सामाजिक स्थिति

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आदिकाल विविध और परस्परविरोधी प्रवृत्तियों का काल है| हर्षवर्धन के बाद किसी ने केंद्रीय सत्ता स्थापित नहीं की| युद्ध या बाहरी हमलों का कोई प्रभाव जनता पर नहीं पड़ता था|भूमि और नारी का हरण राजाओं पर लिखे गए काव्यों में सामान्य विषय है| सामंतवादी व्यवस्था में भूमि संपत्ति का स्रोत होती है| रक्त या वंश की शुद्धता और उच्चता में नारी की भूमिका निर्णायक होती है| अर्थव्यवस्था की बात छोड़ दे तो कहा जा सकता है कि सामान्य जनता के दैनंदिन जीवन पर राज्य की अपेक्षा धार्मिक मतों का अधिक प्रभाव था| इस काल में संस्कृत, प्राकृत, और अपभ्रंश में भी रचनाएं हो रही थी| और साथ ही साथ अपभ्रंश के केंचुल को छोड़ती हुई हिंदी भी अपना रूप ग्रहण कर रही थी|

इस काल में आवागमन के साधन आज जैसे विकसित नहीं थे| इसका परिणाम यह दिखलाई पड़ता है कि इस विशाल क्षेत्र के विभिन्न स्थानों पर रची गई कृतियों में भाषागत विभिन्नता अर्थात क्षेत्रीयता का रंग अधिक है| इसलिए आदिकाल का हिंदी साहित्य अनेक बोलियों का साहित्य प्रतीत होता है| वस्तुतः यह काल अनेक दृष्टियों से संधिकाल है| धार्मिक दृष्टि से इस काल में अनेक ज्ञात-अज्ञात साधनाएं प्रचलित थी| सिद्ध, जैन, नाथ आदि मतों का इस काल में व्यापक प्रचार किया गया था| इसका साहित्य भी प्रचुर मात्रा में उपलब्ध होता है| धार्मिक साधना के रूप में वैष्णव मत का प्रचार सामान्य जनता में कम नहीं रहा होगा, किंतु इस काल में वैष्णव मतावलंबी साहित्य अपेक्षाकृत कम मिलता है| इस्लाम का प्रवेश हो चुका था, किंतु उसका प्रभाव साहित्य पर आदिकाल के अंतिम चरण के प्रसिद्ध कवि अमीर खुसरो में ही दिखलाई पड़ता है| संदेशरासक का रचयिता अब्दुर्रहमान अपने नाम से इस्लाम धर्मालंबी ज्ञात होता है, किंतु उसकी रचना पर इस्लाम का प्रभाव नहीं के बराबर है|


सिद्ध कवि

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बौद्ध धर्म कालांतर मैं तंत्र-मंत्र की साधना में बदल गया था। वज्रयान इसी प्रकार की साधना था। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार-"बौद्ध धर्म अपने हीनयान और महायान के विकास को चरम सीमा तक पहुंचाकर अब एक नई दिशा लेने की तैयारी कर रहा था, जब उसे मंत्रयान, वज्रयान या सहजयान की संज्ञा मिलने वाली थी।" सिद्धों का संबंध इस वज्रयान से था। उनकी संख्या 84 बताई जाती है। प्रथम सिद्ध 'सरहपा' (8वीं शताब्दी) सहज जीवन पर बहुत अधिक बल देते थे। इन्हें ही सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है। सिद्धू ने नैरात्म्य भावना, कायायोग, सहज, शून्य कथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीव्र प्रहार किया है। इन्होंने संधा भाषा-शैली में रचनाएं की हैं। संधा भाषा स्तुतः अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करनेवाली प्रतीक भाषा है। इसीलिए प्रतिकार्थ खोलने पर ही यह समझ में आती है। इस भाषा शैली का उपयोग नाथों ने भी किया है। कबीर आदि निर्गुण संतों कि इसी भाषा शैली को 'उलटबाँसी' कहा जाता है। बच्चे देश के पूर्वी भाग में ही सिद्धू के होने का पता चलता है। उनकी भाषा में थी उन्हीं क्षेत्रों के तत्कालीन रूप मिलते हैं


नाथ कवि

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नाथों का समय थोड़ा बाद का है। 84 सिद्धों की जो सूची मिलती है, उसमें कई नाम नाथों के भी है। वज्रयानी सिद्धों के साथ नाथों का संबंध था। नाथपंथ में 'गोरखनाथ' शिव के रूप माने जाते हैं। अंतः इसका शैव होना स्पष्ट है। गोरखनाथ ने पतंजलि के योग को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया और ब्रह्मचर्य, वाक्संयम, शारीरिक-मानसिक शुचिता तथा मघ-मांस के त्याग का आग्रह किया। ब्राह्मणों के कर्मकांड एवं वर्णाश्रम व्यवस्था पर उन्होंने भी तीव्र प्रहार किया। उनका सिद्धांत था-'जोई-जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे' अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। इड़ा-पिंगला, नाद-बिंदु की साधना, षट्चक्रभेदन, शून्य चक्र में कुंडलिनी का प्रयोग आदि नाथों की अंतस्साधना के मुख्य अंग हैं। संधा भाषा या उलटबाँसी की शैली का प्रयोग उन्होंने ही किया है।

नाथों का निवास स्थान मध्य देश का पश्चिमोत्तर भाग बताया जाता है। परंपरा से प्रसिद्ध है कि गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ या मछंदरनाथ के शिष्य थे। मछंदरनाथ जलंधर के शिष्य थे। यह भी कहा जाता है कि इन्हीं जलंधर से जालंधर नगर का नामकरण हुआ है। राहुल सांकृत्यायन गोरखनाथ का समय विक्रम की 10 वीं शताब्दी मानते हैं। रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें पृथ्वीराज चौहान के समय का बताया है और पं हजारीप्रसाद द्विवेदी इन्हें हैंड 10 वीं शताब्दी का मानने के पक्ष में हैं


जैन मतावलंबी कवि

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जैन मत के प्रभाव में अधिकांश काव्य गुजरात, राजस्थान और दक्षिण में रचा गया। यह प्रायः प्रमाणिक रूप में उपलब्ध है। जैन मतावलंबी रचनाएँ दो प्रकार की है- एक, जिनमें नाथ सिद्धों की तरह अंतस्साधना, उपदेश, नीति सदाचार पर बल और कर्मकांड का खंडन है। ये प्रायः दोहों में रचित मुक्तक हैं। दूसरी, जिनमें पौराणिक, जैन साधकों की प्रेरक जीवन-कथा या लोक प्रचलित कथाओं को आधार बनाकर जैन मत का प्रचार किया है। जैन पौराणिक काव्य एवं चरित काव्य इसी श्रेणी के काव्य हैं।


जैन आचार्य हेमचंद्र (12वीं शती) के प्राकृत व्याकरण और मेरुतुंग (13वीं शती) के प्रबंध चिंतामणि में जैनेतर रचनाएँ भी संकलित हैं। सदाचार, उपदेश, रहस्य-साधना वाली मुक्तक रचनाएँ सिद्धों की रचनाओं से बहुत मिलती हैं। इनमें भी सहज पर बल दिया गया है। जोइंद (10वींशताब्दी), रामसिंह (लगभग 12वीं शताब्दी) आदि इस कोटि के प्रमुख जैन कवि हैं। पौराणिक काव्य-धारा में अपभ्रंश के महान कवि 'स्वयंभू' आते हैं, जिन्होंने रामकथा को आधार बनाकर पउम चरिउ की रचना की। स्वयंभू आठवीं शती के कवि हैं। पउम चरिउ जायसी के पद्मावत और तुलसीदास के रामचरितमानस की ही तरह कड़वकबद्ध है। अपभ्रंश के अन्य प्रसिद्ध कवि पुष्पदंत (10वीं शती) ने महापुराण की रचना की। इसके अतिरिक्त जेन अपभ्रंश कवियों ने भारी संख्या में चरितकाव्य लिखे हैं। इनमें पुष्पदंत का नागकुमार चरित, जसहर चरिउ तथा कनकामर मुनि (11वीं शती) का करकंडचरित अधिक प्रसिद्ध हैं। भविष्यदत्त कथा नामक प्रसिद्ध अपभ्रंश कथाकाव्य धनपाल (10वीं शती) की ऐसी रचना है, जिसमें लोकप्रचलित कथा को भी सरल बनाए रखा गया है और जैन मत में दीक्षित होने की प्रेरणा भी दी गई है।


इस काल का लिखा गया वैष्णव साहित्य बहुत ही कम मात्रा में उपलब्ध है। लेकिन लक्ष्मीधर द्वारा चौदहवीं शताब्दी में संकलित प्राकृत पैंगलम् के अनेक छंदों में विष्णु के विभिन्न अवतारों से संबंधित पंक्तियाँ मिलती हैं। इसी प्रकार हेमचंद्र (12वीं शती) के प्राकृत व्याकरण में संकलित अपभ्रंश दोहों में भी कृष्ण, राधा, दशमुख आदि की चर्चा आती है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि इस काल के साहित्य में विष्णु के विभिन्न अवतारों को लेकर प्रचुर मात्रा में रचनाएँ हुई थीं, जो अब उपलब्ध नहीं हैं।


बहुत कुछ यही स्थिति शृंगारपरक लौकिक काव्यों की भी है सौभाग्यवश राउल वेल (11वीं शती) और संदेशरासक (13वीं शती) नामक दो शुद्ध लौकिक शृंगारी काव्य प्रामाणिक तौर पर उपलब्ध हो गए हैं। संदेशरासक का महत्त्व इस से भी आँका जाना चाहिए कि वह किसी भारतीय भाषा में रचित इस्लाम धर्मावलंबी कवि की प्रथम रचना है संदेशरासक तीन प्रक्रमों में विभाजित 223 छंदों का संदेश काव्य है। राउर वेल का रचयिता 'रोडा' नामक कवि है, जिसने किसी राजा के अंत:पुर में रहने वाली विभिन्न प्रदेशों की रानियों का वर्णन किया है।


प्राकृत पैंगलम् के छंदों को देखने से पता चलता है कि आश्रयदाता राजाओं को आधार बनाकर काव्य रचने की परंपरा भी इस काल में विद्यमान थी। प्राकृत पैंगलम् में विद्याधर द्वारा रचित किसी राजा संभवतः 'जयचंद' की. एवं अनुमानतः शाङ्गधर द्वारा रचित हम्मीर की प्रशंसा में लिखे पद्य मिलते हैं।


हेमचंद्र के प्राकृत व्याकरण में अपभ्रंश के जो दोहे संकलित हैं, उनसे एक तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि दोहा उस समय का लोकप्रिय छंद था। दसरे, वीरता और शृंगार नीति-विषयक दोहों में रचित कृतियाँ भी लोकप्रिय थीं। इन दोहों की अभिव्यक्ति इतनी निश्छल और सहज है कि इन्हें लोक-साहित्य की कोटि में रखा जा सकता है। यहाँ धर्म, वीर, शृंगार और नीतिपरक दोहों के कुछ उदाहरण दिए जा रहे हैं-

धर्मः प्राइव मुणिहँवि भंतडी ते मणिअडा गणंति

अखइ निरामइ परम-पइ अज्जवि लउ न लहंति

(प्रायः मुनियों को भी भ्रांति हो जाती है, वे मनका गिनते हैं। अक्षय निरामय परम पद में आज भी लौ नहीं लगा पाते।)


वीरः पाइ विलग्गी अंबडी सिरु ल्हसिउँ खंघस्स्।

तोवि कटारइ हत्थडउ बलि किज्जउँ कंतस्स।

(पाँव में अंतड़ियाँ लगी हैं, सिर कंधे से लटक गया है तो भी हाथ कटार पर है। ऐसे की मैं बलि जाती हूँ।)


श्रृंगारः पिय-संगमि कउ निद्दडी पिअहो परोक्खहो केम मइँ विन्निवि विन्नासिआ निद्द न एम्ब न तेम्ब।

[प्रिय के संगम में नींद कहाँ! प्रिय के परोक्ष में (सामने न रहने पर)। नींद कहाँ! मैं दोनों प्रकार से नष्ट हुई, नींद न यों न त्यों।]


नीतिः जो गुण गोवइ अप्पणा पयडा करइ परस्सु ।

तसु हउँ कलजुगि दुल्लहहो बलि किज्जउँ सुअणस्सु।।

(जो अपना गुण छिपाए, दूसरे का प्रकट करे, कलियुग में दुर्लभ। सृजन पर मैं बलि जाऊँ।)


दोहा, पद्धड़िया, गेयपद अपभ्रंश काल के प्रमुख छंद हैं।

वीरगाथा काव्य

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पं. रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल के तृतीय प्रकरण को 'वीरगाथा काल' कहा है। उनके अनुसार इस नामकरण का आधार यह है, कि इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति वीरगाथात्मक है। शक्ल जी ने इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति की पहचान जिन 12 ग्रंथों के आधार पर की है, वे इस प्रकार हैं- विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक-जस-चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति पदावली।


इनमें से विद्यापति की रचनाएँ (14वीं, 15वीं शताब्दी) अर्थात् कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पदावली और नरपति नाल्ह द्वारा रचित बीसलदेव रासो प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। कीर्तिपताका अभी तक संपादित होकर प्रकाशित नहीं हई है। बीसलदेव रासो का पाठ डॉ. माताप्रसाद गुप्त द्वारा संपादित प्रकाशित है। कुछ लोग इसे तेरहवीं शती की रचना मानते हैं, तो कुछ लोग सोलहवीं-सत्रहवीं शती की। जगनिक कृत परमाल रासो 'आल्हा' के रूप में ही पहचाना जाता है। आल्हा लोकगान है, अत: यह विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में गाया जाता है। जगनिक संभवतः परमाल और पृथ्वीराज के समकालीन (12वीं शती के) थे। विजयपाल रासो के रचयिता का नाम नल्लसिंह है। इसमें जो लड़ाई विजयपाल न पंग राजासे की थी, उसका वर्णन है। मिश्र बंधुओं ने इसका रचनाकाल चौदहवीं शती ही माना है। भाषा-शैली पर विचार करने से यह रचना परवर्ती लगती है। हम्मीर रासो, जयचंद प्रकाश और जयमयंक-जस-चंद्रिका उपलब्ध नहीं है। हम्मीर विषयक एक पद्य प्राकृत पैंगलम् में मिलता है, जिसके बारे में पं. रामचंद्र शुक्ल का विश्वास है कि वह हम्मीर रासो का ही है। खुमान रासो के रचयिता दलपति विजय हैं। इसमें नौवीं शताब्दी के खुमान के युद्ध का वर्णन है। लेकिन मेवाड़ के परवर्ती शासकों जैसे महाराणा प्रताप सिंह और राजसिंह का भी वर्णन है। इससे प्रकट होता है कि यह रचना सत्रहवीं शती के आसपास की है।

पृथ्वीराज रासो आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य है। इस काव्य का रचनाकाल और इसका मूलरूप सर्वाधिक विवादास्पद है। इसके रचयिता चंदबरदायी पृथ्वीराज चौहान के अंतरंग बताए जाते हैं। प्राच्य विद्या के यूरोपीय पंडितों ने इस ग्रंथ से मध्यकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालने की आशा बाँध रखी थी। इसलिए डॉ. बूलर को जब यह पता चला कि रासो की तिथियाँ, व्यक्तियों के नाम, घटनाएँ आदि इतिहास-सम्मत नहीं हैं, तो उन्होंने तत्काल इस ग्रंथ को न प्रकाशित करने की सिफ़ारिश की। इसकी प्रामाणिकता पर संदेह करने वाले विद्वानों में गौरीशंकर हीराचंद ओझा, रामचंद्र शुक्ल आदि भी हैं। बाबू श्यामसुंदर दास और मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या इसे प्रामाणिक माननेवालों में हैं।


महामहोपाध्याय गौरीशंकर ओझा के अनुसार, पृथ्वीराज रासो 1600 वि. सं. के आसपास लिखा गया। इसकी ऐतिहासिकता की खोज अब बंद कर दी गई है। इधर हाल में मुनि जिन विजय ने पुरातन प्रबंध संग्रह के एक अंश जयचंद प्रबंध के चार छप्पयों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया, जो वर्तमान रासो में भी मिलते हैं। पुरातन प्रबंध संग्रह का संकलन काल संभवत: पंद्रहवीं शती है। इससे यह तो प्रकट हो गया कि पंद्रहवी शती के पूर्व 'चंद्र' नामक कवि ने पृथ्वीराज पर कोई काव्य लिखा था, जिसके कुछ अंश वर्तमान रासो में हैं, किंतु रासो का मूल रूप क्या रहा होगा यह समस्या अभी भी बनी हुई है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनुमान किया है कि चंद्र ने रासो का रचना शुक-शुकी संवाद के रूप में की थी। मध्यकालीन प्रबंध-काव्य का यह बहुप्रयुक्त रूढ़ि है। रासो के जो अंशक-शकी संवाद के रूप में मिलते है, व ही मूलरूप हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने रासो के चार पाठों-वृहत्तम, वृहत, लघु तथा लघुतम में से लघुतम पाठ को रासो का मूलरूप बताया है। रासो में मध्यकालीन साहित्य में प्रयुक्त अनेक कथानक-रूढ़ियों और काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग किया गया है। इसमें अनेक छंदों का प्रयोग मिलता है। पृथ्वीराज रासो रासो काव्य-परंपरा का काव्य तो है ही, इसमें चरितकाव्य, आख्यायिका आदि के भी लक्षण मिलते हैं।

रासो में पृथ्वीराज के विभिन्न युद्धों और विवाहों का वर्णन है। वीर और शृंगार रासो के प्रमुख रस हैं, यद्यपि इसका अंगीरस वीर ही माना जाएगा। रासो में नायिका का नख-शिख वर्णन, सेना के प्रयाण, युद्ध, षड्ऋतुओं आदि का सुंदर वर्णन है। चंदबरदाई अनेक मन:स्थितियों का संश्लिष्ट चित्र खींचने में सिद्ध हैं। यद्यपि वे विभिन्न छंदों के प्रयोग में कुशल हैं, किंतु छप्पय उनका अपना छंद है।


रासो के एक खंड 'कैमास बध' का छप्पय इस प्रकार है-

एकु वान पुहवी नरेस कयमासह मुक्कउ।

उर उपरि परहरिउ वीर कष्षतर चुक्कउ।।

बीउ बान संधानि हनउ सोमेसुरनंदन।

गाडउ करि निग्गहउ पनिव षोदउ संभरि धनि ।

थर छडि न जाइ अभागरउ गारइ गहउ जुगुन परउ।

इम जंपइ चंद विरदिया सु कहा निमिट्टिइ इह प्रलउ।।*


बीसलदेव रासो: बीसलदेव रासो के रचयिता का नाम नरपति नाल्ह है। पाठ के अनुसार ग्रंथ की रचना संवत् 1212 अर्थात् 1155 में हुई थी। किंतु श्री मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, इसकी रचना सोलहवीं शताब्दी में हुई होगी। बीसलदेव रासो में शाकंभरी नरेश बीसलदेव और भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है। यह प्रधानतः शृंगारी काव्य है। बीसलदेव रासो में हिंदी काव्य में प्रयुक्त होने वाले 'बारहमासा' का वर्णन सबसे पहले मिलता है।

वीरगाथाकाल के अन्य कवि

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सामान्य विशेषताएं

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यों तो इतिहास का प्रत्येक युग परस्परविरोधी एवं प्रधान-अप्रधान प्रवृत्तियों का युग होता है, किंतु आदिकाल के विषय में यह बात विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है। वह राजनीतिक दृष्टि से छोटे-छोटे सामंतों में विभक्त प्रदेश का साहित्य है। किसी केंद्रीय सत्ता का अभाव है। उसके पूर्व में पाल, पश्चिम में प्रतिहार और दक्षिण में राष्ट्रकूट प्रबल हैं। केवल गाहडवार वंशीय गोविंद चंद्रदेव इस काल में मध्य देश के प्रतापी नरेश हुए, किंतु उनके पूर्वजों और वंशजों का वैसा प्रताप नहीं था। धार्मिक दृष्टि से यह अनेक ज्ञात-अज्ञात सांप्रदायिक साधनाओं का काल है। बौद्ध धर्म का पूर्व प्रभाव नहीं रह गया था। बौद्ध धर्म से विकसित महायान, वज्रयान एवं नाथ-सिद्धों की साधना सामान्य जनता में स्वीकृत हो पाएं, यह संभव नहीं था। जैन मत का प्रभाव मध्य देश की अपेक्षा पश्चिम में था। भाषा की दृष्टि से यह काल अपभ्रंश और हिंदी का संधिकाल है। दसवीं शती के आसपास से अपभ्रंश का प्रभाव क्रमशः क्षीण होता जा रहा था और हिंदी भाषा की प्रवृत्तियाँ उसका स्थान लेती जा रही थीं। हिंदी साहित्य के आदिकाल में जो साहित्य मिलता है वह अधिकांशतः अपभ्रंश-हिंदी का साहित्य है, शुद्ध अपभ्रंश या शुद्ध हिंदी का नहीं। आदिकाल समाप्त होते-होते दिल्ली के सिंहासन पर अलाउद्दीन खिलजी जैसा शासक दिखलाई पड़ता है, जो मध्य देश ही नहीं, लगभग समूचे देश में अपना शासन स्थापित करता है। विद्यापति-खुसरो की रचनाओं एवं उक्ति-व्यक्ति प्रकरण जैसी कृतियों में आधुनिक भारतीय आर्य भाषाओं का रूप स्थापित दिखलाई पड़ता है। उधर धार्मिक क्षेत्र में महान भक्ति आंदोलन छोटी-छोटी साधनाओं का सार ग्रहण करके धर्म को लोक का व्यापक क्षेत्र प्रदान करता है।