हिन्दी-संस्कृत अनुवाद/संस्कृत-हिंदी वाक्य अनुवाद

Grahak Bhagwan ke sam

Grahak Bhagwan ke saman hai
Grahak Bhagwan ke saman hai

do logo ke bich me fut dal kr rang khelne wale ka jivan kanha ji badran kr denge Dil se badua hai

  • 5. लंकातो निवर्तमानं रामं भरतः प्रत्युज्जगाम।
लंका से लौटते हुए राम को लाने के लिए भरत आगे बढ़े।
  • 6. इयं कथा मामेव लक्षीकरोति।
इस कथा का संकेत विषय मैं ही हूँ।
  • 7. मनो में संशयमेव गाहते।
मेरे चित्त में सन्देह ही है।
  • 8. कालस्य कुटिला गतिः।
समय की गति कुटिल है।
  • 9. नियमपूर्वकं विधीयमानो व्यायामो हि फलप्रदो भवति।
नियमपूर्वक किया जा रहा व्यायाम ही फलदायक होता है।
  • 10. अल्पीयांस एव जना धर्मं प्रति बद्धादरा दृश्यन्ते।
कम ही लोग धर्म के प्रति सम्मान रखने वाले दिखाई देते हैं।
  • 11. यथा अपवित्रस्थानपतितं सुवर्ण न कोऽपि परित्यजति तथैव स्वस्मात् नीचादपि विद्या अवश्यं ग्राह्या।
जैसे अपवित्र स्थान में गिरे हुए सोने को कोई भी नहीं छोड़ता उसी प्रकार अपने से निम्न व्यक्ति से भी विद्या अवश्य ग्रहण करना चाहिये।
  • 12. गङ्गायां स्नानाय श्री विश्वानाथस्य दर्शनाय च सदैव भिन्न-भिन्न प्रदेशेभ्यः जनाः वाराणसीम् आगच्छन्ति।
गङ्गा में स्नान करने के लिए और श्री विश्वनाथ के दर्शन के लिए हमेशा भिन्न-भिन्न प्रदेशों से लोग वाराणसी आते हैं।
  • 13. चरित्र निर्माणे संसर्गस्यापि महान् प्रभावो भवति, संसर्गात् सज्जना अपि बालकाः दुर्जनाः भवन्ति दुर्जनाश्च सज्जनाः।
चरित्र निर्माण में संगति का भी महान् प्रभाव होता है, संगति से सज्जन बालक भी दुर्जन हो जाते हैं और दुर्जन सज्जन।
  • 14. मनुष्याणां सुखाय समुन्नतये च यानि कार्याणि आवश्यकानि सन्ति तषु सर्वतोऽधिकम् आवश्यकं कार्यं स्वास्थ्यरक्षा अस्ति।
मनुष्य के सुख और समुन्नति के लिए जो कार्य आवश्यक हैं उनमें से सर्वाधिक आवश्यक कार्य स्वास्थ्यरक्षा है।
  • 15. प्राचीनकाले एतादृशा बहवो गुरुभक्ता बभूवः येषामुपारव्यायनं श्रुत्वा पठित्वा च महदाश्चर्यं जायते।
प्राचीन काल में ऐसे अनेक गुरु भक्त हुए जिनकी कथाएँ सुनकर और पढ़कर बहुत आश्चर्य होता है।
  • 16. नाम्ना स सज्जनः परन्तु कर्म्मणा दुर्जनः।
नाम से वह सज्जन है परन्तु कर्म से दुर्जन।
  • 17. एकदा कस्मिंश्चिद्वने अटन् एकः सिंहः श्रान्तो भूत्वा निद्रां गतः।
एक बार किसी वन में घूमता हुआ एक सिंह थक कर सो गया।
  • 18. सः सर्वेषां मूर्ध्नि तिष्ठति।
वह सबके ऊपर है।
  • 19. मम द्रव्यस्य कथं त्वया विनियोगः कृतः?
मेरे धन को तुमने किस प्रकार खर्च किया?
  • 20. इति लोकवादः न विसंवादमासादयति।
इस लोकोक्ति में कोई विवाद नहीं।
  • 21. राजा युगपत् बहुभिररिभिर्न युध्येत्, यतः समवेताभिर्बह्नीभिः पिपीलिकाभिः बलवानपि सर्पः विनाश्यते।
राजा एक साथ बहुत से शत्रुओं से न लड़े, क्योंकि बहुत सारी चीटियों से साँप भी मारा जाता है।
  • 22. प्राज्ञो हि स्वकार्यसम्पादनाय रिपूनपि स्वस्कन्धेन वहेत्। मानवाः दहनार्थमेव शिरसा काष्ठानि वहन्ति।
बुद्धिमान् अपने स्वार्थ के लिए शत्रुओं को भी अपने कन्धे पर ले जाय। मनुष्य जलाने के लिए ही सिर पर लकड़ियों को उठाते हैं।
  • 23. कियत्कालम् उत्सवोऽयं स्थास्यति? अपि जानासि अत्र का किंवदन्ती?
कितनी देर तक यह उत्सव रहेगा? तुम्हें इसकी कहानी के बारे में पता है?
  • 24. तद् भीषणं दृश्यमवलोक्य तस्याः पाणिपादं कम्पितुमारेभे।
उस भीषण दृश्य को देखकर उसके हाथ पैर काँपने लगे।
  • 25. तेषां कांश्चिद् दोषानन्तरेणापि ते सन्देहास्पदं बभूवुः।
उनका कोई दोष न होने पर भी उन पर सन्देह बना ही रहा।
  • 26. मुहूर्तेन धारासारैर्महती वृष्टिबर्भूव। नभश्च जलधरपटलैरावृतम्।
क्षण भर में मूसलाधार वर्षा होने लगी और आसमान बादलों से घिर गया।
  • 27. सचचिवो राजपुत्रः सरस्तीरे विशालं महीरुहम पश्यत्, अगणिता यस्य शाखा भुजवत् प्रतिभान्ति स्म।
मन्त्रियों के साथ राजकुमार ने सरोवर के किनारे एक बहुत बड़े पेड़ को देखा, जिसकी शाखाएं भुजाओं की तरह दिखाई देतीं थीं।
  • 28. न हि संहरते ज्योत्स्नां चन्द्रश्चाण्डावलेश्मनः।
चन्द्रमा चाण्डाल के घर से चांदनी को नहीं हटाता।
  • 29. ये समुदाचारमुच्चरन्ते तेऽवगीयन्ते।
जो शिष्टाचार की सीमा लांघते हैं वे निन्दित हो जाते हैं।
  • 30. राजा महीपालः हस्तिनमारुह्य बहूनि वनानि भ्रमित्वा स्वमेव द्वीपं प्रतिगच्छति स्म।
राजा महीपाल हाथी पर चढ़कर बहुत सारे वनों में घूमता हुआ अपने राज्य में लौट रहा था।
  • 31. यदाहं तव भाषितं परिभावयामि तदा नात्र बहुगुणं विभावयामि।
जब मै तुम्हारे भाषण पर विचार करता हूँ तब उसमें मुझे अधिक गुण नहीं दिखाई देते।
  • 32. अचिरमेव स वियोगव्यथाम् अनुभविष्यति।
वह शीघ्र ही वियोग की पीड़ा का अनुभव करेगा।
  • 33. युक्तमेव कथयति भवान् नाहं भवतस्तर्के दोषं विभावयामि।
तुम ठीक कह रहे हो, तुम्हारी दलील में मुझे कोई दोष दिखाई नहीं देता है।
  • 34. ये शरीरस्थान् रिपून् अधिकुर्वते ते नाम जयिनः।
जो शरीरिक शत्रुओं को वश में कर लेते हैं वे ही विजेता है।
  • 35. विद्या सर्वेषु धनेषु श्रेष्ठमस्ति यतो हि विद्यैव व्यये कृते वर्धते। अन्यद् धनं व्यये कृते क्षयं प्राप्नोति।
विद्या ही सभी धनों में श्रेष्ठ है क्योंकि विद्या ही सभी धनों में श्रेष्ठ है क्योंकि विद्या ही व्यय करने पर बढ़ती है। दूसरा धन तो व्यय करने पर नष्ट होता है।
  • 36. महात्मनो गांधिमहोदयस्य संरक्षणे अहिंसा शस्त्रेणैव भारतवर्षं पराधीनतापाशं छित्वा स्वतन्त्रतामलभत।
महात्मा गांधी महोदय के संरक्षण में अहिंसा के हथियार से ही भारत ने गुलामी के बन्धन को तोड़कर आजादी पाई।
  • 37. ब्रह्मचर्य वेदेऽपि महिमा वर्णितोऽस्ति यद् ब्रह्मचर्यस्य सदाचारस्य वा महिम्ना देवा मृत्युमपि स्ववशेऽकुर्वन।
वेद में भी ब्रह्मचर्य की महिमा वर्णित है देवों ने मृत्यु को भी अपने वश में कर लिया।
  • 38. गुरुभक्त्यैव आरुणिः ब्रह्मज्ञः सञ्जातः, एकलव्यश्च महाधनुर्धरो जातः।
गुरु भक्ति से ही आरुणि ब्रह्मज्ञानी हो गया और एकलव्य महान् धनुर्धर हुआ।
  • 39. आविर्भूते शशिनि अन्धकारस्तिरोऽभूत्।
चन्द्रमा के निकलने पर अंधकार दूर हो गया।
  • 40. अयं मल्लः अन्यस्मै मल्लाय प्रभवति।
यह पहलवान दूसरे पहलवान से टक्कर ले सकता है।
  • 41. गुणा विनयेन शोभन्ते।
गुणों की शोभा नम्रता से होती है।
  • 42. सत्यस्य पालनार्थमेव महाराजो दशरथः प्रियं पुत्रं रामं वनं प्रैषयत्।
सत्य के पालन के लिए ही महाराज दशरथ ने प्रिय पुत्र राम को वन भेजा।
  • 43. एकमेवार्थमनुलपसि, न चान्यं श्रृणोषि।
एक ही बात अलापते जाते हो दूसरे की सुनते ही नहीं।
  • 44. पूर्वं स त्वां सम्पत्तिं बन्धकेऽददात् साम्प्रतं ऋणशोधनेऽक्षमतामुद्घोषयति।
पहले उसने अपनी संपत्ति बंधक रखी थी, अब अपना दिवाला घोषित कर रहा है।
  • 45. मज्जतो हि कुशं वा काशं वाऽवलम्बनम्।
डूबते को तिनके का सहारा।
  • 46. गोपालस्तथा वेगेन कन्दुकं प्राहरत् यथाऽऽदर्शः परिस्फुट्य खण्डशोऽभूत्।
गोपाल ने इतने जोर से गेंद मारी कि शीशा टूट कर चूर-चूर हो गया।
  • 47. चिरंविप्रोषितो रुग्णश्चासौ तथा परिवृत्तो यथा परिचेतुं न शक्यः।
चिर प्रवासी तथा रोगी रहने से वह ऐसा बदल गया है कि पहचाना नहीं जाता।
  • 48. यद्यसौ संतरणकौशलम् अज्ञास्यत् तर्हि जलात् नाभेष्यत्।
यदि वह तैरना जानता तो पानी से न डरता।
  • 49. वृक्षम् आरुह्य असौ सुगन्धिपुष्पसंभारां क्षुद्रशाखां बभञ्ज।
उसने पेड़ पर चढ़कर सुगन्धित पुष्पों से लदी हुई एक छोटी टहनी को तोड़ दिया।
  • 50. केन साधारणीकरोमि दुःखम्?
किसके साथ मैं अपना दुःख बाँट सकता हूँ?
  • 51. निद्राहारौ नियमात्सुखदौ।
निद्रा और आहार नियम के साथ सुख देने वाले होते हैं।
  • 52. बुभुक्षितं न प्रतिभाति किञ्चत्।
भूखे व्यक्ति को कुछ भी अच्छा नहीं लगता।
  • 53. शनैः शनैश्च भोक्तव्यं स्वयं वित्तमुपार्जितम्।
मनुष्य को स्वयं कमाए हुए धन का उपभोग धीर-धीरे करना चाहिये।
  • 54. विषयप्यमृतं क्वचिद् भवेदमृतं वा विषमीश्वरेच्छया।
ईश्वर की इच्छा से विष कहीं अमृत हो जाता है और अमृत कहीं विष हो जाता है।
  • 55. अङ्गारः शतधौतेन मलिनत्वं न मुञ्चति।
सौ बार धोने पर भी कोयला कालेपन को नहीं छोड़ता है।
  • 56. अतीत्य हि गुणान्सर्वान् स्वभावो मूर्ध्नि तिष्ठति।
स्वभाव सक गुणों को लांघकर सिर पर सवार रहता है।
  • 57. भूयोऽपि सिक्तः पयसा घृतेन न निम्बवृक्षो मधुरत्वमेति।
दूध अथवा घी से बार-बार सींची गई नीम भी मीठी नहीं हो सकती है।
  • 58. सर्वत्र विजयमिच्छेत् पुत्रात् शिष्यात् पराभवम्।
मनुष्य सब जगह विजय की ही इच्छा करे, किन्तु पुत्र और शिष्य से हार जाना पसन्द करे।
  • 59. स्थानभ्रष्टा न शोभन्ते दन्ताः, केशाः, नखाः, नराः।
अपने स्थान से गिरे हुए दाँत, बाल, नाखून और मनुष्य अच्छे नहीं लगते।
  • 60. सर्वस्य जन्तोर्भवति प्रमोदो विरोधिवर्गे परिभूयमाने।
अपने शत्रु-पक्ष की पराजय से सभी प्राणियों को प्रसन्नता होती है।
  • 61. यद्यपि शुद्धं लोकविरुद्धं नाचरणीयम्।
यद्यपि शुद्ध है, किन्तु लोक के विरुद्ध है, तो उसे नहीं करना चाहिये।
  • 62. रिक्तपाणिर्न पश्येत् राजानं देवतां गुरुम्।
राजा, देवता और गुरु से खाली हाथ नहीं मिलना चाहिये।
  • 63. यथा हि कुरुते राजा प्रजास्तमनुवर्तते।
राजा जैसा आचरण करता है प्रजा उसी का अनुसरण करती है।
  • 64. ये गर्जन्ति मुहुर्मुहुर्जलधरा वर्षन्ति नैतादृशाः।
जो बादल बार-बार गरजते हैं, वे बरसते नहीं।
  • 65. धर्मं जिज्ञासमानानां प्रमाणं परमं श्रृतिः।
धर्म को जानने की इच्छा करने वाले लोगों के लिए वेद परम प्रमाण है।
  • 66. यदेव रोचते यस्मै भवेत्तत्तस्य सुन्दरम्।
जो जिसे भा जाए, वही उसके लिए सुन्दर है।
  • 67. मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयोः।
मनुष्यों का मन ही समस्त बन्धनों का कारण है और वही इनसे मोक्ष कारण भी है।
  • 68. लिखितमपि ललाटे प्रोज्झितुं कः समर्थः?
ललाट पर लिखे को कौन मिटा सकता है?
  • 69. लोभात्क्रोधः प्रभवति लोभात्कामः प्रजायते।
लोभ से क्रोध होता है। लोभ से कामनाएँ होती है।

ग्राहक भगवान के समान है

  • 70. सन्तोषेण विना पराभवपदं प्राप्नोति सर्वो जनः।
ग्राहक भगवान के समान है
  • 71. यथा चिरकालं अन्नं न लभ्यते चेत् क्षुधा म्रियते, तथैव समये किमपि न प्राप्यते चेत् तस्य महत्त्वं समाप्तं भवति ।
जिस तरह लंबे समय तक खाना न म।