हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/वीरगाथाकाल के अन्य कवि/अमीर खुसरो (14वीं शती)
अमीर खुसरो इस युग के अत्यंत महत्त्वपूर्ण एवं बहुमुखी प्रतिभा के धनी व्यक्ति हैं। उनके काव्योत्कर्ष का प्रमाण उनकी फ़ारसी रचनाएँ हैं। वे संगीतज्ञ, इतिहासकार, कोशकार, बहुभाषाविद्, सूफ़ी औलिया, कवि-बहुत कुछ थे। उनकी हिंदी रचनाएँ अत्यंत लोकप्रिय रही हैं। उनकी पहेलियाँ, मुकरियाँ, दो सुखने अभी तक लोगों की ज़बान पर हैं। उनके नाम से निम्नलिखित दोहा बहुत प्रसिद्ध है (कहते हैं कि यह दोहा खुसरो ने ख्वाजा निज़ामुद्दीन चिश्ती के देहांत पर कहा था)-
गोरी सोवे सेज पर, मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने, रैन भई चहुँ देस।
किंतु उनकी हिंदी रचनाओं का ऐतिहासिक महत्त्व अधिक है। उनकी भाषा, हिंदी की आधुनिक काव्य-भाषा के रूप में पूर्णतः प्रतिष्ठित होने का संकेत देती है। उनका व्यक्तित्व और उनकी हिंदी इस बात को प्रमाणित करती है काव्य प्रारंभ से ही मध्य देश की मिली-जुली संस्कृति का चित्र रहा है। उन्होंने ऐसी पंक्तियाँ रची हैं, जिनमें फ़ारसी और हिंदी को एक ही ध्वनि प्रवाह में गुंफित कर दिया गया है। यह कला संस्कृति-साधक को ही सिद्ध हो सकती है-
जे हाल मिसकी मकुन तगाफुल दुराय नैना, बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्राँ न दारम ऐ जाँ! न लेहु काहे लगाय छतियाँ ।।
शबाने हिज्राँ दराज चूं जुल्फ़ व रोजे वसलत चूँ उम्र कोतह।
सखी! पिया को जो मैं न देखू तो कैसे काढू अँधेरी रतियाँ ।।*