हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/कबीर
कबीर ग्रंथावली; माता प्रसाद गुप्त; लोकभारती प्रकाशन; साखी:-
साखी २२:साँच कौ अंग(1)
सम्पादनकबीर पूंजी साह की,तूं जिनि खोवै ख्वार।
खरी बिगूचनि होइगी,लेखा देती बार।।1।।
- जो पूँजी [तेरे पास] है वह शाह (स्वामी) की है, तू उसे, ऐ ख्वार [तिरस्कृत व्यक्ति], न खो डाले, [अन्यथा] जब लेखा देने की वेला होगी, तब खरी (बहुत) बिगूचनी (छीछालेदर) होगी।[१]
साखी २४: भेष कौ अंग
सम्पादनकबीर माला काठ की,कहि समझावै तोहि।
मन न फिरावै आपणां,कहा फिरावै मोहि।।5।।
- काष्ठ की माला तुझे यह कहकर समझा रही है, 'तू अपने मन को जब नहीं फिरा रहा है, तब तू मुझे क्या (किस लाभ के लिए) फिरा रहा है?'[२]
कबीर माला पहर्यां कुछ नहीं,गंठि हिरदा की खोइ।
हरि चरनौं चित्त राखिये,तौ अमरापुर होइ।।9।।
- माला पहनने से कुछ नहीं होता, [उसके स्थान पर] तू हृदय की ग्रन्थि को नष्ट कर; हरि के चरणों में चित्त को रक्खा जाए तो [अनायास ही] अमर लोक [अमृतत्व] की प्राप्ति हो जाए।[३]
कबीर केसौं कहा बिगाडिया,जे मुंडै सौ बार।
मन कौं काहे न मूंडिए,जामैं बिषै बिकार।।12।।
- केशों ने क्या बिगाड़ा है जो तू उन्हें सौ-सौ बेर मूंड़ता (मुंड़ाता) है? मन को क्यों न मूड़ा जाए, जिसमें विषयों का विकार है?[४]
साखी ३८: संम्रथाई कौ अंग (12)
सम्पादनकबीर साइं सूं सब होत है,बंदै थैं कुछ नांहि।
राई थैं परबत करै,परबत राई मांहि।।12।।
- स्वामी से ही सब-कुछ होता है, बंदे (सेवक) से कुछ भी नहीं होता है; वह (स्वामी) राई से पर्वत कर देता है, और पर्वत को राई में कर देता है।[५]
संदर्भ
सम्पादन- ↑ कबीर ग्रन्थावली-डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद, २००१, पृ॰७०-७१
- ↑ कबीर ग्रन्थावली-डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद, २००१, पृ॰७६
- ↑ कबीर ग्रन्थावली-डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद, २००१, पृ॰७६
- ↑ कबीर ग्रन्थावली-डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद, २००१, पृ॰७७
- ↑ कबीर ग्रन्थावली-डॉ॰ माताप्रसाद गुप्त, साहित्य भवन, इलाहाबाद, २००१, पृ॰१०५