चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक अन्तःकथा

चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)
एक अन्तःकथा


अग्नि के काष्ठ

खोजती माँ

बीनती नित्य सूखे डंठल

सूखी टहनी, रूखी डालें

घूमती सभ्यता के जंगल

वह मेरी माँ

खोजती अग्नि के अधिष्ठान

मुझमें दुविधा

पर माँ की आज्ञा से समिधा

एकत्र कर रहा हूँ

मैं हर टहनी में डंठल में

एक-एक स्वप्न देखता हुआ

पहचान रहा प्रत्येक

जतन से जमा रहा

टोकरी उठा, मैं चला जा रहा हूँ

टोकरी उठाना... चलन नहीं

वह फ़ैशन के विपरीत

इसलिए निगाहें बचा-बचा

आड़े-तिरछे चलता हूँ मैं

संकुचित और भयभीत

अजीब-सी टोकरी

कि उसमें प्राणवान् माया

गहरी कीमिया

सहज उभरी फैली-सँवरी

डंठल-टहनी की कठिन साँवली रेखाएँ

आपस में लग यों गुँथ जातीं

मानो अक्षर नवसाक्षर खेतिहर के-से

वे बेढब वाक्य फुसफुसाते

टोकरी विवर में से स्वर आते दबे-दबे

मानो कलरव गा उठता हो धीमे-धीमे

अथवा मनोज्ञ शत रंग-बिरंगी विहंग गाते हों

आगे-आगे माँ

पीछे मैं;

उसकी दृढ़ पीठ ज़रा-सी झुक

चुन लेती डंठल, पल-भर रुक

वह जीर्ण नील वस्त्र

है अस्थि-दृढ़

गतिमती व्यक्तिमत्ता

कर रहा अध्ययन मैं उसकी मज़बूती का

उसके जीवन से लगे हुए

वर्षा गरमी सर्दी और क्षुधा-तृषा के वर्षों से

मैं पूछ रहा—

टोकरी विवर में पक्षी स्वर

कलरव क्यों हैं

माँ कहती—

सूखी टहनी की अग्नि-क्षमता

ही गाती है पक्षी स्वर में

वह बंद आग है खुलने को।

मैं पाता हूँ

कोमल कोयल अतिशय प्राचीन

व अति नवीन

स्वर में पुकारती है मुझको

टोकरी विवर के भीतर से।

पथ पर ही मेरे पैर थिरक उठते

कोमल लय में।

मैं साश्रुनयन, रोमांचित तन, प्रकाशमय मन।

उपमाएँ उद्घाटित-वक्षा मृदु स्नेहमुखी

एक-टक देखती मुझको—

प्रियतर मुस्काती

मूल्यांकन करते एक-दूसरे का

हम एक-दूसरे को सँवारते जाते हैं

वे जगत्-समीक्षा करते-से

मेरे प्रतीक रूपक सपने फैलाते हैं

आगामी के।

दरवाज़े दुनिया के सारे खुल जाते हैं

प्यार के साँवले क़िस्सों की उदास गलियाँ

गंभीर-करुण मुस्कुराहट में

अपना उर का सब भेद खोलती हैं।

अनजाने हाथ मित्रता के

मेरे हाथों में पहुँच ऊष्मा करते हैं

मैं अपनों से घिर उठता हूँ

मैं विचरण करता-सा हूँ एक फ़ैंटेसी में

यह निश्चित है कि फ़ैंटेसी कल वास्तव होगी।

मेरा तो सिर फिर जाता है

औ’ मस्तक में

ब्रह्मांड दीप्ति-सी घिर उठती

रवि-किरण-बिंदु आँखों में स्थिर हो जाता है।

सपने से जगकर पाता हूँ सामने वहीं

बरगद के तने सरीखी वह अत्यंत कठिन

दृढ़ पीठ अग्रयायी माँ की

युग-युग अनुभव का नेतृत्व

आगे-आगे

मैं अनुगत हूँ।

वह एक गिरस्तिन आत्मा

मेरी माँ

मैं चिल्लाकर पूछता—

कि यह सब क्या

कि कौन-सी माया यह!

मुड़ करके मेरी ओर सहज मुस्का

वह कहती है—

आधुनिक सभ्यता के वन में

व्यक्तित्व-वृक्ष सुविधावादी।

कोमल-कोमल टहनियाँ भर गईं अनुभव-मर्मों की

यह निरुपयोग के फलस्वरूप हो गया।

अंतर्जीवन के मूल्यवान् जो संवेदन

उनका विवेक-संगत प्रयोग हो सका नहीं

कल्याणमयी करुणाएँ फेंकी गईं

रास्ते पर कचरे जैसी,

मैं चीन्ह रही उनको।

जो गहन अग्नि के अधिष्ठान

हैं प्राणवान्

मैं बीन रही उनको

देख तो

उन्हें सभ्यताभिरुचिवश छोड़ा जाता है

उनसे मुँह मोड़ा जाता है

यम नहीं किसी में

उनको दुर्दम करे

अनलोपम स्वर्णिम करे।

घर के बाहर आँगन में मैं सुलगाऊँगी

दुनिया-भर को उनका प्रकाश दिखलाऊँगी।

यह कह माँ मुस्काई,

तब समझा

हम दो

क्यों भटका करते हैं, बेगानों की तरह, रास्तों पर।

मिल नहीं किसी से पाते हैं

अंतस्थ हमारे प्ररयितृ अनुभव

जम नहीं किसी से पाते हम

फिट नहीं किसी से होते हैं...

मानो असंग की ओर यात्रा असंग की।

वे लोग बहुत जो ऊपर-ऊपर चढ़ते हैं

हम नीचे-नीचे गिरते हैं

तब हम पाते वीथी सुसंगमय ऊष्मामय।

हम हैं समाज की तलछट, केवल इसीलिए

हमको सर्वोज्ज्वल परंपरा चाहिए।

माँ परंपरा-निर्मिति के हित

खोजती ज़िंदगी के कचरे में भी

ज्ञानात्मक संवेदन

पर, रखती उनका भार कठिन मेरे सिर पर

अजीब अनुभव है

सिर पर की टोकरी-विवर में मानव-शिशु

वह कोई सद्योजात

मृदुल-कर्कश स्वर में

रो रहा;

सच, प्यार उमड़ आता उस पर

पर प्रतिपालन-दायित्व-भार से घबराकर

मैं तो विवेक खो रहा

वह शिकायतों से भरा बाल-स्वर मँडराता

प्रिय बालक दुर्भर, दुर्धर है—यह मैं विचारता कतराता

झखमार, झींख औ’ प्यार गुँथ रहे आपस में

वह सिर पर चढ़ रो रहा, नहीं मेरे बस में

बढ़ रहा बोझ। वह मानव-शिशु

भारी-भारी हो रहा।

वह कौन? कि सहसा प्रश्न कौंधता अंतर में—

वह है मानव-परंपरा

चिंघाड़ता हुआ उत्तर यह

सुन, कालिदास का कुमारसंभव वह

मेरी आँखों में अश्रु और अभिमान

किसी कारण

अंतर के भीतर पिघलती हुई हिमालयी चट्टान

किसी कारण,

तब एक क्षण-भर,

मेरे कंधों पर खड़ा हुआ है देव एक दुर्धर

थामता नभस् दो हाथों से;

भारान्वित मेरी पीठ बहुत झुकती जाती

वह कुचल रही है मुझे देव-आकृति

है दर्द बहुत रीढ़ में,

पसलियाँ पिरा रहीं...

पाँव में जम रहा ख़ून

द्रोह करता है मन

मैं जन्मा जब से इस साले ने कष्ट दिया

उल्लू का पट्ठा कंधे पर है खड़ा हुआ।

कि इतने में

गंभीर मुझे आदेश

कि बिलकुल जमे रहो।

तुम दाँव अड़ाओं, तने रहो

मैं अपने कंधे क्रमशः सीधा करता हूँ

तन गई पीठ

औ’ स्कंध नभोगामी होते

इतने ऊँचे हो जाते हैं।

मैं एकाकार हो गया-सा देवाकृति।

नभ मेरे हाथों पर आता

मैं उल्का-फूल फेंकता मधुर चंद्रमुख पर

मेरी छाया गिरती है दूर नेब्युला में।

बस, तभी तलब लगती है बीड़ी पीने की।

मैं पूर्वाकृति में आ जाता,

बस, चाय एक कप मुझे गर्म कोई दे दे

ऐसी-तैसी उस गौरव की

जो छीन चले मेरी सुविधा!

मित्रों से गप करने का मज़ा और ही है।

ये गर्म चिलचिलाती सड़कें

सौ बरस जिएँ।

मैं परिभ्रमण करता जाऊँगा जीवन-भर

मैं जिप्सी हूँ।

दिल को ठोकर

वह विकृत आईना मन का सहसा टूट गया

जिसमें या तो चेहरा दिखता था बहुत बड़ा

फूला-फूला

या अकस्मात् विकलांग व छोटा-छोटा-सा

सिट्टी गुम है,

नाड़ी ठंडी!

देखता हूँ कि माँ व्यंग्यस्मित मुस्कुरा रही

डाँटती हुई कहती है वह—

तब देव बना अब जिप्सी भी,

केवल जीवन-कर्तव्यों का

पालन न हो सके इसीलिए

निज को बहकाया करता है।

चल इधर, बीन रूखी टहनी

सूखी डालें,

भूरे डंठल,

पहचान अग्नि के अधिष्ठान

जा पहुँच स्वयं के मित्रों में

कर अग्नि-भिक्षा

लोगों से पड़ोसियों से मिल

चिलचिला रहा बेशर्म दलिद्दर भीतर का

पर, सेमल का ऊँचा-ऊँचा वह पेड़ रुचिर

संपन्न लाल फूलों को लेकर खड़ा हुआ

रक्तिमा प्रकाशित करता-सा

वह गहन प्रेम

उसका कपास रेशम-कोमल।

मैं उसे देख जीवन पर मुग्ध हो रहा!