कार्यालयी हिंदी/विज्ञापन की भूमिका और समस्याएँ

विज्ञापन की भूमिका सम्पादन

(Krishna Thakur SACE) जनसंचार के विभिन्न माध्यम, आकाशवाणी, दूरदर्शन, फिल्म तथा समाचार पत्र आदि है। इन माध्यमों में विज्ञापन का विशेष स्थान है। विज्ञापन वर्तमान व्यापार की जीवन-संजीवनी माना जाता है। विज्ञापन शब्द अंग्रेजी के (Advertisement) का हिन्दी रूपान्तरण है। जो 'ज्ञापन' शब्द के साथ 'वि' उपसर्ग के योग से बना है। जिसका व्युत्पतिक अर्थ है- विशेष रूप से सूचित या ज्ञापन कराना। सामान्यत: विज्ञापन का सम्बन्ध व्यापार विशेष से जुडा़ हुआ है। आधुनिक अर्थ में विज्ञापन उस कला को कहते हैं जिससे उत्पादित वस्तुओं की अधिकाधिक जानकारी कराये, उनको खरीदने की लालसा बढ़ाएँ,और वस्तु की चाह उत्पन्न कर माँग में वृध्दि करे। विज्ञापन लोगों को वस्तु के बारे में संक्षिप्त शब्दों में अधिक-से-अधिक जानकारी देता है तथा सम्बन्धित उत्पादित वस्तु के बारे में उपभोक्ता के मन में विश्वसनीयता पैदा करने की पूरी कोशिश करता है। डाँ. डबरन की परिभाषा द्रष्टव्य है- " विज्ञापन के अन्तर्गत वे सब क्रियाएँ आ जाती हैं, जिनके अनुसार दृश्यमान अथवा मौखिक सन्देश जनता को सूचना देने के उद्देश्य से तथा उन्हें या तो किसी वस्तु को क्रय करने के लिए अथवा पूर्व निशि्चत विचारों, संस्थाओं, व्यक्तियों के प्रति झुक जाने के उद्देश्य से सम्बोधित किये जाते हैं। अत: संक्षेप में कहा जा सकता है- विज्ञापन जनसम्पर्क का एकमात्र ऐसा शक्तिशाली साधन है जिसके माध्यम से उत्पादित-वस्तु के बारे में प्रभावी सूचना द्दारा उपभोक्ता के मन में विश्वास पैदा कर उसके क्रम हेतु उन्हें व्यापक पैमाने पर प्रेरित किया जाता है। बाजार एवं अर्थ-व्यवस्था की अलग-अलग स्थिति एवं सन्दर्भ के अनुसार विज्ञापन का स्वरूप भी बदलता है। विज्ञापन के कई भेद हो सकते है; जैसे- लिखित या मुद्रित, मौखिक, श्राव्य, दृक्श्राव्य आदि। विज्ञापन के अन्य माध्यमों की अपेक्षाजन-संचार माध्यमों द्दारा प्रस्तुत विज्ञापन अधिक प्रभावी तथा सफल पाये जाते है।

विज्ञापन की समस्याएँ सम्पादन

स्वतन्त्रता के बाद हिन्दी राजभाषा भाषा रूप में प्रतिष्ठापित हुई जिसके फलस्वरूप कामकाज तथा जनसंचार के लिए प्रयोजनमूलक हिन्दी को अपनाया गया। लेकिन आजादी के बाद सभी भारतीय भाषाओं के भितर अस्मिता तथा गौरव का भाव जाग्रित हुई। यधपि अभी भी अंग्रेजी का वर्चस्व और हमारी मानसिक से कम नहीं हुआ है। दक्षिण-भारत हमेशा से राष्टभाषा हिन्दी के रूप में विरोध करती आयी है। यधपि प्रादेशिक स्तर पर विविध प्रादेशिक भाषाओं में विज्ञापन दिये जाते हैं, परन्तु अन्तरप्रादेशिक स्तरीय विज्ञापन-माध्यमों में अंग्रेजी तथा हिन्दी का प्रयोग ही बडे़ पैमाने पर किया जाता है। आज भी सरकारी तथा अर्धसरकारी कार्यालयों में सम्पर्क-भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रयोग होता है, परन्तु जन-सम्पर्क-भाषा के रूप में सामान्य जनता हिन्दी का प्रयोग ही करती है। अत: विज्ञापन की भाषा के रूप में अभी भी विभिन्न कठिनाइयों का सामना करना पड़ रहा है।

१) मौलिक हिन्दी विज्ञापनों का अभाव:- हिन्दी में प्राय: मौलिक विज्ञापन लेखन के बजाय अंग्रेजी विज्ञापन के अनुवाद का कार्य अधिक होता है। मूल विज्ञापन अंग्रेजी भाषा और उसके साथ जुडी़ अंग्रेजी-मनोभूमि के परिप्रेक्ष्य में बनाये जाते है। उन विज्ञापनों का हिन्दी में उल्था कई विसंगतियों को पैदा करता है। इसलिए कभी-कभी कुछ विज्ञापन नेत्र सुख देते हैं, परन्तु पल्ले कुछ नहीं पड़ता। उदाहरण- दूरदर्शन के लिए बार-बार आनेवाला 'ओनीडा' का विज्ञापन। विज्ञापन की सफलता सर्वाधिक मात्रा में जनमानस की पहचान और उसके अनुरूप भाषा प्रयोग में होती है। पाश्चात्य समाज और भारतीय समाज की मानसिकता में पर्याप्त अन्तर होता है- यह अन्तर न तो अंग्रेज समझ सकते और न ही अंग्रेज-दाँ। अत: भारतीय जन-मानस के अनुरूप मौलिक विज्ञापनों के निर्माण की दिशा में प्रयास होने चाहिए ।

२) विज्ञापन आलेखकों के प्रति उपेक्षात्मक दृष्टिकोण:- हमारे यहाँ व्यावसायिक लेखन करनेवाले को उपेक्षात्मक दृष्टिकोण से देखा जाता है। इसलिए प्रतिभाशाली लेखक इससे दूर ही रहते हैं। विज्ञापन-तन्त्र तथा भाषा में समान गति पाने वाले आलेखकों का अभाव पाया जाता है। अत: विज्ञापन की सफलता बहुत कुछ आलेखक पर निर्भर होती है।

३) अपरिवर्तनीय विज्ञापन-शब्दावली का अभाव:- अंग्रेजी में विज्ञापन का अध्ययन तथा निर्माण का कार्य लम्बे समय से चल रहा है। इसलिए उसके पास विभिन्न क्षेत्रों की ज्ञान-विज्ञान की शब्दावली का तैयार भण्डार है। उसे शब्द के लिए यहाँ-वहाँ भटकना नहीं पड़ता। जबकि हिन्दी के पास विज्ञापन लेखन की लम्बी परम्परा नहीं है। ज्ञान-विज्ञान की जो पारिभाषिक शब्दावली उसके पास हैं, वह मात्र परिभाषिक कोषों में बन्द है। उसका व्यवहार उस मात्रा में नहीं होता कि जन-मानस में उसका प्रचलन हो। इस दिशा में अब कार्य हो रहा है। हिन्दी अभी इन विषयों को अंग्रेजी शब्दावली के पर्याय तथा इन विषयों की जानकारी को जुटाने की प्रक्रिया में हैं।

४)सम्पर्क भाषा की विभिन्न रूपता:- हिन्दी तथा हिन्दीतर प्रदेशों में सम्पर्क भाषा हिन्दी के विभिन्न रूप व्यवहत है। हिन्दी प्रदेशों में भी व्यावहारिक हिन्दी में एकरूपता नहीं हैं। आम जनता अपने क्षेत्र की बोली का प्रयोग करती है। सरकारी तौर पर भी इस दिशा में सार्थक प्रयास नहीं हुए की कम-से-कम हिन्दी प्रदेशों में सम्पर्क भाषा के रूप में एक समान शब्दावली का निर्माण हो। सम्पर्क भाषा के रूप में हिन्दी तर क्षेत्रों में कई रूप पाये जाते हैं। पंजाबी, नागपुरी, महाराष्टी, कानडी़, कश्मीरी, तमिल, तेलगु,केरली, बंगाली आदि के शब्द , उच्चारण-व्याकरण आदि का प्रभाव इस पर देखा जा सकता है। बहुभाषिक महानगरों में इन प्रादेशिक भाषाओं के साथ अंग्रेजी का भी प्रयाप्त प्रभाव देखा जा सकता है।ऐसी स्थिति में विज्ञापन के लिए किस रूप को अपनाएँ बडी़ समस्या बन जाती है। और पूरी तरह मानक भाषा को अपनाना विज्ञापन में सम्भव नहीं है।

५) लिपि-समस्या:- विज्ञापन में लिखित भाषा के रूप में प्रयुक्त करते समय लिपि समस्या का सामना करना पड़ता है। हिन्दीतर प्रदेशों में हिन्दी बोली-समझी जाती है। महाराष्ट जैसे कुछ प्रान्तों को छोड़कर हिन्दी की देवनागरी लिपि हर कोई जानता है। यधपि आर्य परिवार की भाषाओं की लिपि में बहुत साम्य है, इस क्षेत्र के लोग हिन्दी जानते है, परन्तु देवनागरी सीखने में आसनी नहीं महसूसते। इसलिए बहुत बार हिन्दी-विज्ञापनों में भी देवनागरी लिपि की जगह रोमन लिपि का प्रयोग किया जाता है। दूसरी समस्या हिन्दी वर्तनी की भी है। संयुक्त अक्षर, पूर्ण-विराम, एक से अधिक ध्वनि-चिन्ह आदि की समस्याएँ लिखित भाषा के रूप में हिन्दी का प्रयोग करते समय सामने आती है।

संदर्भ सम्पादन

१. प्रयोजनमूलक हिन्दी: सिध्दान्त और प्रयोग--- दंगल झाल्टे। पृष्ठ-- २१३,२१४

२. प्रयोजनमूलक हिन्दी--- माधव सोनटक्के । पृष्ठ-- १८८,२००-२०४

३. प्रयोजनमूलक हिन्दी--- विनोद गोदरे। पृष्ठ-- १९३,२०२