बौद्ध धर्म कालांतर मैं तंत्र-मंत्र की साधना में बदल गया था। वज्रयान इसी प्रकार की साधना था। महापंडित राहुल सांकृत्यायन के अनुसार-"बौद्ध धर्म अपने हीनयान और महायान के विकास को चरम सीमा तक पहुंचाकर अब एक नई दिशा लेने की तैयारी कर रहा था, जब उसे मंत्रयान, वज्रयान या सहजयान की संज्ञा मिलने वाली थी।" सिद्धों का संबंध इस वज्रयान से था। उनकी संख्या 84 बताई जाती है। प्रथम सिद्ध 'सरहपा' (8वीं शताब्दी) सहज जीवन पर बहुत अधिक बल देते थे। इन्हें ही सहजयान का प्रवर्तक कहा जाता है। सिद्धू ने नैरात्म्य भावना, कायायोग, सहज, शून्य कथा समाधि की भिन्न-भिन्न अवस्थाओं का वर्णन किया है। इन्होंने वर्णाश्रम व्यवस्था पर तीव्र प्रहार किया है। इन्होंने संधा भाषा-शैली में रचनाएं की हैं। संधा भाषा स्तुतः अंतस्साधनात्मक अनुभूतियों का संकेत करनेवाली प्रतीक भाषा है। इसीलिए प्रतिकार्थ खोलने पर ही यह समझ में आती है। इस भाषा शैली का उपयोग नाथों ने भी किया है। कबीर आदि निर्गुण संतों कि इसी भाषा शैली को 'उलटबाँसी' कहा जाता है। बच्चे देश के पूर्वी भाग में ही सिद्धू के होने का पता चलता है। उनकी भाषा में थी उन्हीं क्षेत्रों के तत्कालीन रूप मिलते हैं