हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/जयशंकर प्रसाद

  • बीती विभावरी जाग री! (लहर, लोकभारती प्रकाशन, २०००)
  • हिमालय के आँगन में (स्कन्दगुप्त : भारती भण्डार, इलाहाबाद, १९७३ ई.)

हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों को दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक-हार
जगे हम, लगे जगाने, विश्व लोक में फैला फिर आलोक
व्योम-तम-पुञ्ज हुआ तब नष्ट, अखिल संस्कृति हो उठी अशोक
विमल वाणी ने वीणा ली कमल-कोमल-कर में सप्रीत
सप्तस्वर सप्त सिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत
बचाकर बीज-रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत
अरुण-केतन लेकर निज हाथ वरुण पथ में हम बढ़े अभीत
सुना है दधीचि का वह त्याग हमारी जातीयता विकास
पुरन्दर ने पवि से है लिखा अस्थि-युग का मेरे इतिहास
सिंधु-सा विस्तृत और अथाह एक निर्वासित का उत्साह
दे रही अभी दिखाई भग्न मग्न रत्नाकर में वह राह
धर्म्म का ले लेकर जो नाम हुआ करती बलि, कर दी बंद
हम ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनन्द
विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म्म की रही धरा पर धूम
भिक्षु होकर रहते सम्राट दया दिखलाते घर-घर घूम
यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म्म की दृष्टि
मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि
किसीका हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं
हमारी जन्मभूमि थी यही, कहीं से हम आये थे नहीं
जातियों का उत्थान-पतन आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर
खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर
चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा सम्पन्न
हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न
हमारे सञ्चय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव
वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा में रहती थी टेव
वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान
वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य्य-संतान
जियें तो सदा उसी के लिये, यही अभिमान रहे, यह हर्ष
निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष[१]

संदर्भ सम्पादन

  1. स्कंदगुप्त, पंचम अंक