हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/वीरगाथा काव्य

पं. रामचंद्र शुक्ल ने आदिकाल के तृतीय प्रकरण को 'वीरगाथा काल' कहा है। उनके अनुसार इस नामकरण का आधार यह है, कि इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति वीरगाथात्मक है। शक्ल जी ने इस काल की प्रधान साहित्यिक प्रवृत्ति की पहचान जिन 12 ग्रंथों के आधार पर की है, वे इस प्रकार हैं- विजयपाल रासो, हम्मीर रासो, कीर्तिलता, कीर्तिपताका, खुमान रासो, बीसलदेव रासो, पृथ्वीराज रासो, जयचंद प्रकाश, जयमयंक-जस-चंद्रिका, परमाल रासो, खुसरो की पहेलियाँ और विद्यापति पदावली।


इनमें से विद्यापति की रचनाएँ (14वीं, 15वीं शताब्दी) अर्थात् कीर्तिलता, कीर्तिपताका, पदावली और नरपति नाल्ह द्वारा रचित बीसलदेव रासो प्रामाणिक रूप में उपलब्ध हैं। कीर्तिपताका अभी तक संपादित होकर प्रकाशित नहीं हई है। बीसलदेव रासो का पाठ डॉ. माताप्रसाद गुप्त द्वारा संपादित प्रकाशित है। कुछ लोग इसे तेरहवीं शती की रचना मानते हैं, तो कुछ लोग सोलहवीं-सत्रहवीं शती की। जगनिक कृत परमाल रासो 'आल्हा' के रूप में ही पहचाना जाता है। आल्हा लोकगान है, अत: यह विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न रूपों में गाया जाता है। जगनिक संभवतः परमाल और पृथ्वीराज के समकालीन (12वीं शती के) थे। विजयपाल रासो के रचयिता का नाम नल्लसिंह है। इसमें जो लड़ाई विजयपाल न पंग राजासे की थी, उसका वर्णन है। मिश्र बंधुओं ने इसका रचनाकाल चौदहवीं शती ही माना है। भाषा-शैली पर विचार करने से यह रचना परवर्ती लगती है। हम्मीर रासो, जयचंद प्रकाश और जयमयंक-जस-चंद्रिका उपलब्ध नहीं है। हम्मीर विषयक एक पद्य प्राकृत पैंगलम् में मिलता है, जिसके बारे में पं. रामचंद्र शुक्ल का विश्वास है कि वह हम्मीर रासो का ही है। खुमान रासो के रचयिता दलपति विजय हैं। इसमें नौवीं शताब्दी के खुमान के युद्ध का वर्णन है। लेकिन मेवाड़ के परवर्ती शासकों जैसे महाराणा प्रताप सिंह और राजसिंह का भी वर्णन है। इससे प्रकट होता है कि यह रचना सत्रहवीं शती के आसपास की है।

पृथ्वीराज रासो आदिकाल का सर्वाधिक प्रसिद्ध काव्य है। इस काव्य का रचनाकाल और इसका मूलरूप सर्वाधिक विवादास्पद है। इसके रचयिता चंदबरदायी पृथ्वीराज चौहान के अंतरंग बताए जाते हैं। प्राच्य विद्या के यूरोपीय पंडितों ने इस ग्रंथ से मध्यकालीन इतिहास पर पर्याप्त प्रकाश डालने की आशा बाँध रखी थी। इसलिए डॉ. बूलर को जब यह पता चला कि रासो की तिथियाँ, व्यक्तियों के नाम, घटनाएँ आदि इतिहास-सम्मत नहीं हैं, तो उन्होंने तत्काल इस ग्रंथ को न प्रकाशित करने की सिफ़ारिश की। इसकी प्रामाणिकता पर संदेह करने वाले विद्वानों में गौरीशंकर हीराचंद ओझा, रामचंद्र शुक्ल आदि भी हैं। बाबू श्यामसुंदर दास और मोहनलाल विष्णुलाल पांड्या इसे प्रामाणिक माननेवालों में हैं।


महामहोपाध्याय गौरीशंकर ओझा के अनुसार, पृथ्वीराज रासो 1600 वि. सं. के आसपास लिखा गया। इसकी ऐतिहासिकता की खोज अब बंद कर दी गई है। इधर हाल में मुनि जिन विजय ने पुरातन प्रबंध संग्रह के एक अंश जयचंद प्रबंध के चार छप्पयों की ओर ध्यान आकृष्ट कराया, जो वर्तमान रासो में भी मिलते हैं। पुरातन प्रबंध संग्रह का संकलन काल संभवत: पंद्रहवीं शती है। इससे यह तो प्रकट हो गया कि पंद्रहवी शती के पूर्व 'चंद्र' नामक कवि ने पृथ्वीराज पर कोई काव्य लिखा था, जिसके कुछ अंश वर्तमान रासो में हैं, किंतु रासो का मूल रूप क्या रहा होगा यह समस्या अभी भी बनी हुई है। पं. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने अनुमान किया है कि चंद्र ने रासो का रचना शुक-शुकी संवाद के रूप में की थी। मध्यकालीन प्रबंध-काव्य का यह बहुप्रयुक्त रूढ़ि है। रासो के जो अंशक-शकी संवाद के रूप में मिलते है, व ही मूलरूप हैं। डॉ. माताप्रसाद गुप्त ने रासो के चार पाठों-वृहत्तम, वृहत, लघु तथा लघुतम में से लघुतम पाठ को रासो का मूलरूप बताया है। रासो में मध्यकालीन साहित्य में प्रयुक्त अनेक कथानक-रूढ़ियों और काव्य-रूढ़ियों का प्रयोग किया गया है। इसमें अनेक छंदों का प्रयोग मिलता है। पृथ्वीराज रासो रासो काव्य-परंपरा का काव्य तो है ही, इसमें चरितकाव्य, आख्यायिका आदि के भी लक्षण मिलते हैं।

रासो में पृथ्वीराज के विभिन्न युद्धों और विवाहों का वर्णन है। वीर और शृंगार रासो के प्रमुख रस हैं, यद्यपि इसका अंगीरस वीर ही माना जाएगा। रासो में नायिका का नख-शिख वर्णन, सेना के प्रयाण, युद्ध, षड्ऋतुओं आदि का सुंदर वर्णन है। चंदबरदाई अनेक मन:स्थितियों का संश्लिष्ट चित्र खींचने में सिद्ध हैं। यद्यपि वे विभिन्न छंदों के प्रयोग में कुशल हैं, किंतु छप्पय उनका अपना छंद है।


रासो के एक खंड 'कैमास बध' का छप्पय इस प्रकार है-

एकु वान पुहवी नरेस कयमासह मुक्कउ।

उर उपरि परहरिउ वीर कष्षतर चुक्कउ।।

बीउ बान संधानि हनउ सोमेसुरनंदन।

गाडउ करि निग्गहउ पनिव षोदउ संभरि धनि ।

थर छडि न जाइ अभागरउ गारइ गहउ जुगुन परउ।

इम जंपइ चंद विरदिया सु कहा निमिट्टिइ इह प्रलउ।।*


बीसलदेव रासो: बीसलदेव रासो के रचयिता का नाम नरपति नाल्ह है। पाठ के अनुसार ग्रंथ की रचना संवत् 1212 अर्थात् 1155 में हुई थी। किंतु श्री मोतीलाल मेनारिया के अनुसार, इसकी रचना सोलहवीं शताब्दी में हुई होगी। बीसलदेव रासो में शाकंभरी नरेश बीसलदेव और भोज परमार की पुत्री राजमती के विवाह, वियोग और पुनर्मिलन का वर्णन है। यह प्रधानतः शृंगारी काव्य है। बीसलदेव रासो में हिंदी काव्य में प्रयुक्त होने वाले 'बारहमासा' का वर्णन सबसे पहले मिलता है।