नाथों का समय थोड़ा बाद का है। 84 सिद्धों की जो सूची मिलती है, उसमें कई नाम नाथों के भी है। वज्रयानी सिद्धों के साथ नाथों का संबंध था। नाथपंथ में 'गोरखनाथ' शिव के रूप माने जाते हैं। अंतः इसका शैव होना स्पष्ट है। गोरखनाथ ने पतंजलि के योग को लेकर हठयोग का प्रवर्तन किया और ब्रह्मचर्य, वाक्संयम, शारीरिक-मानसिक शुचिता तथा मघ-मांस के त्याग का आग्रह किया। ब्राह्मणों के कर्मकांड एवं वर्णाश्रम व्यवस्था पर उन्होंने भी तीव्र प्रहार किया। उनका सिद्धांत था-'जोई-जोई पिंडे सोई ब्रह्मांडे' अर्थात जो शरीर में है, वही ब्रह्मांड में है। इड़ा-पिंगला, नाद-बिंदु की साधना, षट्चक्रभेदन, शून्य चक्र में कुंडलिनी का प्रयोग आदि नाथों की अंतस्साधना के मुख्य अंग हैं। संधा भाषा या उलटबाँसी की शैली का प्रयोग उन्होंने ही किया है।

नाथों का निवास स्थान मध्य देश का पश्चिमोत्तर भाग बताया जाता है। परंपरा से प्रसिद्ध है कि गोरखनाथ मत्स्येंद्रनाथ या मछंदरनाथ के शिष्य थे। मछंदरनाथ जलंधर के शिष्य थे। यह भी कहा जाता है कि इन्हीं जलंधर से जालंधर नगर का नामकरण हुआ है। राहुल सांकृत्यायन गोरखनाथ का समय विक्रम की 10 वीं शताब्दी मानते हैं। रामचंद्र शुक्ल ने इन्हें पृथ्वीराज चौहान के समय का बताया है और पं हजारीप्रसाद द्विवेदी इन्हें हैंड 10 वीं शताब्दी का मानने के पक्ष में हैं