हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास/भारोपीय भाषा परिवार और आर्यभाषाएँ

हिन्दी भाषा और उसकी लिपि का इतिहास
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भारोपीय भाषा परिवार सम्पादन

लगभग तीन हज़ार भाषाएँ संसार में बोली जाती है। ये सभी भाषाएँ किसी एक भाषा से ही निकली है। विद्वानों ने भाषाओं के पारिवारिक संबंधों को लगभग तेरह परिवारों में बॉटा है। ये इस प्रकार हैं: 1. द्रविड, 2. चीनी, 3. सेमेटिक, 4. हेमेटिक, 5. आगनेय, 6. यूराल-अल्टाइक, 7. बाँदू, 8. अमरीकी (रेड-इंडियन), 9. काकोशस, 10. सूडानी, 11. बुशमैन, 12. जापानी-कोरियाई तथा 13. भारोपीय।

हिन्दी का संबंध भारोपीय परिवार से है। यह परिवार भारत तथा युरोप और उसके आसपास फैला हुआ है। इसलिए इसे भारत-यूरोपीय या भारोपीय कहते हैं। अनेक शास्त्रों, विज्ञान व भाषा विज्ञान के अनुसार इन भाषाओं के बोलने वाले मूलतः यूराल पर्वत के दक्षिण - पूर्व में स्थित किरगीज़ के मैदानों में थे। इस परिवार को समय - समय पर कई नामों से अभिहित किया जैसे — इंडो-जर्मनिक, इंडो-केल्टिक, 'आर्य' आदि। किंतु अब भारोपीय ( इंडो यूरोपियन ) नाम से ही चलता है। मूल भारोपीय भाषा का व्याकरण जटिल था तथा अपवादों की संख्या बहुत अधिक थी। इस भाषा के अपने शब्द तो थे परंतु अन्य भाषाओं से भी अनेक शब्द लिए, जैसे सुमेरी भाषा से 'गुद' (गाय), उरुदु (लोहा) तथा अक्कादी से पिलक्कु (परशु) आदि। इस परिवार की भाषाओं को दो वर्गों में जैसे सतम् एवं केतुम् में रखा है।

केतुम् में तोरवारियन, केल्टिक, जर्मनिक, इटैलिक, ग्रीक तथा इलीरियन आती है। जबकि सतम् में अल्बानियन, आर्मीनियन, बाल्टो-स्लाविक, थेसो-फ्रीज़ियन तथा भारत-ईरानी भोरोपीय। इस भारत-ईरानी शाखा को 'आर्यशाखा' कहते थे। भारत-ईरानी लोग ओक्सस घाटी के पास आए तथा वहाँ से एक भाग उनका ईरान चला गया, दूसरा कश्मीर तथा आसपास एवं तीसरा भारत।

भारत - ईरानी, भाषियों जिनके संपर्क में आए उनके संस्कृतियों से भी शब्द लिए जैसे असीरियन से उन्होंने 'असुर' तथा 'मन' शब्द लिए। इस भाषा की तीन शाखाएँ हुईं:

  1. ईरानी: जिसमें प्राचीन फारसी, अवेस्ता, पहलवी, फारसी आदि।
  2. दरद: जिसमें कश्मीरी, शिणा, चित्ताली आदि।
  3. भारतीय: इसमें भारत की आर्य भाषाएँ।

भारतीय आर्यभाषाएँ सम्पादन

भारतीय आर्यभाषा भारतीय आर्यभाषा का इतिहास भारत में आर्यों के आने के बाद शुरु हुआ। विभिन्न क्षेत्रों में अधुनातम शोधों से किसी भी ऐसी जाति का पता नहीं चला जिसे यहाँ का निवासी माना जाए। यहाँ सभी जातियाँ समय-समय पर बाहर आई जिनमें प्रमुख तीन हैं:

  1. नेग्रिटो: ये मूलतः अफ्रीका के निवासी थे। ये लोग, ईरान, दक्षिणी अरब होते हुए भारत आए तथा पूरे भारत में फैल गए। इनमें से कुछ असम, बर्मा तथा अंडमान पहुँचे।
  2. ऑस्ट्रिक: ये लोग ईराक, ईरान होते हुए भारत आए तथा इंडोनेशिया होते हुए आस्ट्रेलिया पहुँच गए। भारत की कोल, मुण्डा, खासी, मोनख्मेर, निकोबारी भाषाएँ इन्हीं की हैं। आस्ट्रिक भाषाओं ने भारतीय आर्य भाषाओं को कई रूपों में प्रभावित किया। कार्पास, कदली, बाण, ताम्बूल, पिनाक, गंगा, लिंग, कम्बल आदि अनेक शब्द ऑस्ट्रिको से मिले हैं। पान, सुपारी, लौकी, बैंगन, हल्दी, कुत्ता, मुर्गी पालना सभी इन्हीं की देन हैं।
  3. किरात: किरात लोग मूलतः क्यांग नदी के मुहाने के पास आदि मंगोल थे। इनकी एक शाखा चीनी सभ्यता एवं संस्कृति की निर्माता बनते हुए उत्तरी पहाड़ी भागों, पंजाब, उत्तर प्रदेश, राजस्थान, बिहार, आसाम, बंगाल एवं उड़ीसा में फैल गई। इसकी प्रमुख भाषाएँ - मेइथेइ, कचिन, नगा, गारो, बोडो, लोलो, लेप्चा तथा नेवारी आदि थी। खोरवा, हिन्दी, पंजाबी का खोरवा, लकड़ी का छोटा घर, फेटा आदि शब्द इन्हीं के हैं।
  4. द्रविड़: इन लोगों का मूल स्थान अफ्रीका है तथा वहाँ से ये लोग भूमध्यसागर होते हुए ईरान, अफगानिस्तान से पूर्वी भारत ( असम, बंगाल ) तक फैल गए। आज तमिल, तेलगु, कन्नड़, मलयालम, तल, कोलकी, टोडा, गोंड, खन्द इनकी भाषाएँ पाई जाती है। हिंदू धर्म के शिव - पार्वती, देवी, हनुमान, गरुड़, पिंडदान, संस्कार आदि द्रविड़ है। व्याकरणिक क्षेत्र में ये प्रयोग संस्कृत से पालि में, पालि से प्राकृत में तथा प्राकृत से अपभ्रंश में और अपभ्रंश से आधुनिक भाषाओं में आए।