हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास/परिभाषा, स्वरूप और आवश्यकता

हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास
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परिभाषा, स्वरूप एवं आवश्यकता

परिभाषा सम्पादन

महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय की एक लघु पुस्तिका के अनुसार- "किसी भी भाषा के लिखने की व्यवस्था को लिपि कहते हैं।"

मानक हिंदी कोश के अनुसार- " लिपि किसी भाषा के ऐसे लघुत्तम ध्वनि अक्षरों का समूह है जो लिखने में प्रयुक्त होते हैं।"

एक अन्य परिभाषा के अनुसार भाषा को दृश्यमान, स्थायित्व प्रदान करने वाले यादृक्षिक परंपरागत वर्ण प्रतीकों की व्यवस्था लिपि कहलाती है।

स्वरूप सम्पादन

पृथ्वी पर मानव का जन्म कब हुआ? भाषा सभ्यता और लिपि का विकास कैसे हुआ? उसका आरंभिक जीवन कैसा रहा होगा? ऐसे अनेक प्रश्नों को लेकर विद्वानों में मतभेद है। लेकिन यह भी सत्य है कि मनुष्य ने अपने भावों की अभिव्यक्ति मौखिक रूप में की होगी। लेकिन इस मौखिक भावों को सुरक्षित रखने के लिए धीरे-धीरे उसे लिपिबद्ध करना प्रारंभ किया। उसने गुफाओं की दीवारों पर चित्र बनाएं एवं अन्य संकेतों के द्वारा लिपि का विकास किया। लेकिन इसमें लिपि के विकास में परिवर्तन होता रहा। लिपि का स्वरूप निम्न रूप में सामने आया-

१. धागा यह रस्सी के गांठ के रूप में।

२. पत्थरों को जोड़कर या इकट्ठा करके।

३. लकड़ी पर रंग-बिरंगे धागे लटका कर।

४. आकृति अंकित के रूप में।

मानव समाज ने अपने इन प्रारंभिक अनुभवों से पत्थर, लकड़ी, धातु और मिट्टी के बर्तन आदि पर रेखाएं खींचना प्रारंभ किया था। यह लिपि का प्रारंभिक स्वरूप था। इन्हीं रेखाओं के संकेतों का प्रयोग करने वाली लिपि लेख लिपि बन गई और धीरे-धीरे परिवर्तित होते हुए लिपि के वर्तमान स्वरूप तक पहुंच गई।

आवश्यकता सम्पादन

"आवश्यकता आविष्कार की जननी है", कहावत को लिपि के उद्भव और विकास का सूत्र मानना अधिक उचित है। लिपि की आवश्यकता के मूल मैं मनुष्य की अभिरुचि और जिज्ञासा हीं है। लिपि भाषा को स्थायित्व प्रदान करती है। लिपि का महत्व इस तथ्य से ज्ञात होता है कि प्राचीन काल में यदि लिपि होती तो अपेक्षाकृत अधिक लोक साहित्य भी जीवित होते।

भाषा और लिपि ने मानव को सभ्य बनाने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया है। लिपि के द्वारा ही मानव के भावों और विचारों का संरक्षण किया गया लिपि के अभाव में अनेक जातियों की भाषाएं विश्व की रंगमंच से विलीन हो गई। आज हम उन सब का नाम तक नहीं जानते।

भाषा और लिखने की कला यह दो विशेषताएं हैं जो मनुष्य को प्रत्यक्ष रूप से पशु से पृथक करती हैं। और जिनके सहारे वह निरंतर उन्नति के पथ पर अग्रसर होता है। भारत में लिपि की उत्पत्तिकर्ता ब्रह्मा को माना जाता है। बेबीलोन में इसका संबंध नेबो तथा मिस्र में याथ देवता के साथ जोड़ा जाता है। वर्तमान समाज के अनेक क्षेत्रों में जहां हमें मौखिक प्रयोग दृश्य मान होता है उसके पीछे लिपि हीं है।

उदाहरण- फिल्मों के गीत और संवाद पहले लिपिबद्ध होते हैं बाद में गायक और कलाकार उसे स्वर देते हैं।

लिपि भाषा को भी समृद्धि प्रदान करती है। वह भाषा और उसके मानक रूप का संरक्षण करती है। लिपि के माध्यम से ही शब्द अपने मूल रूप में रह पाते हैं। लिपि के माध्यम से ही हम भाषा संबंधी चिंतन करने में समर्थ होते हैं।

इस प्रकार कहा जा सकता है कि आधुनिक समाज के लिए भाषा भाषित रूप में ही नहीं अपितु अंकित रूप में भी अनिवार्य हो गई है। और अंकित के लिए लिपि का माध्यम अनिवार्य है।