हिंदी साहित्य का सरल इतिहास/हिंदी भक्ति काव्य की विशेषताएं
भक्ति का शास्त्र यद्यपि दक्षिण में बना, तथापि उसका पूर्ण उत्कर्ष उत्तर में हुआ। भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। भारत की सभी भाषाओं और साहित्य पर भक्ति आंदोलन का प्रभाव है। लोक-साहित्य पर भी इसका प्रभाव कम नहीं। फलत: यह 'शास्त्र की उपेक्षा' करनेवाला लोकोन्सुख आंदोलन था इसीलिए यह लोक जीवन में इतना रस संचित कर सका। हिंदी भक्त कवियों ने आध्यात्मिक साधना की ही बात नहीं की, उन्होंने सामंतवादी युग में सामंतवादी व्यवस्था की अमानवीयता की आलोचना भी की तथा यथासंभव हर प्रकार की पीड़ा और हिंसा का विरोध भी किया। सांसारिक अन्यायी शक्ति को परम सत्ता या अलौकिक शास्त्र संपन्न सगुण रूप को सामने रखकर उसे तुच्छ दिखाया। इसलिए यह उल्लास और जीवन का साहित्य है।
भक्ति आंदोलन अखिल भारतीय था। अतः उसने भारत की सांस्कृतिक एकता को पुष्ट किया। इसके कारण पूरे भारत में एक प्रकार की साधना की लहर जन-मानस में दौड़ी। इसके साथ हिंदी भक्ति आंदोलन और साहित्य की कुछ निजी विशेषताएँ भी हैं। हिंदी साहित्य में भक्तिकाल दीर्घ व्यापी, लगभग तीन शताब्दियों तर्क प्रभावी रहा। शायद ही किसी अन्य भारतीय भाषा में इतनी संख्या में श्रेष्ठ कवि-कबीर, जायसी, सूर, तुलसी, मीरा आदि जैसे हुए हों। फिर हिंदी भक्ति साहित्य में मुसलमान कवियों का योगदान भी अन्यत्र नहीं मिलता। सगुण भक्ति साहित्य में अन्यत्र कहीं रसखान, रहीम आदि जैसे कवि हैं, यह भी संदिग्ध है। प्रबंधकार सूफ़ी कवि भी अन्य भाषा-साहित्य में शायद ही मिलें। इसका कारण यह है कि इस्लामी संस्कृति का प्रभाव सबसे पहले उत्तर भारत में हुआ। उसकी पहली टक्कर यहीं हुई, इसलिए साधनाओं का समन्वय भी यहाँ अधिक दिखलाई पड़ा।
इसीलिए हिंदी के साहित्य में एक व्यापक मानवीय संवेदना के साथ-साथ व्यवस्थाओं को चुनौती देने का एक स्वर भी है।