हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल)/मैथिलीशरण गुप्त
- रईसों के सपूत (भारतवासी, वर्तमान खंड; साहित्य सदन; झाँसी)
- छंद संख्या- १२४ से १२८
पद
सम्पादन
यों तो सभी का बीतता है बाल्यकाल विनोद में,
वे किन्तु सोते-जागते रहते सदा हैं गोद में।
इस भाँति पल कर प्यार में जब वे सपूत बड़े हुए,
उत्पात उनके साथ ही घर में अनेक खड़े हुए! ॥१२४॥[१]
श्रीमान शिक्षा दे उन्हें तो श्रीमती कहती वहीं---
“घेरो न लल्ला को हमारे, नौकरी करना नहीं!”
शिक्षे! तुम्हारा नाश हो, तुम नौकरी के हित बनी;
लो मूर्खते! जीती रहो, रक्षक तुम्हारे हैं धनी!!! ॥१२५॥
तीतर, लवे, मेंढे़, पतंगे वे लड़ाते हैं कभी,
वे दूसरों के व्यर्थ झगड़े मोल लाते हैं कभी।
दस, बीस उनके दुर्व्यसन हों तो गिने भी जा सकें,
पथ या विपथ है कौन ऐसा वे न जिस पर आ सकें! ॥१२६॥
निकले कि फिर दस पाँच चिड़ियाँ मार लाना है उन्हें,
बन्दूक़ ले, वन-जन्तुओं पर बल दिखाना है उन्हें।
घातक! तुम्हारी तो सहज ही शाम को यह सैर है,
पर उन अभागों से कहो, किस जन्म का, यह बैर है? ॥१२७॥
आया जहाँ यौवन उन्हें बस भूत मानों चढ़ गया,
जीवन सफल करणार्थ अब इनमें अपव्यय बढ़ गया!
सौन्दर्य्य के शशि-लोक में सब ओर उनके चर उड़े,
गुंडे, “पसीने की जगह लोहू” बहाने को जुड़े! ॥१२८॥
संदर्भ
सम्पादन- ↑ भारत-भारती-श्रीमैथिलिशरण गुप्त, साहित्य सदन, झाँसी, १९८४, पृ.११४