हिन्दी कविता (मध्यकाल और आधुनिक काल) सहायिका/घनानंद की विरह भावना
इनका जन्म १६८९ ई० में हुआ था।ये जाति के कायस्थ थें। ये मुगल बादशाह बहादुरशाह 'रंगीले' के मीर मुंशी थें। ये कविता में निपुण तथा संगीत में भी सिद्धहस्त थें। मुगल दरबार में इनका सम्मान इनके विरोधियों की ईर्ष्या कारण बन गया और वे इनके विरुद्ध षड्यंत्र करने लगे। ये सुजान नाम की एक नर्तकी या वेश्या से प्रेम करते थें। ऐसा प्रचलित है कि एक बार षड्यंत्रकारी दरबारियों की गुजारिश पर बादशाह ने इनसे गाने को कहा। इन्होंने टाल-मटोल कर इंकार कर दिया पर जब सुजान ने कहा तो गाने लगे पर बादशाह की ओर पीठ फेर कर और सुजान की ओर उन्मुख होकर। बादशाह को यह उपेक्षापूर्ण व्यवहार असह्य प्रतीत हुआ। उसने इन्हें दिल्ली छोड़ने का हुक्म दिया। दिल्ली छोड़ते समय इन्होंने सुजान से भी साथ चलने के लिए कहा पर उसने इंकार कर दिया। सुजान के नकारात्मक उत्तर से इनका ह्रदय आहत हुआ। इस सन्दर्भ में हिंदी साहित्य के इतिहास में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि - " जब ये चलने लगे तब सुजान से भी साथ चलने को कहा पर वह न गयी। इस पर इन्हें विराग उत्पन्न हो गया और ये वृन्दावन जाकर निम्बार्क सम्प्रदाय के वैष्णव हो गये और वहीं पूर्ण विरक्ति से रहने लगे।"
प्रेम की पीर के कवि के रूप में घनानंद - वैसे तो घनानंद की कविताओं में प्रेम के दोनों ही पक्षों, संयोग और वियोग की अनुभूति का सहज प्रकाशन मिलता है परन्तु फिर भी इनकी प्रसिद्धी 'प्रेम की पीर के कवि' के रूप में है। प्रेम की पीड़ा की तीव्र अनुभूति इनकी कविता में विचित्रता तथा इनकी अभिव्यक्ति में विलक्षणता उत्पन्न करती है। इनकी पीड़ा ऐसी है जो एक सीमा के बाद शब्दातीत हो जाती है इसलिए इनकी कविता में एक प्रकार का मौन है; बहुत कुछ अनकहा रह जाता है। परन्तु यह मौन, यह बहुत कुछ अनकहा ही हमें सब कुछ कह जाता है। घनानंद स्वछंद धारा के कवि है । रीतिकाल की अन्य कविताओं की रचना जैसा दरबारी अभिरुचि के अनुरूप अथवा शास्त्रीयता के प्रदर्शन के उद्देश्य से हुई है वैसी रचनाएँ इन्होनें नहीं की है। इन्होंने कविता नहीं की है बल्कि कविता तो इनसे सहज ही होती होती चली गयी है। भावानुभूति का आवेग इनके अंतर से कविता के रूप में प्रस्फुटित होता चला गया। इसीलिए इनकी कविता में सहजता है, सरलता है, किसी प्रकार का अनावश्यक प्रदर्शन नहीं है बल्कि भावों का सहज प्रवाह है। वास्तव में भाव ही काव्य की आत्मा है। भावविहीन कविता निरर्थक है तथा अलंकारादि बाह्य प्रदर्शनों के अत्यधिक प्रयोग से यह और भी दुरूह , बोझिल और प्रभावहीन हो जाती है। इन्होंने अपने काव्य में मुख्य रूप से काव्य के नैसर्गिक तत्वों को ही स्थान दिया है तथा इनकी कविता भी इनकी आतंरिक अनुभूति का सहज प्रकाशन मात्र है। इसीलिए इनकी कविता के अध्ययन और समीक्षा के मानक भी परंपरागत मानकों से भिन्न है। इनकी कविता को समझने की योग्यता के सम्बन्ध में इन्हीं के समकालीन कवि ब्रजनाथ जी लिखते हैं कि - " नेही महा, ब्रजभाषा-प्रवीन, औ सुंदरताई के भेद को जानै। जोग-वियोग की रीती में कोविद, भावना-भेद-स्वरुप को ठानै। चाह के रंग में भीज्यौ हियो, बिछुरें-मिले प्रीतम सन्ति न मानै। भाषा-प्रवीन, सुचंद सदा रहै, सो घन जी के कवित्त बखान ।।"
प्रेम - घनानंद को समझने के लिये, इनकी कविता का रसस्वादन करने के लिये सर्वप्रथम यह समझना आवश्यक है कि प्रेम या प्रीति क्या है? कोई भी वस्तु या व्यक्ति यदि आपके लिये उपयोगी है, आपको सुख पहुँचाता है तो उसके छिनने का भय या फिर अपने पास रखने का भाव लोभ कहलाएगा। लोभ जब उस वस्तु की पूरी जाति पर हो तब तक तो वह लोभ ही है परन्तु जब वही लोभ एक विशेष वस्तु या व्यक्ति पर स्थिर हो जाए तो वह प्रेम कहलाने लगता है। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने अपने प्रसिद्ध ग्रन्थ चिंतामणि के 'लोभ और प्रीति' नामक लेख में लिखा है - " जिस प्रकार का सुख या आनंद देनेवाली वस्तु के सम्बन्ध में मन की ऐसी भावना होते ही प्राप्ति, सानिध्य या रक्षा की प्रबल इच्छा जाग पड़े , लोभ कहलाता है ……………जहाँ लोभ सामान्य या जाति के प्रति होता है वहाँ वह लोभ ही रहता है जहाँ पर किसी जाति के किसी एक ही व्यक्ति के प्रति होता है वहाँ 'रूचि' या 'प्रीति' का पद प्राप्त करता है। लोभ सामन्योन्मुख होता है और प्रेम विशेषोन्मुख।"
घनानंद की विरहानुभूति - घनानंद विरह के कवि के रूप में प्रसिद्ध हैं। आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने भी इस सन्दर्भ में लिखा है कि, " यद्यपि इन्होंने संयोग और वियोग दोनों पक्षों को लिया है, पर वियोग की अंतर्दशाओं की ओर इनकी दृष्टि अधिक है। इसी से इनके वियोग सम्बन्धी पक्ष ही प्रसिद्ध है।"
वास्तव में इन्होंने संयोग के सुख को पूरी सम्पूर्णता के साथ भोगा है। संयोग की ये पूर्णता ही इनके वियोग वर्णन को प्रभावशाली बनाती है। संयोग में इन्हें जो तीव्र घनीभूत अनुभूति हुई उसी कारण इनका वियोग भी मर्मांतक सिद्ध हुआ। बिना संयोग के वियोग कैसे संभव है? संयोग के बिना वियोग के स्वर या तो काल्पनिक होंगे जो प्रभावहीन हो जाएँगे या फिर रहस्यात्मक। परन्तु घानन्द के साथ ऐसा नहीं है। इनका वियोग इसलिए प्रभावी और प्रसिद्ध है क्योंकि इनकी विरहानुभूति वास्तविक और लौकिक है। इन्होंने सुजान से खुलकर प्रेम किया, पूर्ण रूप से स्वतंत्र एवं स्वछंद होकर इसलिए इनकी विरहानुभूति भी बहुत ही मार्मिक हुई। इस तरह के विहानुभूति की वलक्षणता के ये हिंदी के एक मात्र कवि है। अपनी विरह की रचनाओं से ये हिंदी साहित्य के किसी भी काल के अन्य किसी भी कवि से बीस ठहरते है। इस मामले में छायावादी कवि भी इनसे पिछड़ जाते हैं क्योंकि उनका संयोग अपने आप में अपूर्ण होता है।
इनकी विरह-वेदना में ऐसी ताप है जिसके जिसके ज़िक्र भर से जीभ में छालें पर जाए और न कहें तो ह्रदय विरह वेदना को कैसे सहे?
" कहिये किहि भाँति दसा सजनि अति ताती कथा रास्नानि दहै।
अरु जो हिय ही मढ़ी घुटी रहौं तो दुखी जिय क्यौं करी ताहि सहै ।।"
घनान्द के जीवनवृत्त को देखकर यह स्पष्ट हो जाता है कि सुजान के व्यवहार से इनके ह्रदय को बड़ी ठेस पहुँची और ये ठेस इतनी मर्मान्तक सिद्ध हुई कि इसने इनके जीवन की दिशा ही बदल दी।वियोग के कारणों और रूपों की विवेचना करते हुए डॉ० रामचन्द्र तिवारी ने अपने मध्ययुगीन काव्य साधना नमक ग्रन्थ में लिखा है कि , " इन सभी वियोगों में सबसे अधिक मर्मांतक विश्वासघात-जनित वियोग होता है। यह जीवन की धारा को बदल देता है। घनानंद का वियोग इसी कोटि का है। इसने उनके जीवन की दिशा ही बदल दी। वे श्रृंगारी से भक्त हो गए।" घनानंद कभी भी सुजान की निष्ठुरता को भुला नहीं पाते हैं। इनका हृदय सुजान से फट जाता है, परन्तु ये उससे घृणा भी नहीं करते हैं । ये विरहानुभूति की ताप में तपते रहते हैं। सुजान से मिला अपकार और उसके बाद भी उसके प्रति इनका प्रेम तथा इनके व्यक्तिगत प्रेम का राधा-कृष्ण की प्रेम-मूर्ति में विलय, ये सब मिलकर इनके काव्य को विलक्षणता प्रदान करते हैं।
" तुम ही गति हौ तुम ही माटी हौ तुमहि पति हौ अति दीनन की।
नित प्रीति करौ गुन-हीनन सौ यह रीती सुजान प्रवीनन की।
बरसौ घनआनंद जीवन को सरसौ सुधि चातक छीनन की।
मृदुतौ चित के पण पै द्रित के निधि हौ हित कै रचि मीनन की ।।" प्रस्तुत पद में कृष्ण या सुजान को अलग करना दुष्कर है । घनानंद के वियोग सम्बंधित पदों में इनके आत्मा की कतार ध्वनि सुनी जा सकती है। इनके पद ऐसे लगते हैं मानों सुजान के प्रति इनके सन्देश हो। ऐसा ही एक और पद यहाँ द्रष्टव्य है जिसमें निवेदन और उपालम्भ के स्वर कितने स्पष्ट हैं-
" पाहिले अपनाय सुजान सो, क्यौं फिरि तेह कै तोरियै जू ।
निरधार आधार दै धार मझार दई गहि बाँह न बोरियै जू ।
घनआनंद अपने चातिक को गन बंधी लै मोह न छोरियै जू
रस प्याय कै ज्वाय, बढ़ाय कै आस, बिसास में यौं बिस घोरियै जू।।"
घनानंद के अतीत की सुन्दर प्रेमानुभूति अब विरहानुभूति का शूल बनकर हृदय में धँस गई है। अतीत के संयोग की मधुर स्मृतियाँ विरहाग्नि में घृत का कार्य कर रहीं हैं। इसी सन्दर्भ का एक पद यहाँ द्रष्टव्य है जिसमें एक रमणी अपने प्रिय को उसके अनीतिपूर्ण आचरण के लिए उपालम्भ देते हुए कहती है-
"क्यों हँसि हेरी हर्यो हियरा अरू क्यों हित कै चित चाह बधाई।
कहे को बोली सने बैननि चैननि मैं निसैन चढ़ाई ।
सो सुधि मो हिय में घनआनंद सालति क्यों हूँ काढ़ै न कढ़ाई।
मीत सुजान अनीति की पाटी इतै पै न जानिए कौन पढ़ाई।।"
वियोग में हृदय जलता है और आँखें बरसती है। इन आँखों को बरसना भी चाहिए क्योँकि इन्होंने ही तो प्रिय की सुन्दर छवि को हृदय तक पहुँचाया। हृदय का इसमें क्या दोष? पहले जो आँखें प्रिय की सुन्दर छवि
देख-देख कर प्रसन्न होती थी, तृप्त होती थी, वही आँखें अब दिन-रात अश्रु बहाती रहती है। आँखों की दीन दशा का घनानंद ने काफी अच्छा वर्णन किया है-
"जिनको नित नाइके निहारती ही तिनको रोवती हैं।
पल-पाँवड़े पायनी चायनी सौं अँसुवानि की धरणी हैं।
घनआनंद जान सजीवन को सपने बिन पाएई खोवति हैं।
न खुली-मुंदी जान परैं कछु थे दुखदाई जगे पर सोवती हैं॥"
इस संसार में सच्चा प्रेम करने वाले स्नेही लोग ऐसे ही कम दिखते हैं। जैसे ही दो प्रेमियों के बीच के प्रेम की सुगंध आभास लोगों को मिलता है उनके विपरीत हो जाते हैं। माता-पिता, भाई-बंधु, नाते-रिश्तेदार कोई साथ नहीं देता। यह समाज तो सदा से प्रेम विरोधी रहा है पर शायद विधाता को भी सच्चे प्रेमियों से चिढ़ है, तभी तो वह वियोग की सेना सजाकर प्रेमी युगलों पर टूट पड़ता है-
"इकतो जग मांझ सनेही कहाँ, पै कहूँ जो मिलाप की बास खिलै।
तिहि देखि सके न बड़ो विधि कूर, वियोग समाजहि साजि मिलै।"
इन्होंने सुजान से सच्चा प्रेम किया, अपना मन उसे समर्पित कर दिया। परन्तु सुजान ने उसे ठुकरा दिया। मन देने की पीड़ा वह क्या समझती क्योंकि वह तो सदा औरों का मन लिया करती थी-
"लै ही रहे हो सदा मन और को दैबो न जानत राजदुलारे।......
मो गति बूझि परै तब हो जब होहु धरिक हू आप ते न्यारे।।"
घनानंद के प्रेम की विशेषता - घनानंद के वियोग-वर्णन की सबसे बड़ी विशेषता यह है की उसमें निराशा के लिए कोई स्थान नहीं है, हर हाल में आशा बंधी हुई है। इन्हें अपने अंतर्मन की सच्ची पुकार पर भरोसा है की कभी तो यह प्रिय तक पहुंचेगी-
"रुई दिए रहोगे कहाँ लौ बहराइबै की, कबहूँ तो मेरी ये पुकार कान खोलिहै।"
अन्य सन्दर्भों में यह पहले ही बताया जा चूका है कि प्रेम में प्राण त्याग कर उसे कलंकित करने को इन्होंने कायरता माना है। इस सन्दर्भ में यह उल्लेखनीय है कि काव्य में वियोग की जिन दशाओं का वर्णन आचार्यों ने किया है, थोड़ा प्रयास करने पर लगभग उनमें से सभी इनकी कविता में मिल जाती है लेकिन मरण का वर्णन नहीं मिलता है। काव्यशास्त्र के विद्वान जिन विरह दशाओं का वर्णन करते हैं, वे हैं- अभिलाषा, चिंता, स्मृति, गुणकथन, उद्वेग, प्रलाप, उन्माद, व्याधि, जड़ता और मरण । इनमें मरण का वर्णन आचार्यों ने निषिद्ध किया है। यहाँ यह स्पष्ट करना उचित होगा की इन्होंने विरह-वर्णन इन विरह दशाओं के अनुरूप अथवा शास्त्रनुमोदित अन्य परम्पराओं के अनुरूप नहीं किया है। इनका विरह वर्णन तो इनके स्वयं के घनीभूत विरहानुभूति का स्फोट है। इसमें हृदय पक्ष की प्रबलता है, भावों की तीव्रता है, गहराई है। इसमें इनके ह्रदय की शाश्वत तड़प है। इनकी कविता शास्त्रीय कलात्मकता से विहीन है परन्तु इसमें अभिव्यक्ति की नैसर्गिक कलात्मकता है। कुल मिला कर इन्होंने जिस प्रकार परम्पराओं और मान्यताओं के परे जाकर सुजान से प्रेम किया उसी प्रकार शास्त्रीय परम्पराओं का खंडन कर विरह-वर्णन भी किया। एक सच्चे प्रेमी की वियोग में जो व्यथा होगी उसी की सीमा इनकी कविता है।