हिन्दी एकांकी का इतिहास/भारतेंदु और द्विवेदी युग

एकांकी का स्वरूप और काल विभाजन · प्रसाद युग

जिस प्रकार भारतेन्दु हिन्दी में अनेकांकी नाटकों के लिखने वालों में प्रथम नाटककार माने जाते हैं उसी प्रकार हिन्दी में सबसे पहला एकांकी भी उन्होंने ही लिखा। यद्यपि इस सम्बन्ध में विद्वानों में मतभेद अवश्य है। पिफर भी भारतेन्दु-प्रणीत ‘प्रेमयोगिनी’ (1875 ई.) से हिन्दी एकांकी का प्रारम्भ माना जा सकता है। आलोच्य युग में विषयगत दृष्टिकोण को सामने रखकर सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिकएवं सांस्कृतिक प्रवृत्तियाँउभरीं। समाज में प्रचलित प्राचीन परम्पराओं, कुप्रथाओं एवं स्वस्थ सामाजिक विकास में बाधक रीति-रिवाजों को दूर करने का प्रयास उन सामाजिक समस्या-प्रधान रचनाओंके माध्यम से किया गया। इन एकांकीकारों ने जहाँ सामाजिक कुरीतियों पर हास्य एवं व्यंग्यपूर्ण प्रहार किये वहीं सामाजिक नवनिर्माण के लिए भी समाज को प्रेरित एवं जाग्रत किया। इन रचनाओं के पात्र भारतीय जन-जीवन के जीवित एवं सजीव पात्र हैं जिनके संवादों द्वारा भारतीय भद्र जीवन में प्रविष्ट पाखण्ड एवं व्यभिचार का भण्डाफोड़ होता है। इस दृष्टि से भारतेन्दु-रचित ‘भारत-दुर्दशा’, प्रतापनारायण मिश्र रचित ‘कलि कौतुक रूपक’, श्री शरण-रचित ‘बाल-विवाह’, किशोरीलाल गोस्वामी-रचित ‘चौपट चपेट’, राधाचरण गोस्वामी-रचित ‘भारत में यवन लोक’, ‘बूढ़े मुंह मुहासे’ आदि महत्त्वपूर्ण रचनाएँ हैं जिनमें धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक रूढ़ियों एवं कुरीतियों पर तीखे व्यंग्य किये गये हैं। देवकीनन्दन रचित ‘कलियुगी उनेऊ’, ‘कलियुग विवाह’, राधाकृष्णदास रचित ‘दुखिनी बाला’, काशीनाथ खत्री रचित ‘बाल विधवा’ आदि रचनाएं भारतीय नारी के त्रस्त विवाहित जीवन का यथार्थ चित्रण हैं। सामाजिक भ्रष्टाचार का चित्रण कातिक प्रसाद खत्री-रचित ‘रेल का विकट खेल’ में मिलता है जिसमें रेलवे विभाग में रिश्वत लेने वालों का भण्डा-फोड़ किया गया है। समाज सुधार की परम्परा के पोषक इन एकांकीकारों के प्रयास के फलस्वरूप भारतीय समाज का यथार्थ चित्रण समाज के समक्ष उपस्थित हुआ तथा इन्हीं के द्वारा जन सामान्य को नवीन एवं प्रगतिशील विचारों को ग्रहण करने की प्रेरणा भी मिली। इन्हीं के प्रयासों का परिणाम था कि भारतीय जनता समाज में प्रचलित रूढ़ियों एवं परम्पराओं के प्रति घृणाभाव से भर उठी तथा उनके उन्मूलन के लिए कृत संकल्प हो गयी।

इस प्रकार भारतेन्दु युग नवचेतना और जागृति का युग था। देशभक्ति और राष्ट्रीयता का उन्मेष होने से इस काल के एकांकीकारों ने जन-जागृति के विचारों को मुखरित करने वालेनाटक लिखे। जिनमें भारत की तत्कालीन दुर्दशा, पराधीनता पर क्षोभ, अतीत की स्मृति, राष्ट्र में आत्म गौरव की भावना का जागरण, राष्ट्रहित, आशा-निराशा का द्वन्द्व, उज्जवल भविष्य आदि का चित्रण किया गया है। इस युग में सामाजिक नवजागरण के साथ-साथ राजनीतिक चेतना उत्पन्न करने का प्रयत्न भी किया गया है। इस सम्बन्ध में भारतेन्दु-कृत ‘भारत दुर्दशा’ एवं ‘भारत-जननी’, राधाकृष्ण गोस्वामी-कृत ‘भारत माता’ और ‘अमरसिंह राठौर’, राधाकृष्ण दास-कृत ‘महारानी पद्मावती’, रामकृष्ण वर्मा-कृत ‘पद्मावती’ ‘दीर नारी’ आदि उल्लेखनीय हैं। भारतेन्दु-कालीन एकांकियों की धार्मिक पौराणिक धाराके अन्तर्गत वे एकांकी आते हैं, जिनमें धार्मिक कथानकों के आधार पर भारतीय संस्कृति का आदर्श रूप प्रस्तुत किया गया है। इस क्षेत्र में भारतेन्दु जी के ‘सत्य हरिश्चन्द्र’ और ‘धनंजय’, लाला श्रीनिवासदास का ‘प्रींद चरित्र’, बदरीनारायण प्रेमघन का ‘प्रयाग राजा-गमन’, राधाचरण गोस्वामी का ‘श्रीदामा’ और ‘सती चन्द्रवली’ बालकृष्ण भट्ट का ‘दमयन्ती स्वयंवर’, जैनेन्द्र किशोर का ‘सोमावती’ अथवा ‘धर्मवती’, कार्तिक प्रसाद का ‘ऊषाहरण’, ‘गंगोत्तरी’, ‘द्रोपदी चीर हरण’ और ‘निस्सहाय हिन्दू’, मोहनलाल विष्णुलाल पाण्डया का ‘प्रींद’, खड्गबहादुर मल्ल का ‘हरतालिका’ आदि में धार्मिक कथानकों पर आधारित पौराणिक एकांकियों के माध्यम से सांस्कृतिक आदर्श प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया गया।

आलोच्य युग में हास्यव्यंग्य-प्रधानएकांकी सर्वाधिक लिखे गए जो प्रहसन की श्रेणी में आते हैं। ये प्रहसन धार्मिक और सामाजिक दोनों प्रकार के विषयों को अपने भीतर समेटे हुए हैं। इन प्रहसनों पर पारसी रंगमंच का सर्वाधिक प्रभाव है इसलिए उच्चकोटि का हास्य एवं व्यंग्य इनमें नहीं मिलता। पिफर भी सामाजिक क्षेत्र में बाल-विवाह, अनमेल विवाह, वेश्यागमन, मद्यपान, विलासप्रियता आदि पर व्यंग्य किया गया है और धार्मिक क्षेत्र में धार्मिक संकीर्णता और उसकी आड़ में किया पाखण्ड, पंडागिरी, कर्मकाण्ड, ज्योतिषियों की धोखेबाजी आदि पर आक्षेप किए गए हैं। इस प्रकार के एकांकियों में कमलाचरण मिश्र का ‘अद्भुत नाटक’, श्री जगन्नाथ का ‘वर्ण व्यवस्था’, माधोप्रसाद का ‘वैसाखनन्दन’, घनश्यामदास का ‘वृद्धावस्था-विवाह’, दुर्गाप्रसाद मिश्र का ‘प्रभात मिलन’, अम्बिकादत्त व्यास का ‘गौ-संकट’ और ‘मन की उमंग’, देवकीनन्दन त्रिपाठी का ‘जय नरसिंह की’, ‘सैकड़ों में दस-दस’, ‘कलयुगी जनेऊ’, ‘कलियुगी विवाह’, ‘एक एक के तीन तीन’, ‘बैल छः टके का’, ‘वेश्याविलास’ आदि, बालकृष्ण का ‘शिक्षादान’, खघगबहादुर मल्ल का ‘भारत-आरत’ आदि उल्लेखनीय हैं।

उपर्युक्त रचनाओं में से कुछ का उल्लेख नाटक के अन्तर्गत भी किया जाता है। वास्तव में ये एक अंक के नाटक ही हैं। एकांकी की परम्परा में आते हुए भी इन्हें सभी दृष्टियों से पूर्ण ‘एकांकी’ नहीं कहा जा सकता। इनमें एकांकी के कुछ तत्त्व अवश्य ढूँढ़े जा सकते हैं।

कुल मिलाकर विचार किया जाय तो ज्ञात होगा कि उस काल के एकांकी-साहित्य को प्रेरित करने वाली कई नाट्य शैलियाँ थीं : (क) संस्कृत की नाट्य परम्परा (ख) अंग्रेजी, बंगला, पारसी रंगमंच और (ग) लोक नाटक। आलोच्य युग के सभी एकांकीकारों ने इन्हें आत्मसात् किया। इस प्रकार इस युग में परम्परा के प्रभाव की प्रधानता रही। नए-नए प्रयोग होते रहे। इसलिए कला की सूक्ष्म दृष्टि इस काल के एकांकीकारों में भले न हों, पर वे आधुनिक एकांकियों के पूर्वगामी अवश्य हैं।