकालीन कहानी)
३. नाटक - (क) प्रसाद पूर्व युग (ख) प्रसाद युग (ग) प्रसादोत्तर युग
४. आलोचना - (क) शुक्ल पूर्व युग (ख) शुक्ल युग (ग) शुक्लोत्तर युग (स्वच्छंदतावादी आलोचना, ऐतिहासिक आलोचना, मनोविश्लेषणवादी आलोचना, मार्क्सवादी आलोचना, नई समीक्षा, समकालीन समीक्षा)
५. निबंध - (क) शुक्ल पूर्व युग (ख) शुक्ल युग (ग) शुक्लोत्तर युग
स्पष्ट है कि हिंदी साहित्येतिहास लेखन परंपरा काल विभाजन की समस्या का पर्याप्त समाधान कर चुकी है। कुछ विवाद अभी भी शेष हैं किंतु समय के साथ उनके भी सुलझ जाने की संभावना मानी जा सकती है।