हिंदी सिनेमा एक अध्ययन/हिंदी सिनेमा का उद्भव और विकास

भारतीय सिनेमा के इतिहास का विहंगावलोकन विश्व सिनेमा की जैसी व्यापकता है वैसे ही भारतीय सिनेमा जगत् भी व्यापक और विस्तृत है। आशियाई देशों में बहुत बड़ा और ताकतवर देश के नाते भारत की पहचान बनती गई। इस पहचान के बनते-बनते भारत विज्ञान, कृषि, उ‌द्योग आदि क्षेत्रों में उठता गया। कलकत्ता, मुंबई, दिल्ली, मद्रास जैसे बड़े शहर और विकसित होते गए और इन शहरों में भारतीय जनमानस के लिए रोजगार के कई नवीन मार्ग खुलने लगे। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के कई केंद्र बनते गए और उसमें मुंबई हॉलीवुड़ की धरातल पर बॉलीवुड़ के नाते उभरता गया। अन्य राज्यों के प्रमुख शहरों में भी फिल्म इंडस्ट्री का विकास हुआ था परंतु वे शहर अपने राज्य की भाषा में बनती फिल्मों के विकास में जुटते गए और इधर मुंबई के भौगोलिक परिदृश्य और भारत की आर्थिक राजधानी के पहचान बनने के कारण भारतीय फिल्म इंडस्ट्री को मुंबई से ही पहचान मिलने लगी। न केवल हिंदी और मराठी तो अन्य भाषाओं को भी भारतीय मंच पर प्रदर्शित करने का केंद्र मुंबई बनता गया। आज आधुनिक तकनीक और ऑड़ियो रूपांतरण के कारण क्षेत्रीय भाषाओं के कलाकारों और तकनीशियनों के लिए बॉलीवुड़ के दरवाजे खुल चुके हैं। तकनीक के चलते देशीय और क्षेत्रीय सीमाएं धुंधली पड़ती गई। जैसे भारत में फिल्म इंडस्ट्री ने भाषाई सीमाओं को तार-तार किया वैसे ही वैश्विक स्तर पर देशीय सीमाएं तार-तार हो गई और भारत के किसी भी भाषा में काम करनेवाले व्यक्ति के लिए विश्व सिनेमा के दरवाजे खुलते गए। वैसे ही विश्व सिनेमा भी भारतीय सिनेमा के तेजी से बढ़ते कदमों से चकित हुआ। यहां तक कि विश्व सिनेमा के मंच पर धूम मचानेवाले कलाकारों के मन में भारतीय फिल्मों में काम करने की इच्छा पैदा होने लगी। www.thesaarc.com


1. भारतीय सिनेमा का आरंभ

भारत में सिनेमा संयोगवश आया है। (हिंदी सिनेमा दुनिया से अलग दुनिया, पृ. 15) लिमिएर बंधुओं का ऑस्ट्रेलिया जाने से पहले मुंबई आना और 7 जुलाई, 1896 में उसका संयोगवश प्रदर्शन करना भारतीय सिनेमा की पहल माना जा सकता है। इस प्रदर्शनी के पहले शो के लिए मुंबई के प्रसिद्ध छायाचित्रकार हरिशचंद सखाराम भाटवड़ेकर भी शामिल हो गए थे। उनके मन में भी इस बात ने घर बना लिया कि लिमिएर बंधुओं द्वारा निर्मित सिनेमेटोग्राफ अगर मिल जाए तो हम भी ऐसी फिल्में बना सकते हैं। उन्होंने यह केवल सोचा नहीं तो इसे एन्य में उतारने के लिए विमिपर बंधों से संपर्क स्थापित कर सिनेमेटोग्राफ का मशीन भी मंगा लिया। हरिशचंद सखाराम भाटवड़ेकर मुंबई में 1980 से स्टूड़ियो का संचालन कर रहे थे और इससे जुड़ा प्राथमिक तकनीकी ज्ञान और दृष्टि उनके पास पहले से मौजूद थी। लिमिएर बंधुओं के यंत्र का आधार लेकर उन्होंने मुंबई के हॅगिंग गार्डन में कुश्ती का आयोजन कर लघु फिल्म का निर्माण किया। उन्होंने दूसरी फिल्म सर्कस के बंदरों को ट्रेनिंग करवाते बनाई और दोनों फिल्मों को एक साथ 1899 में प्रदर्शित। आगे चलकर 'राजा हरिश्चंद्र' के बहाने कहानी के स्वरूपवाली पहली फिल्म भारतीय सिनेमा जगत् को मिल गई जो आरंभिक झंडा गाड़ने में सफल हो पाई। धुंडिराज गोविंद फालके (दादासाहब फालके) मुंबई में प्रिटिंग प्रेस का भागीदारी में व्यवसाय शुरू कर चुके थे और सन् 1911 के क्रिसमस के दौरान उन्होंने 'लाईफ ऑफ क्राइस्ट' फिल्म को देखा। इस फिल्म को देखने के बाद वे रात भर सो नहीं पाए और दूसरे दिन अपनी पत्नी के साथ दुबारा फिल्म देखने गए। पत्नी और मित्रों के साथ चर्चा करके उन्होंने फिल्म बनाने की बात को मन में ठाना और उसकी प्राथमिक जानकारी हासिल करने और सामग्री प्राप्त करने के लिए लंडन गए। वापसी के बाद 'राजा हरिश्चंद्र' की पटकथा को लिखा 1912 में इस फिल्म का शूटिंग आरंभ हुआ। 21 अप्रैल, 1913 में मुंबई के ऑलंपिया सिनेमा हॉल में इसका प्रदर्शन हुआ। दादासाहब फालके और उनकी पत्नी सरस्वती का भारतीय सिनेमा के लिए बहुत बड़ा योगदान है। जिस तमस्या और लगन से इन दोनों ने सिनेमा के लिए अपने आपको समर्पित किया वह प्रशंसनीय है।


इस बीच 'पीठाचे पंजे' दूसरी फिल्म वे बना चुके थे। इनके प्रभाव और सफलता से प्रेरित होकर उन्होंने 1917 में 'लंका दहन' फिल्म का निर्माण किया। इस फिल्म के प्रदर्शन से दादासाहब फालके को बहुत आर्थिक लाभ हुआ। सिक्कों को बोरों में भरकर बैलगाड़ी पर लादकर ले जाना पड़ा। इन आर्थिक सफलताओं के चलते मुंबई में अन्य लोग भी फिल्में बनाने को लेकर सजग हो गए। कला महर्षि बाबूराव पेंटर, आर्देशिर ईरानी जैसे निर्माता भी इसी काल में अपने पैर जमाने में सफल हो चुके थे। दादासाहब ने अपने जीवन में 20 कथा फिल्में और 180 लघु फिल्मों का निर्माण किया। उनकी बोलती फिल्म वेबल 'गंगावतरण' (1937) रही। बाबूराव पेंटर ने पहली फिल्म 'सीता स्वयंवर' (1918) बनाकर फिल्मी दुनिया में कदम रखे। आगे 'सैरंधी (1920) से उन्हें काफी प्रसिद्धी मिली। बाबूराव पेंटर ने फिल्मी तकनीक को कॅमरा, इनडोअर शूटिंग, जनरेटर, रिफ्लेक्टर्स आदि से आधुनिक करते हुए जनमानस के सामने रखा। वी. शांताराम की खोज भी बाबूराव पेंटर की ही मानी गई। इस दौरान विश्व सिनेमा में सवाक फिल्मों का दौर शुरू हुआ था और अन्य भारतीय फिल्म निर्माता भी आर्देशिर ईरानी की इस पहल से आगे और सफलता की सीढ़ियों पर चढ़ते गए।


2. सवाक भारतीय सिनेमा

1930 के आस-पास विश्व सिनेमा जगत् में फिल्मों के साथ ध्वनि को जोड़ने की तकनीक विकसित हो गई थी। फिल्मों के साथ आवाज का जुड़ना उसको. जीवंत बनाने की और एक पहल साबित हो गया। 'आलम आरा' (1931) भारतीय सिनेमा जगत् की पहली सवाक फिल्म साबित हो गई जिसे आर्देशिर ईरानी ने बनाया था। पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' (1931) का पोस्टर 'आलम आरा' फिल्म के प्रदर्शित होते ही भारत के अन्य हिस्सों में भी सिनेमा को लेकर पहल होना शुरू हुई थी। चेन्नई (मद्रास) और कोलकता (कलकत्ता) यह दो बड़े शहर है जो फिल्म निर्माण के क्षेत्र में उतरे। आगे चलकर एक दक्षिणी फिल्मों का और एक पूर्वी फिल्मों गढ़ भी बना। पहली सवाक फिल्म 'आलम आरा' का लेखन नाटककार जोसेफ डेविड ने किया, नायक मास्टर विठ्ठल थे, नायिका जुबेदा थी। इस फिल्म में पृथ्वीराज भी थे। 'दे दे खुदा के नाम पे प्यारे, ताकत है गर देने की' यह पहला बोलते सिनेमा का गीत भी इसी फिल्म से फिल्माया गया। इस फिल्म के अलावा आर्देशिर ईरानी ने 'वीर अभिमन्यू' (1917), 'वीर दुर्गादास', 'रजिया सुल्तान' आदि फिल्में भी बनाई। आर्देशिर ईरानी द्वारा बनाई 'नूरजहां' (1934) यह फिल्म हिंदुस्तानी और अंग्रेजी में बनाई गई थी। इन भाषाओं के अलावा बर्मी, पस्तो, फारसी आदि भाषाओं के अलावा अन्य नौ भाषाओं में फिल्म निर्माण का कार्य आर्देशिर ईरानी ने किया। सन् 1937 में बनाई 'किसान कन्या' पहली भारतीय रंगीन फिल्म थी। आर्देशिर ईरानी ने अपने जिंदगी में 158 फिल्मों का निर्माण किया और भारतीय फिल्म उ‌द्योग ने इन्हें 1956 को सवाक फिल्मों का जनक के नाते नवाजा। सवाक भारतीय फिल्मा क आराभक दार म निमाता, निदशक, सगातकार, नायक, नायिका, तकनीशियन, कॅमरामन, लेखक तथा अन्य छोटे-बड़े कलाकर निश्चित मासिक वेतन पर काम करते थे। लेकिन यह आरंभिक दौर जैसे ही आगे बढ़ा फिल्मों में अन्य कई लोगों की राचि बढ़ने लगी और स्वतंत्र निर्माण करने लगे। स्वतंत्र निर्माताओं ने स्टूडियो को किराए पर लेना शुरू किया वैसे ही कलाकारों और अन्य लोगों को भी ठेके पर लिया जाने लगा। इस युग में वी. शांताराम 'दुनिया ना माने', 'डॉ. कोटनीस की 'अमर कहानी, फ्रेंज ओस्टन की 'अछूत कन्या', दामले और फतेहलाल की 'संत तुकाराम', महबूब खान की 'वतन', 'एक ही रास्ता', 'औरत', 'रोटी', अर्देशिर ईरानी की 'किसान कन्या,' चेतन आनंद की 'नीचा नगर', उदयशंकर की 'कल्पना', ख्वाजा अहमद अब्बास की 'धरती के लाल' सोहराब मोदी की 'सिकंदर', 'पुकार', 'पृथ्वी वल्लभ', जे. बी. एच. वाडिया की 'कोर्ट डांसर', एस. एस. वासन की 'चंद्रलेखा', विजय भट्ट की 'भरत मिलाप', 'राम राज्य', राजकपूर की 'बरसात', 'आग' जैसी फिल्में काफी लोकप्रिय हो गई और सिनेमा के इतिहास में मिल के पत्थर साबित हो गई।


3. भारतीय भाषाओं की पहली फिल्में

मुंबई में फूलते-फलते भारतीय सिनेमा की सफलता के देखा-देखी पूरे भारतभर की अन्यभाषाएं भी आंदोलित हो रही थी। कई भाषाओं में उपलब्ध भरपूर साहित्य की बदौलत फिल्म इंडस्ट्री के कच्चे माल की विपुलता थी। उसे केवल सिनेमाई फॉर्म में ढालने की आवश्यकता थी। सिनेमा की प्रस्तुति और तेजी से होते तकनीकी विकास के कारण फिल्में दिनों-दिन असरदार बनती जा रही थी और भारत की आबादी भी दिनों-दिन बढ़ती जा रही थी। आज तो ऐसी स्थिति है कि भारत की अबाध गति से बढ़ती अमापनीय आबादी के चलते साधारण फिल्में भी करोड़ों का व्यापार करती है और बॉक्स ऑफिस पर हिट होती है। आरंभिक दौर का सिनेमा मांग और रुचि के हिसाब से कई भाषाओं में एक साथ सफल फिल्में निर्माण करने के लिए लालायित हुआ और वैसी फिल्मों का निर्माण भी किया। स्टूड़ियो का किराए पर मिलना इस इंडस्ट्री के हक में गया और सिनेमा का क्षेत्र चारों तरफ से खुलते गया। कई पूंजीपति, उ‌द्योजक, इस क्षेत्र से जुडे अन्य लोग और रुचि रखनेवाला प्रत्येक इंसान इससे जुड़ता गया। मुंबई और चेन्नई (मद्रास) में बननेवाली फिल्मों से प्रेरणा पाकर देश की प्रमुख भाषाओं में फिल्में बनना आरंभ हुआ। विविध भाषाओं में बनी फिल्मों का यहां पर केवल नामोल्लेख कर रहे हैं जिसका मूल स्रोत विकिपिडिया है।


4. भारतीय सिनेमा के जनक का योगदान

पिछले विवरण के भीतर भारतीय सिनेमा के जनक के नाते दादासाहब फालके के नाम का जिक्र हो चुका है और उनकी पहली फिल्म और भारतीय सिनेमा जगत् की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) को लेकर भी कुछ बातों पर प्रकाश डाला है। यहां पर उनके योगदान पर संक्षिप्त दृष्टि डालना जरूरी है उसका कारण यह है कि आज भारतीय सिनेमा जिनकी पहल का परिणाम है वह जिन हालातों से गुजरा, उसने जो योगदान दिया उसका ऋणी है। सिनेमा को लेकर उनके जीवन से जुड़ी कुछ बातों का संक्षिप्त परिचय होना सिनेमा के पाठक को जरूरी है। दादासाहब फालके जी की कदमों पर कदम रखकर आगे भारतीय सिनेमा बढ़ा और करोडों की छलांगे भरने लगा है। अमीर खान, सलमान खान, शाहरूख खान के बीच चलती नंबर वन की लड़ाई या इनके साथ तमाम अभिनेता और निर्माताओं की झोली में समानेवाले करोडों के रुपयों में से प्रत्येक रुपैया दादासाहब जैसे कई सिनेमाई फकिरों का योगदान है। अतः तमाम चर्चाओं, विवादों, प्रशंसाओं, गॉसिपों के चलते इस इंडस्ट्री के प्रत्येक सदस्य को सामाजिक दायित्व के साथ सिनेमाई दायित्व के प्रति भी सजग होना चाहिए। अगले एक मुद्दे में सौ करोड़ी क्लब पर प्रकाश डाला है, परंतु इससे यह साबित होता नहीं कि वह फिल्म भारतीय सिनेमा का मानक हो। फिल्म इंडस्ट्री में काम करनेवाला प्रत्येक सदस्य याद रखें कि हमारे जाने के बाद हमने कौनसे कदम ऐसे उठाए हैं, जिसकी आहट लंबे समय तक सुनाई देगी और छाप बनी है।

भारतीय सिनेमा के जनक दादासहाब फालके का पूरा नाम धुंडिराज गोविंद फालके है। उनका जन्म 30 अप्रैल, 1870 में नासिक (महाराष्ट्र) के पास त्र्यंबकेश्वर गांव के एक ब्राह्मण परिवार में हुआ था। आरंभिक शिक्षा अपने घर में ही हुई और आगे चलकर उनका प्रवेश मुंबई के जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टस् में हुआ। वहां उन्हें छात्रवृति भी मिली और उससे उन्होंने कैमरा खरीदा। जे. जे. स्कूल ऑफ आर्टस् से शिक्षित दादासाहब प्रशिक्षित सृजनशील कलाकार थे। इस तरह प्रशिक्षित और सृजनशील होना उनके लिए सिनेमा बनाते वक्त अत्यंत लाभकारी हुआ। वे मंच के अनुभवी अभिनेता थे, नए प्रयोगों के शौकिन थे और न केवल शौकिन उसको सत्य में उतारने की कोशिश भी जी-जान से करते थे। आगे चलकर उन्होंने कला भवन बडौदा से फोटोग्राफी का पाठ्यक्रम भी पूरा किया। फोटो कैमिकल प्रिटिंग में उन्होंने कई प्रयोग भी किए, जिस साझेदार के साथ जुड़कर प्रिटिंग प्रेस में उतरे थे इसी दौरान उन्होंने मुंबई में 'क्राइस्ट ऑफ लाईफ' (ईसामसीहा की जिंदगी) फिल्म देखी और इस फिल्म ने उनके आहत स्थितियों को मानो चावी दी।

 दादासाहब फालके (सन् 1870 से 1944)  दादासहब फालके जी के व्यापारी दोस्त नाडकर्णी ने व्यापारी व्याजदर से पैसे देने की पेशकश की और उससे पैसे उठाकर, जहाज में बैठकर फरवरी 1912 में लंदन रवाना हो गए। उनका यह साहस अन्यों के लिए अंधेरे में तीर चलाने जैसा था, परंतु शायद फालके जी ने मन ने ठान ही लिया था कि इस जादू में अपने आपको निपुण बनाना ही है। लंडन में उनका किसी से परिचय नहीं था। केवल 'बायस्कोप' पत्रिका को और उसके संपादक को इसीलिए जानते थे कि यह पत्रिका वे नियमित मंगाकर पढ़ा करते थे। लंदन में दादासाहब 'बायस्कोप' पत्रिका के संपादक कॅबोर्ग को मिले और वह इंसान भी दिल से अच्छा निकला और दादासाहब का उत्साह दुगुना हो गया। कैबोर्ग उन्हें विभिन्न स्टूडियो, सिनेमा के विभिन्न उपकरणों और कैमिकल्स की दुकानों पर लेकर गए। सिनेमा निर्माण के लिए आवश्यक सामान दादासाहब ने खरीदा और वे 1 अप्रैल, 1912 में मुंबई वापस लौटे। सारी दुनिया में संघर्ष करके अपने मकाम पर पहुंचनेवाला प्रत्येक इंसान दादासाहब के 1912 में किए इस साहस, संघर्ष, आवाहन और कठिनाइयों की कल्पना कर सकता है। वापसी के बाद 'राजा हरिश्चंद्र' की पटकथा तैयार हो गई और तमाम कलाकार मिले परंतु महारानी ताराराणी की भूमिका के लिए कोई महिला तैयार नहीं हो पाई। बॉलीवुड और दुनिया के अन्य सिनेमाओं में अभिनय के मौके की तलाश करती कतार में खड़ी लड़कियों को देखकर आज दादासाहब को महिला अभिनेत्री खोजने पर भी नहीं मिली इससे आश्चर्य होता है। दादासाहब वेश्याओं के बाजार और कोठों पर भी गए और हाथ जोड़कर महाराणी तारामती के भूमिका के लिए नम्र निवेदन किया। (इस दौर में दादासाहब फालके के वरिष्ठ दोस्त चित्रकार राजा रविवर्मा के जीवन से जुड़े प्रसंग की याद आ रही है, उनके देवी- देवताओं के चित्रों की और अन्य चित्रों की प्रेरणा, चेहरा, नायिका की। उस प्रेरणा ने राजा रविवर्मा के विरोध में देवताओं के ठेकेदारों से चलाए मुकदमें के दौरान कहे वाक्य की याद देती है, वकील और उच्चभू समाज की ओर मुखातिब होकर वह कहती है कि 'इस आदमी ने एक मुझ जैसी औरत को देवी बनाया और आप जैसों ने उसे वेश्या!' शायद दादासाहब के हाथों से किसी स्त्री को सिनेमाई दुनिया के ताज पहनने की ताकत का अंदाजा उस समय तक नहीं आया था।) वेश्याओं ने दादासाहब की बात को हवा में उड़ाते हुए बड़ी बेरुखाई से जवाब दिया कि "उनका पेशा फिल्मों में काम करनेवाली बाई से ज्यादा बेहतर है।' रास्ते में सड़क किनारे एक ढाबे पर दादासाहब रुके और चाय का ऑर्डर दिया। वेटर चाय का गिलास लेकर आया, दादा ने देखा कि उसकी उंगलियां बड़ी नाजुक है और चाल-ढाल में थोड़ा जनानापन है। उसने दादा के तारामती के प्रस्ताव को मान लिया। इस तरह भारत की पहली फिल्म 'राजा हरिश्चंद्र' की नायिका कोई महिला न होकर पुरुष थी। उसका नाम था अण्णा सालुंके" (हिंदी सिनेमा दुनिया से अलग दुनिया, पृ. 17)  मुंबई के दादर में पहली फिल्म का शूटिंग शुरू हुआ। सूरज की रोशनी में दिन को भूटिंग और रात में उसी जगह पर पूरी यूनिट के लिए खाना बनता था। सरस्वती देवी के साथ मिलकर सारी टिम खाना बनाने में योगदान करती थी। किचन और खाना खत्म होने के बाद दादासाहब और उनकी पत्नी सरस्वती देवी फिल्म की डेवलपिंग-प्रिटिंग का काम करते थे। अप्रैल 1913 में फिल्म पूरी हो गई और 21 अप्रैल, 1913 को मुंबई के ऑलंपिया थिएटर में चुनिंदा लोगों के लिए पहले शो का आयोजन किया। चुनिंदा दर्शकों ने इस फिल्म को पश्चिमी सिनेमा के तर्ज पर देखा और पेसवालों ने भी इसकी उपेक्षा की। परंतु दादासाहब इन आलोचनाओं के बावजूद अपनी निर्मिति से उत्साहित थे, आश्वस्त थे और उनको यह भी भराँसा था कि आम जनता और दर्शक इस फिल्म को सर पर बिठाएंगे। आगे 3 मई, 1913 कॉरोनेशन सिनेमा थिएटर में जब इसे आम जनता के लिए प्रदर्शित किया तो उसने दादासाहब के भराँसे को सच साबित किया।     देविका रानी और अशोक कुमार 'अछूत कन्या' (1936)  पहला 'दादासाहब फालके पुरस्कार बाँ वे टॉकिज की मालकिन और फिल्म अभिनेत्री देवीका रानी को दिया गया। अर्थात् भारत सरकार की पहल से भारतीय सिनेमा के जनक को दुबारा पहचान मिली और भारतीय सिनेमा के नवीन सितारे अपने पुरखों के प्रति, इतिहास के प्रति, जिम्मेदारी और कलाकारिता के पति सजग भी हो गए। 


5. धार्मिक, सामाजिक और ऐतिहासिक पृष्ठभूमि की फिल्में

मराठी सिनेमा जगत् की पहली फिल्म 'पुंडलिक' (1912) निर्माता आर. जी. तोरणे और एन. जी. चित्रे द्वारा बनाई गई जो धार्मिक पृष्ठभूमि से प्रेरणा पाकर बनी थी। सालभर बाद हिंदी सिनेमा जगत् और भारतीय सिनेमा का परिदृश्य लेकर निर्माता दादासाहब फालके द्वारा बनी 'राजा हरिश्चंद्र' (1913) का विषय भी धार्मिक ही रहा। आरंभिक दौर में मुख्यतः धार्मिक विषयों को लेकर ही फिल्में बनती गई। उसका कारण आम जनता का सीमित विषय ज्ञान था। निर्माताओं के सामने विषय को लेकर विकल्प नहीं थे और जनता जिस विषय की जानकारी रखती थी वह विषय धर्म और इतिहास के भीतर के पात्रों को लेकर ही थे। फिल्में अगर दर्शकों के लिए बनानी है तो उनके रुचि और दायरे के विषयवाली हो तो ही सार्थकता बनती है, इस बात को निर्माता जानते थे, अतः दर्शकों के दायरे में रहकर ही कथा-विषय उठाए गए। पौराणिक मूल कथाओं को बनाए रखते दर्शकों तक पहुंचाना जरूरी था। दर्शकों ने इन फिल्मों को स्वीकारा, पसंद किया और बार-बार देखा तो निर्माताओं का भी ऐसी फिल्में बनाने का साहस बढ़ता गया। आरंभिक दौर के बाद ऐतिहासिक विषयों को उठाते हुए सिंकदर-ए-आजम बैज-बावरा झांसी की रानी', 'पृथ्वी-वल्लभ', 'पुकार' जैसी फिल्में बनी। ऐतिहासिक विषयों के लिए कई विकल्प थे और उसके माध्यम से भारत के आजादी को हवा दे दी जा सकती थी। अंग्रेजों की कड़ी नजर और शासन के दबाव के तहत ऐसी फिल्में नहीं बनी और बाद में बनना शुरू हो गया तब अंग्रेजों के हाथों से भारतीय जनमानस की पकड पूरी तरह से छट चुकी थी। चारों तरफ असंतोष का माहौल था और आंखों के सामने दूसरा महायुद्ध तांडव कर रहा था तो इन फिल्मो पर नजर रखने का समय उन्हें नहीं मिला।


6. समकालीन समाज के निकट

भारतीय सिनेमा पश्चिम की उपज था और उस पर पश्चिमी प्रभाव भी रहा है। तकनीक, विषय चयन, पस्तुति, विचारधाराएं, मनोरंजनात्मकता, उद्‌द्देश्यात्मकता... आदि मायनों में यह प्रभाव दिखता है। यह प्रभाव आरंभिक दौर या विशिष्ट भारतीय सिनेमा की धारा पर नहीं तो वर्तमानयुगिन फिल्मों पर भी है। हां भारतीय सिनेमा में उसके कारण आरंभिक दौर और मध्य युग में कुछ अलग थे और अब कुछ अलग है। वर्तमान युग में व्यावसायिक, तकनीकी और कलात्मकता की स्पर्धा इतनी जबरदस्त है कि उसमें टिकने के लिए नवनवीन ट्रिकों को चुनना और उसे अजमाना अनिवार्य बनता जा रहा है। अतः वह ट्रिक विदेशी हो या भारतीय हो उसका बखूबी इस्तेमाल करने के लिए भारतीय सिनेमा मजबूर-सा हो गया है। यहां यह बात ध्यान रखनी चाहिए कि भारतीय सिनेमा पर प्रभाव पश्चिम का था परंतु भारतीय समाज, संस्कृति के हिसाब से वह ढलते जा रहा था। इसीलिए हिंदी सिनेमा और भारतीय सिनेमा मौलिकता और जनता के प्रति अपने दायित्व के नाते अपने आपको सफलता के साथ विकसित किए जा रहा था। 'अछूत कन्या' (1936), सत्यजीत राय की बांग्ला भाषा में बनी 'पाथेर पांचाली', ऋत्विक घटक द्वारा बनाई बांग्ला फिल्म 'मेघे ढाका तारा', बिमल राय की हिंदी में आई 'दो बीघा जमीन' जैसी फिल्मों ने भारतीय सिनेमा के सुनहरे भविष्य का आगाज किया। यह फिल्में न वेबल भारतीय विश्व सिनेमा के टक्कर की है, तकनीक और भीतरी खूबसूरती से संजी-संवरी है। वह आज विविध संसाधनों से लैंस आधुनिक फिल्मों को भी टक्कर देती है। भारतीय सिनेमा के आरंभ की मांग कुछ अलग थी, अतः उस काल के अनुरूप फिल्में बनी। "शुरुआत में जैसे धार्मिक पौराणिक फिल्म अस्तित्व में आई और फिर ऐतिहासिक विषयों ने अपनी जगह बनाई, वैसे ही दिलीप कुमार, वी, शांताराम, देव आनंद, राज कपूर और गुरुदल जैसे अदाकारों तक आते-आते भारत की मुख्यधारा का सिनेमा अर्थात् हिंदी सिनेमा काफी हद तक समकालीन सच्चाइयों के निकट आ चुका था।" (कहां-कहां से गुजर गया सिनेमा सलिल सुधाकर - ई-संदर्भ) भारतीय सिनेमा की मुख्य धारा में बोलती फिल्म के आगमन से मानो विकास की गति को पंख लग जाते हैं।


7. न्यू वेव या संमातर सिनेमा

मनोरंजन की फिल्मों के साथ न्यू वेव का दौर भी भारतीय सिनेमा में चलता रहा और इसे आगे चलकर समांतर सिनेमा का नाम भी दिया गया। सत्यजीत राय के पाथेर पांचाली से इसका आगाज होता है और आगे चलकर विमल राय, गुरुदत्त, हृषिकेश मुखर्जी, ख्वाजा अहमद अब्बास, श्याम बेनेगल, गोविंद निहलानी, प्रकाश झा, गौतम घोष, मृणाल सेन, अडूर गोपालकृष्णन, महेश भट्ट, भीमसेन, बासु चटर्जी आदि निर्देशकों ने समांतर फिल्में बनाई और इससे भारतीय सिनेमा पुष्ट भी हुआ। पाथेर पांचाली के बाद 'आवारा', 'श्री. 420', 'जागते रहो, 'सद्‌गति', 'सात हिंदुस्तानी', 'शहर और सपना', 'अंकर', 'आक्रोश', 'अर्थसत्य', 'सारांश', 'अर्थ', 'घरौंदा', 'सारा आकाश' आदि फिल्मों का निर्माण संमातर सिनेमा के ठोस कदमों को दर्शाता है। इन फिल्मों में अभिनय का चरम उत्कर्ष और सादगी देखी जा सकती है। बिना किसी प्रदर्शन के यथार्थ को सामाजिक मूल्यों को दर्शाना फिल्मों का उ‌द्देश्य रहा है। सिनेमा बनाना कला का काम है। लेकिन यह कला की दुनिया पैसों के बलबूते पर खड़ी होती है। सिनेमा के साथ आरंभ से रुपए-पैसों के मुनाफे की बात जुड़ चुकी है। इसके पहले ही लिख चुके हैं कि आज विश्व और भारत की इतनी आबादी है कि आप कोई भी सिनेमा जरा से मसाले के साथ बनाए करोड़ों रुपए कमा सकते हैं, यह करोड़ों रुपए आपको रोटी दे सकते हैं लेकिन सिनेमा के साथ ईमानदारी बरतने का सकन और शांति कभी नहीं देंगे। सिनेमा एक दायरे तक मनोरंजन है परंतु उस दायरे के आगे सामाजिक दायित्व, कलात्मकता, क्लासिकता, तपस्या, साधना... है। स्मिता पाटिल एक साक्षात्कार के दौरान व्यावसायिक और समांतर सिनेमा को लेकर कलाकारों की मानसिकता को बयान करती है, उसके अंश को यहां पर दे रहा हूं। उन्हें पूछा जाता है "जब संमातर सिनेमा से आपको नाम भऔर परस्कार मिलता है तो व्यावसायी फिल्में स्वीकार ही क्यों करती हैं?" "व्यवसाय के लिए। कमाने के लिए। आखिर में कोई साधु-सन्यासी तो हूं नहीं।" "यानी अगर कोई साहित्यिक कहानी पर फिल्म बनाने आए और उसके पास पर्याप्त रुपया न हो तो मना कर देंगी?" "अब तक तो नहीं किया। हां, व्यवसायी सिनेमा के कई प्रस्ताव छोड़ चुकी हूँ।" (साहित्यिक फिल्मों से अभिनय में निखार आता है सारिका, मार्च 1985, पृ. 35) स्मिता पाटिल द्वारा कहा यह वाक्य सिनेमाई जगत के प्रत्येक कलाकार के लिए लागू पड़ता है। कलाकार की मंशा हमेशा अपने अभिनय को तराशने और समाधान पाने की होती है। पैसा उसके लिए गौन होता है। समांतर और क्लासिक सिनेमा की प्रमुख अदाकारा स्मिता पाटिल समांतर सिनेमा को लेकर सत्यजीत राय के मल और विचार पर गौर करना भी अत्यंत जरूरी है, "मैंने कई विषयों पर तरह-तरह किताबें पढ़ीं, पर यह कोई अध्ययन नहीं था। न ही मैंने फिल्मों पर ज्यादा पढ़ा है। फिल्मों में जब इतनी रुचि हो गई कि उनके बारे में पढूं तब तक अंग्रेजी में इस विषय पर मुश्किल से एक दर्जन किताबें थीं। उन्हें जब तक पढ़कर खत्म करता, उसके पहले ही में फिल्में बनाने में लग गया था। उन सारी दर्जन भर किताबों से ज्यादा मुझे कैमरे और अभिनेत्रियों के साथ किए दिन भर के काम ने सिखाया। दूसरे शब्द में मैंने मूलतः फिल्म बनाना, फिल्म बनाते-बनाते ही सीखा, सिनेमा की कला पर किताबें पढ़ कर नहीं। यहां मुझे कहना चाहिए कि इस मामले में मैं अकेला नहीं हूं। फिल्म के तमाम अग्रणी लोगों ने इसी तरह से फिल्म बनाना सिखा। कुछेक अपवादों को छोड़कर इन सभी अग्रणियों में कोई भी प्रकांड पंडित मानने के बजाय कारीगर ही ज्यादा मानते थे। अगर उन्होंने कलात्मक कृतियां बनाई तो ऐसा महज आत्मबोध से ही किया, कम-से-कम उनमें अधिकांश ऐसा महसूस करते हैं। (फिल्मों का सौंदर्यशास्त्र और भारतीय सिनेमा, पृ. 247-248)


8. अर्थपूर्ण और यथार्थवादी सिनेमा

सन् 1975 के बाद भारतीय सिनेमा के विविध भाषाओ में अर्थपूर्ण और यथार्थवादी सिनेमा ने अपने कदम रखे और यह समांतर सिनेमा के भीतर से उपजता गया। नव-नवीन प्रयोगों के साथ समाज की वास्तविकता परदे पर दर्शाने का कार्य शुरू हुआ। 1990 तक आते- आते यह धारा भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा बनती गई और दर्शकों के साथ फिल्म समीक्षकों ने भी इन फिल्मों की सराहना की। यह फिल्में यथार्थवादी तो थी ही साथ ही समाज को एक ताकतवर संदेश देने में भी सक्षम थी। यह संदेश समाज तक सीमित न रहकर वह किसी सामाजिक समस्या, पिछड़ापन, गरीबी, पारिवारिक घुटन, स्त्री शोषण, जातिवादिता, संघर्ष, तनाव, दबाव... को पूरी ताकत के साथ परदे पर लेकर आ रही थी। "नब्बे के दशक तक अर्थपूर्ण एवं यथार्थवादी सिनेमा काफी सशक्त हुआ था और इसने भी देश को काफी अच्छे अदाकार, निर्देशक दिए। नसीरु‌द्दीन शाह, ओम पुरी, स्मिता पाटिल, शबाना आजमी, अमरीश पुरी, कलभूषण खरबंदा, मोहन आगाशे, अमोल पालेकर आदि कई अभिनेता इसी धारा से प्रकाश में आए। फिल्मों में भी 'भुवन शोम', 'मृगया', 'एक अधूरी कहानी', 'फणिअम्मा', 'घट श्राद्ध', 'पार', 'अयांत्रिक', 'सुवर्ण रेखा', 'पार्टी', 'प्रतिद्वंद्वी', 'पोस्टर', 'शंकराभरणं', 'ये वो मंजिल तो नहीं', 'निशांत', 'संस्कार', 'वंशवृक्ष', 'चक्र', 'नागरिक', 'इंटरव्यू', 'औरत', 'उसकी रोटी', 'चश्मे बद्दर', 'कथा', 'दामुल', 'जाने भी दो यारों' आदि की एक लंबी सूची है, जिसने भारतीय सिनेमा में सोच और रचनात्मकता को एक सार्थक ऊंचाई और अर्थवत्ता प्रदान की।" (कहां-कहां से गुजर गया सिनेमा सलिल सुधाकर - ई-संदर्भ)


9. बाजारवादी सिनेमा

पिछले बीस एक वर्षों में भारतीय सिनेमा में पैसा कमाने की होड-सी लगी है। 'बॉक्स ऑफिस पर हिट होना', 'सौ करोडी क्लब', 'नंबर वन का खिताब', 'स्टार और सुपर स्टार कौन? आदि बातें स्पर्धा केंद्रित हो गई है और यह स्पर्धा कलात्मक स्तरीयता की न होकर रुपए केंद्रित हो गई है। आज रिलिज होनेवाली प्रत्येक फिल्म बॉक्स ऑफिस पर कितने दिन धमाका मचाती है और कितना पैसा कमाती है इसकी चर्चा पूरा भारतीय सिनेमा करता है, मीडिया करता है और उसके बहाने दर्शक भी करते हैं। किस फिल्म ने पहले दो-चार दिनों में कितने पैसे कमाए, मौड़िया में क्या लिखा जा रहा है, उसको लेकर दर्शक फिल्में देखना या नहीं देखना तय करता है जो भारतीय सिनेमा के लिए अच्छा नहीं है। किस अभिनेता के फॉन फॉलोअर्स कितने हैं उस पर उस फिल्म की कमाई निर्भर होती है। अच्छे फैन फॉलोअर्स के भरोसे बकवास फिल्में भी बॉक्स ऑफिस पर हिट होती है। उसका कारण यह होता है कि दर्शकों की संख्या ज्यादा है और फिल्मों का प्रमोशन मीडिया, अखबारों और टी. वी. चंनली पर इतनी धूमधाम से होता है कि उसके कौतुहल से दर्शक एक बार देखने के लिए जाए तो भी फिल्म हिट होती है। केबल पैसा कमाने के लिए फिल्मों में मसाला भरा जाता है, बकवास-अर्थहिन पेंटम सांग को जोरजबरदस्ती डाला जाता है और नेवल संगीतगार के बलबूते पर दर्शकों को लुभाने की कोशिश होती है। ऐसी फिल्मों में कोई अर्थवता, यथार्थवादिता, सादगी, सामाजिक मूल्य की स्थापना, प्रयोग, कलात्मकता, मिठास, सौदर्यात्मकता... नहीं होती है। इसका उ‌द्देश्य मनोरंजन को आधार बनाकर केवल और केवल पैसा कमाना ही होता है, उसमें आज भारतीय सिनेमा सफल हो रहा है। मांजी - द मॉटन मॅन (2015) के एक दृश्य में नवाजु‌द्दीन सि‌द्धिकी इधर इक्का-दुक्का फिल्में सामाजिक मूल्य, प्रेरणा, आदर्श, पारिवारिक पवित्रता, लगन और कलात्मकता के साथ सिनेमाई बाजार में आती है। बाजारवादी घिनौनी स्पर्धा के बावजूद भी भारतीय सिनेमा के पन्ने पर अपने ठोस कदमों की छाप छोड़ देती है। हाल ही में पदर्शित मांजी - द मॉउंटन मॅन' (2015), 'भाग मिल्खा भाग' (2013), बेंडिड क्विन' (1994), 'क्विन' (2015), 'तनु विडस् मनु'. (2011 व 2015), 'मेरी कोम' (2014), 'पानसिंग तोमर (2012) जैसी फिल्मों का नामोल्लेख किया जा सकता है जिनमें भारतीय सिनेमा के मूल्यों को संवारा है। मूल्यों को संवारते हुए यह फिल्में बॉक्स ऑफिस पर सफलता के झंडे भी गाड़ चुकी है। सनी देओल, संजय दत्त, शाहरुख खान, आमिर खान, अजय देवगन, सलमान खान, सैफ अली खान, ऋतिक रोशन जैसे नायकों के आगमन ने हिंदी सिनेमा का चेहरा बेहद आधुनिक और ग्लैमरस बना दिया लेकिन फिल्म जिंदगी (आम आदमी की) से बहुत दूर हो गई, जिनका मुख्य उ‌द्देश्य सिर्फ पैसा कमाना रह गया कभी-कभी आमिर खान जैसे अभिनेताओं ने इक्का-दुक्का अर्थपूर्ण एवं सार्थक फिल्म बनाई, पर बेहद कमर्शियल फिल्मों की संख्या के मुकाबले वे 'उंट के मुंह में जीरा' साबित हुई। फिर भी भूले-भटके कुछ समानांतर टाइप की फिल्में कभी कभार देखने को मिल जाती हैं। आज मूल सिनेमा का ट्रेंड सिर्फ 'पैसा कमाऊ सिनेमा' बनकर रह गया है, 'वांटेड', 'द डॉन', 'एक था टाइगर', 'दबंग', 'गोलमाल', 'सिंघम', 'राउड़ी राठौर' आदि तमाम हिट होने वाली मौजूदा फिल्मों को सिर्फ मनोरंजन के लिए ही देखा जा सकता है, किसी गहरी चेतना के लिए नहीं हालांकि ये फिल्म समाज की विसंगतियों पर चोट करती भी हैं, पर इतने 'लाइट' तरीके से कि वे यथार्थ से कटकर नाटकबाजी ज्यादा लगती हैं। मनोरंजनात्मक मिठापन तत्काल आपकी मांग को पूरा करता है परंतु उससे भी लंबे समय तक चलनेवाली सामाजिक मांग क्लासिकता की है। या हो सकता है बाजारवादिता के चलतें जिन फिल्मों ने कलात्मकता होकर भी व्यावसायिक सफलता पाई ऐसी फिल्में बनाई जाएगी। अर्थात् कलात्मकता और व्यावसायिकता के मिलाप से जो फिल्म बनेंगी वह भारतीय सिनेमा में अपना योगदान दे सकती है।


10. क्षेत्रीय भाषाओं का योगदान

आज मराठी, बांग्ला, तमिल, तेलुगू, मलयालम, गुजराती, कन्नड, असमिया, पंजाबी, कोकणी आदि भाषाओं के साथ अन्य क्षेत्रीय भाषाओं में ताकतवर फिल्मों का निर्माण हो रहा है। विस्तृत परिदृश्य को अपना विषय बनाकर यह फिल्में भारतीय सिनेमा की मुख्य धारा का अंश भी मानी जाती है। उसका कारण यह है कि इन फिल्मों में काम करनेवाले कलाकार, तकनीशियन, निर्माता, निर्देशक भाषाई दीवारों को तोड़कर कई भाषाओं में अपनी कला का प्रदर्शन कर रहे हैं और योगदान दे रहे हैं। क्षेत्रीयता की सीमाओं को ढहाकर कई कलाकार और तकनीशियन भारतीय सिनेमा का मुख्य प्रवाह हिंदी सिनेमा और बॉलीवुड में प्रवेश कर चुके हैं। 'फूल और कांटे', 'मुन्नाभाई एमबीबीएस' जैसी हिंदी फिल्मों का अन्य भारतीय भाषाओं में रीमेक होना तथा हिंदी फिल्मों में गजनी', 'बॉडीगार्ड', 'वांटेड', 'राउड़ी राठौर', सिंघम', 'दृश्यम' जैसे फिल्मों का दक्षिणी भाषाओं से हिंदी में रीमेक करना क्षेत्रीय भाषाओं का ही योगदान माना जा सकता है। हाल ही में प्रदर्शित हो चुकी 'बाहुबली (2015) इस दक्षिणी फिल्म का पूरे भारत वर्ष में सराहा जाना भारतीय सिनेमा के क्षेत्रीय ताकत को दिखाता है। 'बाहुबली' विश्व सिनेमा के नई तक‌नीकों का अद्‌भुत अविष्कार है। इस दौरान भारतीय सिनेमा में सलमान खान की फिल्म 'बजरंगी भाईजान' धूमधाम से प्रदर्शित हो रही थी, तो भी कुछ दिनों के भीतर 'बाहुबली' का बॉलीवुड में सफलता पाना उसकी ताकत को बयान करता है। 2014 के ऑस्कर पुरस्कार के लिए गुजराती फिल्म द गुड रोड का नामांकन होना तथा 2015 में मराठी फिल्म का कोर्ट' का नामांकन होना क्षेत्रीय भाषा के भारतीय सिनेमा में उठते कदमों का परिचायक है। सत्यजीत राय, बासु चटर्जी, श्याम बेनेगल, वी. शांताराम, दादासाहब फालके अदूर गोपालकृष्णन, भालजी पंढारकर, गिरीश कर्नाड, मृणाल सेन जैसे कई निर्माता-निर्देशक भारतीय सिनेमा की पहचान है जो आरंभ में मूलतः अपनी भाषा से जुड़े और आगे चलकर भारतीय सिनेमा में योगदान दिया। आज कलाकार और तकनीशियनों को लेकर कहा आ सकता है कि इन्होंने भारतीय और क्षेत्रीय फिल्मों की लकीरों को मिटाने का कार्य किया है। आरत में सबसे पुराना जीवित स्टूड़ियो ए. वी. एम. स्टुड़ियों चेन्नई


11. भारतीय सिनेमा और ऑस्कर

भारतीय सिनेमा आरंभ से ऑस्कर पुरस्कारों की दौड़ में शामील होता रहा और विश्व स्तर पर अपनी छाप को छोड़ा है। हां पुरस्कार बहुत देर बाद मिले परंतु उस दौड में शामिल होना और चयनकततर्ताओं की पसंद में उत्तरना किसी पुरस्कार पाप्ति से कम नहीं। भारत की और से पहली बार मेहबूब खान की फिल्म 'मदर इंडिया' (1957) विदेशी भाषा की अंतीम पांच फिल्मी में चुनी गई थी। दूसरी बार मौरा नायर की 'सलाम बबि (1988) ऑस्कर की दौड़ में शामिल हो गई। स्ट्रीट चिल्ड्रेस पर बनी यह फिल्म किसी भी विदेशी फिल्म से कमजोर भी नहीं परंतु जूरी ने इसे अवॉर्ड देने से थोड़ा दूर रखा। तीसरी भारतीय सिनेमा की फिल्म ऑस्कर के लिए पहुंची आमिर खान की लगान' (2001)। इसके अनुकूल जबरदस्त माहौल बना था परंतु अंतिम दौड़ में फिर पिछड़ गई और पुरस्कार पाने से दूर रही। 1982 में गांधी को बेस्ट फिल्म का ऑस्कर मिला परंतु यह फिल्म भारतीय नहीं तो विश्व सिनेमा की थी और उसका विषय भारत के साथ वैश्विक भी था। हां यह बात भारतीय सिनेमा के लिए गर्व की साबित हो गई कि इसी फिल्म के लिए कॉस्ट्यूम डिजायनिंग के लिए भानु अथैया को ऑस्कर मिला जो भारतीय सिनेमा की उपज थे। इसके अलावा विश्व सिनेमा में अभूतपूर्व योगदान के लिए सत्यजीत राय को 1992 में मानद ऑस्कर अवॉर्ड से नवाजा गया। संगीतकार ए. आर. रहमान को ऑस्कर पुरस्कार के साथ (2009) भारतीय फिल्म उ‌द्योग के लिए 2009 खुशखबरी लेकर आया। 2008 में बनी 'स्लम जोंग मिलिनिअर बेस्ट फिल्म के नाते चुनी गई और इस फिल्म के जय हो... गीत के लिए गुलजार और संगीत के लिए ए. आर. रहमान को ऑस्कर पुरस्कार प्राप्त हो गया। इसी फिल्म के लिए साउंड मिक्सिंग के लिए केरल के साउंड रिकॉडिंग, मिक्सिंग और डिझायनिंग करनेवाले रसूल पुकुट्टी को मिला। टाइम्स पत्रिका ने रहमान के लिए 'मोजार्ट ऑफ मद्रास' की उपाधि दी है। रहमान गोल्डन ग्लोब एवार्ड से सन्मानित होनेवाले पहले भारतीय हैं। भारतीय सिनेमा का विश्व सिनेमा में भविष्य उज्ज्वल है। जिस गति के साथ वह विश्व सिनेमा के आकाश में प्रगति कर रहा है उससे आकर्षित होकर कई कलाकार और तकनीशियन भारतीय सिनेमा में अपना योगदान देने के लिए तैयार हो रहे हैं।


12. बॉक्स ऑफिस पर हिट फिल्में और सौ करोड़ी क्लब

भारतीय सिनेमा के वर्तमान युग पर बाजारवाद का जबरदस्त प्रभाव है, अतः कमाई का रिकॉर्ड बनाने की होड-सी लगी है। फिल्मों की कलात्मकता और सौंदर्यात्मकता इसके कारण दांव पर लगी है परंतु दूसरी अच्छी बात यह है कि इससे बहुत बड़े रोजगार की उपलब्धता हो रही है। भारत की अर्थव्यवस्था को गति देने का कार्य भारतीय सिनेमा की मुख्यधारा बॉलीवुड कर रहा है। सन् 2000 के बाद निर्माण होनेवाली फिल्मों की कमाई में अचानक उछाल आया और दिनों- दिन यह आंकड़े आसमान छूने लगे। सबसे पहले सौ करोड़ के आंकड़े को छ नेवाली फिल्म रही आमिर खान की 'गजनी (2008)। यह मूलतः दक्षिण की एक फिल्म का रीमेक था। यहां से आगे फिल्म स्टारों के बीच मानो स्पर्धा ही शुरू हो गई और सौ करोडी क्लब में शामिल होने के लिए होड-सी लगी। केवल अभिनेता ही नहीं तो नायिकाओं का भी सौ करोडी क्लब में समावेश हुआ। सोनाक्षी सिन्हा, दीपिका पादुकोन, प्रियंका चोपा, कॅटरिना कैफ, करीना कपूर, जॅकलीन फर्नाडिस, श्रद्धा कपूर, आलिया भट्ट, कंगना रनोट आदि नायिकाओं का सौ करोड़ी क्लब में समावेश हुआ है। इन नायिकाओं में केवल कंगना रनोट एक ऐसी नायिका है जिसने अकेले के बलबूते पर सौ करोड़ी क्लब को हुआ है। 'क्विन (2014) और 'तनु विड्स मनु (2015) इन फिल्मों में नायक का कोई स्टार कास्ट नहीं था, केवल कंगना रनोट के अभिनय कौशल के बलबूते पर यह फिल्में सौ करोडी क्लब में पहुंची है। सलमान खान, आमिर खान, शाहरूख खान, अजय देवगन, अक्षय कुमार, रितेश देशमुख, रितिक रोशन, रणबीर कपूर, जॉन अब्राहम, सैफ अली खान, रणवीर सिंह, सिद्धार्थ मल्होत्रा, अर्जुन कपूर, फरहान अख्तर आदि अभिनेताओं की फिल्में सौ करोड़ी क्लब में समाविष्ट हो चुकी है। साराश पिछले सवा सौ वर्षों का सिनेमा का इतिहास है। 1895 में विश्व कि पहली फिल्म 'अरायव्हल ऑफ द ट्रेन' बनी और उसके देखते-देखते अब तक कितना सफर तय किया है सिनेमा ने। इस परिदृश्य को देखकर दुनिया चकित होती है। एक ही साथ उसे नजरभर देखने की क्षमता भी हममें नहीं है। कितना भी समेटने और लिखने की कोशिश करे बहुत कुछ छुटने का एहसास होता है। खैर विश्व सिनेमा और भारतीय सिनेमा के इतिहास का विहगावलोकन पाठकों को फिल्मी दुनिया के सवा सौ वर्षों का सफर जरूर करवा सकता है। कई प्रवाहों, कई देशों और कई भाषाओं में चल रही इस दुनिया में बेरोजगारों को रोजगार देने की बहुत अधिक क्षमता है। केवल इसके दरवाजे पर कुछ कौशलों के साथ दस्तक देने की आवश्यकता है। युवकों को यह उ‌द्योग अपने हाथों में उठाकर चमकता सितारा बना सकता है। मेहनत, लगन, परिश्रम, कुशलता, तपस्या के बलबूते पर इस दुनिया में अपने-आपको स्थापित किया जा सकता है। सिनेमाई जगत् से किसी भी देश की अर्थव्यवस्था बलशाली बन जाती है। बहुत अधिक संभावनाएं और रोजगार निर्मिति का क्षेत्र होने के कारण इसे इंडस्ट्री भी कहा जाता है। भारतीय सिनेमा दादासाहब फालके जी के राजा हरिश्चंद्र (1913) से आरंभ होता है और उसके अब तक के सौ वर्षों के छोटे परंतु अधिक व्यापक दुनिया में कई प्रकार की फिल्में बनी। दुनिया की सबसे ज्यादा फिल्में बनानेवाली इंडस्ट्री के नाते दुनिया भारतीय सिनेमा जगत् को देखती है। समय आगे बढ़ता गया। निर्माता, निर्देशक, कलाकार और तकनीक बदलती रही और उसके साथ भारतीय सिनेमा भी बदलता गया। आज उसकी सौ करोड़ों की छलांगे देखकर आंखें चौधियाती है। धर्मिक और पौराणिक कथाओं से शुरुआत करनेवाला भारतीय सिनेमा बाजारवादी सिनेमा तक पहुंचते-पहुंचते कई करवटें ले चुका है। यथार्थवादी समांतर सिनेमा के काल में भारतीय सिनेमा जगत् वैचारिक चोटी पर पहुंचा था। इस युग या ऐसे सिनेमाओं को सुवर्णकालीन सिनेमा कहा जा सकता है। ऐसा नहीं कि वह युग खत्म हुआ, उसका काल बहुत लंबा है और वैसी फिल्में समांतर सिनेमा के दौरान बनती तो थी ही, उसके पहले तथा बाद में और आज भी बन रही है। बाजारवाद के प्रभाव में आया सिनेमा पैसे कमाए कोई फर्क नहीं पड़ता परंतु बाजारू न बने तो उसका भविष्य तेजोमय होगा। हम कुछ भी कहे, शंकाओं को जताए भारतीय सिनेमा और विश्व सिनेमा अपने ही धून में विकसित होता रहेगा और आगे बढ़ेगा। हां कोई नया कलाकार, कोई नया निर्माता, कोई तकनीशियन और कोई प्रयोगवादी इसके रुख को बदल सकता है। कान फिल्मोत्सव में जाफर पनाहिने के 'टॅक्सी' (2015) का पुरुस्कृत होना इसकी ओर संकेत करता है। वर्तमान युग में भारतीय सिनेमा में बॉलीवुड की फिल्में और अन्य प्रादेशिक भाषाओं की फिल्में दुनिया की किसी भी उत्कृष्ट फिल्म को टक्कर देने की क्षमता रखती है। https://www.bharaticollege.du.ac.in