हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/निर्गुण काव्य:/प्रेमाश्रयी शाखा

ऐतिहासिक या कल्पित व्यक्तियों के साथ किसी राजकुमारी, श्रेष्ठि-पुत्री, गणिका या अप्सरा की प्रेम-कथा की परंपरा प्राचीन है। कालिदास ने मेघदूत में उदयनकथाकोविद'(उदयन की कहानी कहने में पट) जनों का उल्लेख किया है। सोलहवीं शती के बनारसीदास ने अर्ध-कथानक में लिखा है कि वे मधुमालती, मिरगावत पढ़ते थे। ये सूफ़ी नहीं, शुद्ध लौकिक प्रेम-काव्य थे। एक ही कहानी को आधार बनाकर मध्यकाल में अनेक रचनाकारों ने काव्य लिखे हैं। अनेक सूफ़ी कवियों ने यह लिख दिया है, आदि अंत जस कथा रही या पुनि हम खोलि अरथ सब कहा। इससे यही स्पष्ट होता है कि ये कथाएँ पहले से प्रचलित थीं। अनुमानत: जैन मतावलंबी रचनाकारों ने आदिकाल में भविस्सयत्त कहा जैसी रचनाएँ की हैं, बे भी लोक-प्रचलित कथाओं पर आधारित हैं। जैसे सूफ़ी कवियों ने उन्हें सूफ़ी ढाँचे में बाँधा, वैसे जैन मतावलंबी कवियों ने उन्हें जैन धर्म के ढाँचे में प्रस्तुत किया होगा। ऐसा ही राम-कथा और कृष्ण-कथा के साथ भी हुआ है।


लौकिक प्रेम-कथाओं की परंपरा भी सूफ़ी काव्य के समानांतर चलती रही है। ईश्वरदास की सत्यवती कथा को इसी परंपरा में माना जाना चाहिए। कुशल लाभ का ढोला मारू रा दूहा (16वीं शती) जिसमें ढोला और मारवड़ी की प्रेम-कथा चित्रित है, प्रसिद्ध प्रेम आख्यानक है। कुशल लाभ की ही दूसरी रचना माधवानल-कामकंदला है। माधवानल-कामकंदला की प्रेमकथा पर 1547 में आलम ने भी काव्य रचना की है सारंगा-सदावृक्ष की भी प्रेमकथा पर अनेक रचनाएँ मिलती हैं। यह कथा गद्य में भी मिलती है। इसी प्रकार किसी अज्ञात कवि ने दिल्ली के सुल्तान फ़िरोज़शाह के पुत्र कुतुबुद्दीन और साहिबा की प्रेमकथा पर कुृतुब सतक की रचना की है। कहने का आशय यह है कि सूफ़ी काव्य के साथ-साथ शुद्ध लौकिक प्रेम आख्यानों की परंपरा भी चलती रही । सृफ़ी कवियों ने इसी आख्यान परंपरा का उपयोग किया और उसे सूफ़ी सिद्धांतों के ढाँचे में इस सफ़ाई से गढ़ा कि कथा प्रतीकात्मक हो गई। प्रतीकात्मकता में दोहरापन होता है। वह प्रस्तुत और अप्रस्तुत, दोनों अर्थ देती है। सृफ़ी परंपरा के पहले कवि मुल्ला दाऊद हैं। इनकी रचना का नाम चंदायन है। चंदायन का रचनाकाल 1379 है।


बरिस सात से होई इक्यासी। तिन्हि जाह कबि सरसेउ भासी ॥


मुल्ला दाऊद रायबरेली ज़िले के डलमऊ के थे। वहीं उन्होंने चंदायन की रचना की। यह काव्य बहत ही लोकप्रिय एवं सम्मानित था। दिल्ली में मख्दूम शेख तकीउद्दीन रब्बानी जन-समाज के बीच इसका पाठ किया करते थे। चंदायन पूर्व भारत में प्रचलित लोरिक, उसकी पत्नी मैना और उसकी विवाहिता प्रेमिका चंदा की प्रेमकथा पर आधारित है। बीच-बीच में चंदा को इस काव्य में भी पद्मावत की भाँति अलौकिक सत्ता का प्रतीक बनाया गया है। चंदायन की भाषा परिष्कृत अवधी है, जिससे लगता है कि चौदहवीं शती तक अवधी काव्य-भाषा के रूप में परिष्कृत और प्रतिष्ठित हो चली थी।


कुतुबन ( 1567-1689)

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कुतुबन ने मिर्गावत की रचना 909 हिजरी अर्थात् 1503-04 में की थी। ये सोहरावर्दी पंथ के ज्ञात होते हैं। पं. रामचंद्र शुक्ल के अनुसार ये जीनपुर के बादशाह हुसैन शाह के आश्रित थे। मिरगावत में नायक मूगी-रूपी नायिका पर मोहित हो जाता है और उसकी खोज में निकल पड़ता है। अंत में शिकार खेलते समय सिंह के द्वारा मारा जाता है। यह रचना अनेक कथानक-रूढ़ियों से युक्त है। इसकी भाषा प्रवाहमयी है।

मलिक मुहम्मद जायसी ( 1492-1542)

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हिंदी में सूफ़ी काव्य परंपरा के श्रेष्ठ कवि मलिक मुहम्मद जायसी हैं। ये अमेठी के निकट जायस के रहने वाले थे, इसलिए इन्हें जायसी कहा जाता है। पं. रामचंद्र शुक्ल ने लिखा है कि जायसी अपने समय के सिद्ध फ़कीरों में गिने जाते थे। अमेठी के राजघराने में इनका बहुत मान था। इनको तीन रचनाएँ उपलब्ध हैं- अखरावट, आखिरी कलाम और पद्मावत। कहते है कि ऐक नवपलब्ध काव्य कन्हावत भी इन्हीं की रचना है। किंतु कन्हावत का पाठ प्रामाणिक नहीं लगता। अखरावट में देवनागरी वर्णमाला के एक-एक अक्षर को लेकर सैद्धांतिक बातें कही गई हैं। आखिरी कलाम में कयामत का वर्णन है। कावि के यश का आधार है पद्मावत। इसकी रचना कवि ने 1520 (927 हिजरी) के आसपास की थी। कुछ लोग 27 को 47 पढ़कर इसका रचनाकाल 1547 मानने के पक्ष में हैं।


पद्मावत' प्रेम की पीर की व्यंजना करने वाला विशद प्रबंध-काव्य है। यह दोहे-चौपाइयों में निबद्ध मसनवी शैली में लिखा गया है, जिसमें कवि ने अल्लाह, हज़रत मुहम्मद, उनके चार मित्रों, शाहेवक्त, शेरशाह सूरी और समसामयिक गुरुओं एवं पीरों की वंदना की है। पद्मावत की काव्य-भूमिका विशद एवं उदात्त है। कवि ने प्रारंभ में ही प्रकट कर दिया है कि जीवन और जगत को देखनेवाली उसकी दृष्टि व्यापक और परस्पर-विरोध को ऑकने वाली है। कवि अल्लाह को इस विविधतामयी सुष्टि का कर्ता कहता है, विविध प्राणियों, वस्तुओं, स्थितियों का परिगणन करता है, फिर उनमें परस्पर-विरोध देखता है।-


कीन्हेसि नाग मुखहिं विष बसा । कीन्हेसि मंत्र हरह जेहिँ डसा ।।

कीन्हेसि अमिअ जिअन जेहि पाएँ। कीन्हेसि विष जो मीचु तेहि खाएँ।।

कीन्हेसि अखि मीठि रस भरी। कीन्हेसि करई बेलि बहु फरी।।


उपर्युक्त पंक्तियों में जायसी वस्तुओं का परस्पर-विरोध देख-दिखा रहे हैं। उनकी दृष्टि सामाजिक विषमता की ओर भी जाती है-


कीन्हेसि कोइ भिखारि कहि धनी। कीन्हेसि संपति बिपति पुन धरनी॥

काहू भोग भुगुति सुख सारा। कहा काहू भूख भवन दुख भारा।


जायसी इन सबको अल्लाह का ही किया हुआ मानते थे|

पद्मावत की कथा चित्तौर के शासक रतनसेन और सिंहल देश की राजकन्या पद्मिनी की प्रेम-कहानी पर आधारित है। इसमें कवि ने कौशलपूर्वक कल्पना एवं ऐतिहासिकता का मिश्रण कर दिया है। इसमें अलाउद्दीन खिलजी द्वारा चित्तौर पर आक्रमण और विजय ऐतिहासिक घटना है। रतनसेन अपनी विहिता पत्नी नागमती को छोड़कर पद्मिनी की खोज में योगी बनकर निकल पड़ता है। पद्मिनी से उसका विवाह होता है। राघवचेतन नामक पंडित पझ्मिनी के रूप की प्रशंसा अलाउद्दीन से करता है। अलाउद्दीन छल से रतनसेन को पकड़कर दिल्ली ले जाता है। गोरा-बादल वीरतापूर्वक रतनसेन को छुड़ा लेते हैं। बाद में रतनसेन एक अन्य राजा देवपाल से लड़ाई में मारा जाता है। पद्मिनी और नागमती राजा के शव को लेकर सती हो जाती हैं। अलाउद्दीन जब चित्तौर पहुँचता है तो उसे उनकी राख मिलती है।


जायसी ने इस प्रेम-कथा को आधिकारिक एवं आनुषंगिक कथाओं के ताने-बाने में बहुत जतन से बाँधा है। पद्मावत आद्यंत 'मानुष-प्रेम' अर्थात् मानवीय प्रेम की महिमा व्यंजित करता है । हीरामन शुक शुरू में कहता है-

मानुस प्रेम भएउँ बैकुंठी। नाहिं त काह छार भरि मूठी।।

रचना के अंत में वह छार भरि मूठी फिर आती है। अलाउद्दीन पद्मिनी के सती होने के बाद चित्तौर पहुँचता है, तो यह राख ही मिलती है-

छार उठाइ लीन्हि एक मूठी। दीन्हि उड़ाइ पिरिथमी झुठी ।।


कवि ने कौशल से यह मार्मिक व्यंजना की है कि जो पद्मिनी रतनसेन के । लिए 'पारस रूप' है, वही अलाउद्दीन जैसों के लिए मुट्ठी भर धूल । मध्यकालीन रोमांचक आख्यानों का कथानक प्रायः बिखर जाता है, कितु पद्मावत का कथानक सुगठित है।


पद्मावत में नगर वर्णन, षड्कतु वर्णन, बारहमासा, नख-शिख वर्णन केल रूढ़िपालन के रूप में नहीं मिलता है। उसमें कवि की कल्पना सहदयता के सहारे मार्मिक एवं करुण दृश्य-विधान खड़ा करती है पद्मावत में प्रकृति का प्रतीकात्मक उपयोग है, किंतु वह अपना स्वत्र व्यक्तित्व भी रखती है। जायसी के नख-शिख वर्णन की विशेषता यह है कि वह मांसल होते हुए भी मनुष्य की पाशविक वृत्तियों को उत्तेजित नहीं करता, बल्कि एक रहस्य और करुणा के लोक में हमें ले जाता है। पद्मावत की नागमती के विरह वर्णन का प्रसंग अत्यंत मार्मिक है। उसकी मार्मिकता का आधार है मध्यकालीन भारतीय नारी की विवशता। एक ओर नारी का विवश और पूर्ण आत्म-समर्पण, दूसरी ओर पुरुष द्वारा उसकी उपेक्षा। मार्मिकता का दूसरा कारण नागमती को लोकसामान्य भाव भूमि पर स्थित करके उसके विरह का चित्रण करना है। वह रानी है, किंतु उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया गया है वह मध्यकालीन सामान्य वर्ग की नारी का रूप है, राजभवन में रहने वाली का नहीं-


पुरव नछत्र सिर ऊपर आवा। हों बिनु नाँह मंदिर को छावा!!

बरिसै मेघा झँकोरी-झँकोरी। मोर दुइ नैन चुवहिं जसि ओरी ।।


प्रतीकात्मकता की बात पहले आ चुकी है। पद्मावत का रचनाकार लोकिक कथा का वर्णन कहीं-कहीं इस प्रकार करता है कि अलौकिक पर परोक्ष-स्ता का अर्थ संकेतित हो जाता है। जैसे मानसरोदक खंड का यह वर्णन-


सरवर तीर पद्मिनी आई। खोंपा छोरि केस मुकलाई । ।

ससिमुख अंग मलयगिरि बासा । नागिन झाँपि लीन्ह चहुँ पासा।।

ओनई घटा परी जग छाँहा। ससि के सरन लीन्ह जनु राहा।॥


प्रथम दो पंक्तियों में रूप-वर्णन है, किंतु तीसरी पंक्ति पद्मिनी के लोकोत्तर। सौंदर्य का आभास देती है। इसी प्रकार बरौनियों का यह वर्णन भी-


उन बानन्ह अस को जो न मारा। बेधि रहा सगरौ संसारा । ।


ऐसे वर्णनों से पद्मावत भरा है।


पद्मिनी परम सत्ता का प्रतीक है, रतनसेन साधक का तथा राघवसेन शैतान का। कथा लौकिक धरातल पर चलने के साथ-साथ लोकोत्तर अर्थ की भूमि पर भी चलती है। इसीलिए पद्मावत को प्रतीकात्मक काव्य कहा जाता है, कितु यह प्रतीकात्मकता सर्वत्र नहीं है और इससे लौकिक कथा-रस में व्याघात नहीं पड़ता ।

पद्मावत में हठयोग, कुंडलिनी योग एवं रसायन-साधना का पर्याप्त प्रभाव है। वैष्णव निरीहता और अहिंसा का भी संदेश है। हिंदू पौराणिक पात्रों का उल्लेख कहीं-कहीं संस्कारी मानसिकता के अनुकूल नहीं है। इस्लाम के एक संप्रदाय की सूफ़ी साधना तो उसकी रचना की प्रेरणा ही है। इस प्रकार पद्मावत मध्यदेश की अनेक धार्मिक साधनाओं का रूप प्रस्तुत करता है।

पद्मावत विशुद्ध अवधी में रचित काव्य है। इसमें रामचरितमानस की भाँति अनेक क्षेत्र की भाषाओं का मेल नहीं। इसीलिए विशुद्ध अवधी का जो सहज और चलता रूप पद्मावत में मिलता है, मानस में नहीं। इसमें तत्सम शब्दों का इस्तेमाल भी बहुत कम या नहीं के बराबर है। जायसी का प्रिय अलंकार हेतूत्प्रेक्षा है, जैसे-

पिउ सो कहहु संदेसड़ा, हे भौरा हे काग ।

सो धनि बिरहे जरि मुई, तेहिक धुआँ हम लाग।


जायसी के अतिशयोक्तिपूर्ण वर्णनों की विशेषता यह है कि वे वस्तु की अतिरंजना नहीं करते, अतिशयोक्तियों द्वारा भाव-सत्य का रूप खींचते हैं। इसीलिए उनकी अतिशयोक्तियाँ भी मार्मिक होती हैं।


मंझन(16 वीं शती)

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मंझन ने 1545 में मधुमालती की रचना की थी। ये जायसी के परवर्ती थे। मधुमालती में नायक को अप्सराएँ उड़ाकर मधुमालती की चित्रसारी में पहुँचा देती हैं और वहीं नायक नायिका को देखता है। इसमें मनोहर और मधुमालती की प्रेम-कथा के समानांतर प्रेमा और ताराचंद की भी प्रेम-कथा चलती है। इसमें प्रेम का बहुत उच्च आदर्श सामने रखा गया है सृफ़ी काव्यों में नायक की प्राय: दो पत्नियाँ होती हैं, किंतु इसमें मनोहर अपने द्वारा उपकृत प्रेमा से बहन का संबंध स्थापित करता है। इसमें जन्म-जन्मांतर के बीच प्रेम की अखंडता प्रकट की गई है। इस दृष्टि से इसमें भारतीय पुनर्जन्मवाद की बात कही गई है। इस्लाम पुनर्जन्म नहीं मानता। लोक के वर्णन द्वारा अलौकिक सत्ता का संकेत सभी सूफ़ी काव्यों के समान इसमें भी पाया जाता है।


इनके अतिरिक्त सूफ़ी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य। इस प्रकार हैं- उस्मान ने 1613 में चित्रावली की रचना की। शेख नवी ने 1619। में ज्ञानद्वीप नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 में हंस जवाहिर रखा। नूर मुहम्मद ने 1744 में इंद्रावती और 1764 में अनुराग बॉसुरी लिखा। अनुराग बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपक बाँधा गया है। इन्दोंसे चौपाइयों के बीच दोहे न रखकर बरवै रखे हैं।