हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/निर्गुण काव्य की अन्य विशेषताएं

इनके अतिरिक्त सूफ़ी काव्य परंपरा के अन्य उल्लेखनीय कवि और काव्य। इस प्रकार हैं- उस्मान ने 1613 में चित्रावली की रचना की। शेख नवी ने 1619। में ज्ञानद्वीप नामक काव्य लिखा। कासिम शाह ने 1731 में हंस जवाहिर रखा। नूर मुहम्मद ने 1744 में इंद्रावती और 1764 में अनुराग बॉसुरी लिखा। अनरा बाँसुरी में शरीर, जीवात्मा और मनोवृत्तियों को लेकर रूपक बाँधा गया है। इन्दोंसे चौपाइयों के बीच दोहे न रखकर बरवै रखे हैं। निर्गुण काव्य की सामान्य विशेषताएँ निर्गुण काव्य की दोनों शाखाएँ निर्गुण मत पर आधारित हैं। ये दोनों परम सत्ता को मानवीय भावना का आलंबन तो मानती हैं, किंतु लीलावाद एवं अवतारवाद पर विश्वास नहीं करतीं। कबीर और सूफ़ी कवि भगवत्प्रेम को मानव-जीवन की सार्थकता मानते हैं। वे निर्गुण को गुणरहित नहीं, गुणातीत मानते हैं और उससे अनेक प्रकार के संबंध जैसे माता, पिता, प्रिय, गुरु आदि का संबंध स्थापित करते हैं। कबीर के यहाँ प्रेम की उत्कटता कम तीव्र नहीं, कितु वे ज्ञान एव अंतस्साधना की उपेक्षा नहीं करते। कबीर के काव्य में निर्गुण मतवाद का विश्वबोध प्रकट है। वे सृष्टि की उत्पत्ति, नाश, जन्म, मृत्यु, मनुष्य की नाड़ियों, चक्रों आदि की बात काफ़ी करते हैं। वे ज्ञान को व्याकुल करने वाला या दाहक मानते हैं। उनके यहाँ ज्ञान की आँधी सब कुछ को अस्त-व्यस्त कर देती है। इसीलिए वे अपने घर को और अपने साथ चलने बालों के घरों को जलाने के बात करते हैं। प्रेम एवं भक्ति पर जोर होने के बावजूद उन्हें ज्ञानाश्रयी धारा का संत कहा जाता है। इस धारा के कवि अधिकांशत: अवर्ण हैं। उन्होंने वर्ण- व्यवस्था की पीड़ा सही थी। अत: उनमें वर्ण-व्यवस्था पर तीव्र आक्रमण करने का भाव है। इस धारा के कवियों पर नाथ-संतों की अंतस्साधना के साथ उनका दुरूह प्रतीक-शैली उलटबाँसी का भी प्रभाव है। इन्होंने गेयपद, दोहा, चौपाई के अतिरिक्त कुछ लोक-प्रचलित छंदों का भी उपयोग किया है। ज्ञानाश्रयी धारा किसी कवि द्वारा रचित कोई प्रबंध-काव्य प्रसिद्ध नहीं है।


प्रेमाश्रयी धारा के कवियों पर इस्लाम के सूफ़ी मत का सबसे अधिक प्रभाव है। सूफ़ी मत का अपना विश्व तत्त्वज्ञान है, किंतु वह सफ़ी कवियां में अलग से दिखलाई नहीं पड़ता। इसका एक कारण यह हो सकता है कि सूफी कवियों ने प्रबंध-काव्य लिखा है और तत्त्वज्ञान का आग्रह कथा-प्रबंधत्व के घुल-मिल गया है या छिप गया है। इसकी विशेषता यह है कि इन्होंने परम-सत्ता में मधुर या दांपत्य भाव ही जोडा है, अन्य भाव नहीं। संसार में उसकी प्रतिछवि है। प्रतिछवि में उसका प्रतीक है। सूफ़ी इस प्रतीक को प्रतीकार्थ का साधन बनाते हैं। यह प्रतीकार्थ परम सत्ता है। इसलिए उनके यहाँ प्रेम और उसमें भी विरह-स्थिति की प्रधानता है। इस मत पर आधारित काव्य में भी प्रेम की उत्कट विरह व्यंजना और प्रतीकात्मकता है। इसीलिए सूफ़ी कवि 'प्रेम की पीर' के या प्रेमाश्रयी धारा के कवि कहे गए हैं। इन कवियों ने प्रबंध-काव्य लिखे हैं। इनकी भाषा अवधी है। ये चौपाई-दोहे में कड़वकबद्ध हैं। एक सूफी काव नूर मुहम्मद ने अनुराग बाँसुरी में दोहे की जगह बरवै का ब्यवहार किया है । इन्होंने प्रायः भारत में लोक-प्रचलित कथाओं को अपने प्रबंध -काव्य का आधार बनाया है। उस कथा को बड़े कौशल से सूफ़ी मत के अनुकूल रूपायित किया है। इनमें भारतीय संस्कृति सुरक्षित ही नहीं, समृद्ध भी हुई है। सूफ़ी कवियों के साहित्य की आत्मा विशुद्ध भारतीय है, यद्यपि इसमें प्रेम और धर्म की विदेशी साधना भी घुल-मिल गई है। प्रबंध-काव्य मसनवी शैली में रचित है, अथात्स र्गबद्ध नहीं है। काव्य को घटनाओं के शीर्षकों में विभाजित किया गया है, किंतु इनका काव्य-रूप मध्यकाल की प्राकृत अपभ्रंश परंपरा के रोमांचक आख्यानों से जुड़ा है। तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना के लिए पद्मावत के ही काव्य-रूपात्मक ढाँचे को चुना।