हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल) सहायिका/कबीर का धार्मिक आडंबर और कर्मकांड का विरोध

संत   कबीर   निर्गुण   भक्ति धारा के कवि   है।   भक्ति   काल   में   निर्गुण   भक्तों   में   कबीर   को   सर्वोच्च   स्थान   दिया   गया   है।   भारतभूमि  मे अनेक संत थे परन्तु कबीर जैसा कोई नही था । कबीर   का   अरबी   भाषा   में   अधिक जानकारी थी   वे   भक्त   और   कवि से     पहले   समाज   सुधारक   थे।   वे   सिकन्दर   लोदी   के   समकालीन   थे।   कबीर   की   भाषा   सधुक्कड़ी   थी   तथा   उसी   भाषा   में   कबीर   ने   समाज   में   व्याप्त   अनेक   रूढ़ियों   का   खुलकर   विरोध   किया   है।   हिन्दी   साहित्य   में   कबीर   के   योगदान   को   नकारा   नहीं   जा   सकता।   रामचन्द्र   शुक्ल   ने   भी   उनकी   प्रतिभा   मानते   हुए   लिखा   है   “ प्रतिभा   उनमें   बड़ी   प्रखर   थी। ” 1

कबीर   के   समय   में   देश   संकट   की   घड़ी   से   गुजर   रहा   था।   सामाजिक   व्यवस्था   पूरी   तरह   से   डगमगाई   हुई   थी।   अमीर   वर्ग, वैभव - विलासिता   का   जीवन   जी   रहा   था,   वहीं   गरीब   दो   वक्त   की   रोटी   के   लिए   तरस   रहा   था।   हिन्दू   और   मुस्लिम   के   बीच   जाति - पांति,   धर्म   और   मजहब   की   खाई   गहरी   होती   जा   रही   थी।   एक   महान   क्रान्तिकारी   कवि   होने   के   कारण   उन्होंने   समाज   में   व्याप्त   कुरीतियों,   बुराईयों   को   उजागर   किया।   संत   कबीर   भक्तिकालीन   एकमात्र   ऐसे   कवि   थे   जिन्होंने   राम - रहीम   के   नाम   पर   चल   रहे   पाखंड,   भेद - भाव,   कर्म - कांड   को   व्यक्त   किया   था।   आम   आदमी   जिस   बात   को   कहने   क्या   सोचने   से   भी   डरता   था,   उसे   कबीर   ने   बड़े   निडर   भाव   से   व्यक्त   किया   था।   कबीर   ने   अपनी   वाणी   द्वारा   समाज   में   व्याप्त   अनेक   बुराईयों   को   दूर   करने   का   प्रयास   किया।   उनके   साहित्य   में   समाज   सुधार   की   जो   भावना   मिलती   है।   उसे   हम   इस   प्रकार   से   देख   सकते   हैं।

धार्मिक   पाखण्ड   का   विरोध   करते   हुए   कबीर   कहते   हैं   भगवान   को   पाने   के   लिए   हमें   कहीं   जाने   की   जरूरत   नहीं   है।   वह   तो   घट - घट   का   वासी   है।   उसे   पाने   के   लिए   हमारी   आत्मा   शुद्ध   होनी   चाहिए।   भगवान   न   तो   मंदिर   में   है,   न   मस्जिद   में   है।   वह   तो   हर   मनुष्य   में   है।

जो तूं ब्रह्मण , ब्राह्मणी का जाया !

आन बाट काहे नहीं आया !! ”


अपने आप को ब्राह्मण होने पर गर्व करने वाले ज़रा यह तो बताओ की जो तुम अपने आप की महान कहते तो फिर तुम किसी अन्य रास्ते से जाँ तरीके से पैदा क्यों नहीं हुआ ? जिस रास्ते से हम सब पैदा हुए हैं, तुम भी उसी रास्ते से ही क्यों पैदा हुए है ?कोई आज यही बात बोलने की ‘हिम्मंत’ भी नहीं करता ओर कबीर सदियों पहले कह गए ।

“लाडू लावन लापसी ,पूजा चढ़े अपार

पूँजी पुजारी ले गया,मूरत के मुह छार !!”


कबीर कहते हैं कि आप जो भगवान् के नाम पर मंदिरों में दूध, दही, मख्कन, घी, तेल, सोना, चाँदी, हीरे, मोती, कपडे, वेज़- नॉनवेज़ , दारू-शारू, भाँग, मेकअप सामान, चिल्लर, चेक, केश इत्यादि माल जो चढाते हो, क्या वह बरोबर आपके भगवान् तक जा रहा है क्या ?? आपका यह माल कितना % भगवान् तक जाता है ? ओर कितना % बीच में ही गोल हो रहा है ? या फिर आपके भगवान तक आपके चड़ाए गए माल का कुछ भी नही पहुँचता ! अगर कुछ भी नही पहुँच रहा तो फिर घोटाला कहा हो रहा है ? ओर घोटाला कौन कर रहा है ? सदियों पहले दुनिया के इस सबसे बड़े घोटाले पर कबीर की नज़र पड़ी | कबीर ने बताया आप यह सारा माल ब्राह्मण पुजारी ले जाता है ,और भगवान् को कुछ नहीं मिलता, इसलिए मंदिरों में ब्राह्मणों को दान करना बंद करो।

पोथी पढ़ि पढ़ि जग मुआ, पंडित भया न कोय,

ढाई आखर प्रेम का, पढ़े सो पंडित होय।

अर्थ: बड़ी बड़ी पुस्तकें पढ़ कर संसार में कितने ही लोग मृत्यु के द्वार पहुँच गए, पर सभी विद्वान न हो सके। कबीर मानते हैं कि यदि कोई प्रेम या प्यार के केवल ढाई अक्षर ही अच्छी तरह पढ़ ले, अर्थात प्यार का वास्तविक रूप पहचान ले तो वही सच्चा ज्ञानी होगा।

साधु ऐसा चाहिए, जैसा सूप सुभाय,

सार-सार को गहि रहै, थोथा देई उड़ाय।

अर्थ: इस संसार में ऐसे सज्जनों की जरूरत है जैसे अनाज साफ़ करने वाला सूप होता है। जो सार्थक को बचा लेंगे और निरर्थक को उड़ा देंगे।

माला फेरत जुग भया, फिरा न मन का फेर,

कर का मनका डार दे, मन का मनका फेर।

अर्थ: कोई व्यक्ति लम्बे समय तक हाथ में लेकर मोती की माला तो घुमाता है, पर उसके मन का भाव नहीं बदलता, उसके मन की हलचल शांत नहीं होती। कबीर की ऐसे व्यक्ति को सलाह है कि हाथ की इस माला को फेरना छोड़ कर मन के मोतियों को बदलो या  फेरो।

जाति न पूछो साधु की, पूछ लीजिये ज्ञान,

मोल करो तरवार का, पड़ा रहन दो म्यान।

अर्थ: सज्जन की जाति न पूछ कर उसके ज्ञान को समझना चाहिए। तलवार का मूल्य होता है न कि उसकी मयान का – उसे ढकने वाले खोल का।