हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )/राष्ट्रीय काव्य धारा

हिन्दी साहित्य का इतिहास (आधुनिक काल )
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राष्ट्रीय काव्यधारा

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हिंदी साहित्य जिन दिनों छायावादी दौर से गुजर रहा था। उन्हीं दिनों छायावादी काव्य धारा के समानांतर और उतनी ही शक्तिशाली एक और काव्य धारा भी प्रवाहमान थी। "माखनलाल चतुर्वेदी, बालकृष्ण शर्मा नवीन, सुभद्रा कुमारी चौहान, रामधारी सिंह दिनकर" आदि इस धारा के प्रतिनिधि कवि हैं जिन्होंने राष्ट्रीय सांस्कृतिक संघर्ष को स्पष्ट और उग्र स्वर में व्यक्त किया है। छायावाद में राष्ट्रीयता के स्वर प्रतीकात्मक रूप में तथा शक्ति और जागरण गीतों के रूप में मिलता है। इसके बजाय माखनलाल चतुर्वेदी अपने 'वीरव्रती' शीर्षक कविता में लिखते हैं ---

"माधुरी वंशी रणभेरी का डंका हो अब ।
नव तरुणाई पर किसको क्या शंका हो अब ।।"

बालकृष्ण शर्मा नवीन 'विप्लव गान' की रचना करते हैं ---

"एक और कायरता कांपे गतानुगति वीगलीत हो जाए ।

अंधे मूड विचारों की वह अचल शीला विचलित हो जाए ।।"

सुभद्रा कुमारी चौहान ने 'झांसी की रानी' के रूप में पूरा वीरचरित ही लिख दिया---

"जाओ रानी याद करेंगे ये कृतज्ञ भारतवासी ।
तेरा ये बलिदान जगाएगा स्वतंत्रता अविनाशी ।।"

किन्तु छायावाद की सीमा रेखा इस धारा की सीमा रेखा नहीं है। इसने पूर्ववर्ती मैथिलीशरण गुप्त और परवर्ती दौर में भी रामधारी सिंह दिनकर के साथ अपना स्वर प्रखर बनाए रखा।

हिंदी की राष्ट्रीय काव्यधारा के समस्त कवियों ने अपने काव्य में देशप्रेम व स्वतंत्रता के उत्कट भावना की अभिव्यक्ति दी है। राष्ट्रीय काव्यधारा के प्रणेता के रूप में माखनलाल चतुर्वेदी की 'हिमकिरीटनी','हिमतरंगिणी', 'माता', 'युगचरण', 'समर्पण' आदि के काव्य कृतियों के माध्यम से उनकी राष्ट्रीय भावछाया से अवगत हुआ जा सकता है।

सन् 1921 ई. में 'कर्मवीर' के सफल संपादक माखनलाल चतुर्वेदी जी को जब देशद्रोह के आरोप में जेल हुई तब कानपुर से निकलने वाले गणेश शंकर विद्यार्थी के पत्र 'प्रताप' और महात्मा गांधी के 'यंग इंडिया' ने उसका कड़ा विरोध किया।

"मुझे तोड़ लेना वनमाली, देना तुम उस पथ पर फेंक।
मातृभूमि पर शीश चढ़ाने जिस पथ पर जाते वीर अनेक ।"

'पुष्प की अभिलाषा' शीर्षक कविता की चिरंजीवी पंक्तियाँ उस भारतीय आत्मा की पहचान कराती है। जिन्होंने स्वतंत्रता के दुर्गम पथ में यातनाओं से कभी हार नहीं मानी।

"जो कष्टो से घबराऊं तो मुझमें कायर में भेद कहां ।
बदले में रक्त बहाऊं तो मुझमें डायर में भेद कहां ।।"

राष्ट्रीय काव्यधारा के अगली कड़ी के रूप में बालकृष्ण शर्मा नवीन का नाम आता है जिन्होंने सन् 1920 में गांधीजी के आह्वाहन पर कॉलेज छोड़कर आंदोलन में कूद पड़े। इन्हें 10 बार जेल जाना पड़ा है उन दिनों जेल ही कवि का घर हुआ करता था।

"हम संक्रांति काल के प्राणी बदा नही सुख भोग ।
घर उजाड़ कर जेल बसाने का हमको है रोग ।।"

इनकी प्रमुख रचनाएँ हैं—'कुंकुम', 'कुवासी', 'उर्मिला' आदि। यह अपनी प्रथम काव्य संग्रह 'कुंकुम' की जाने पर 'प्राणार्पण', 'आत्मोत्सर्ग' तथा 'प्रलयंकर' कविता संग्रह में क्रांति गीतों की ओजस्विता एवं प्रखरता है।

"यहां बनी हथकड़िया राखी साखी है संसार ।
यहां कई बहनों के भैया, बैठे हैं मनमार ।।"

राष्ट्रीय काव्यधारा को विकसित करने वाली सुभद्रा कुमारी चौहान की 'त्रिधारा' और 'मुकुल की राखी' 'झांसी की रानी' 'वीरों का कैसा हो बसंत' आदि कविताओं में तीखे भावों की पूर्ण भावना मुखरित है।'जलियांवाला बाग में बसंत' कविता में इस नृशंस हत्याकांड पर कवियित्री के करुण क्रंदन से उसकी मूक वेदना मूर्तिमान हो उठी है।

"आओ प्रिय ऋतुराज, किंतु धीरे से आना ।

यह है शोक स्थान, यहां मत शोर मचाना ।।
कोमल बालक मरे यहां गोली खा–खा कर ।

कलियां उनके लिए चढ़ाना थोड़ी सी लाकर ।।"

दिनकर ने 'हुंकार', 'रेणुका', 'विपथगा', 'उर्वशी', 'इतिहास के आंसू' आदि में कवि ने साम्राज्यवादी सभ्यता और ब्रिटिश राज के प्रति अपनी प्रखर ध्वंसात्मक दृष्टि का परिचय देते हुए क्रांति के स्वरों का आह्वाहन किया।

"उठो–उठो कुरीतियों की राह तुम रोक दो ।
बढ़ों–बढ़ों की आग में गुलामियों को झोंक दो ।।"

सोहनलाल द्विवेदी की 'भैरवी राणाप्रताप के प्रति', 'आजादी के फूलों पर जय-जय', 'तैयार रहो', 'विप्लव गीत कविताएं', 'युग की पुकार' ,'युगधारा' काव्य संग्रह में स्वतंत्रता के आह्वाहन तथा राष्ट्रीयता के स्वर फूटे हैं। उन सब के तल में प्रेम की अविरल का स्रोत बहाता कवि वंदनी मां को नहीं भूल सका है---

"कब तक क्रूर प्रहार सहोगे

कब तक अत्याचार सहोगे
कब तक हाहाकार सहोगे
उठो राष्ट्र के हे अभिमानी

सावधान मेरे सेनानी ।।"


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