चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक अरूप शून्य के प्रति

चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)
एक अरूप शून्य के प्रति


रात और दिन

तुम्हारे दो कान हैं लम्बे-चौड़े

एक बिलकुल स्याह

दूसरा क़तई सफ़ेद।

एक-न-एक कान

ढाँकता है आसमान

और इस तरह ज़माने के शुरू से

आसमानी शशि के पलंग पर सोये हो।


धरती के चीखों के शब्द

पंखदार कीड़ों से बेचैन,

तुम्हारे कानों के बालों पर बैठते

भिनभिनाते चक्कर काटते।

अटूट है, लेकिन नींद

ऑखें?

धुंधला-सा 'नेब्युला'!!

एक-एक आँख में लाल-लाल पुतलियाँ

पुतलियाँ कैसी?

बुलबुलों की भाँति जो बनती-बिगड़ती हैं

फिर उठ बैठतीं!!

इसीलिए कोटि-कोटि कनीनिकाओं के बावजूद

कुछ नहीं दीखता,

एक-एक पुतली में लाख-लाख दृष्टियाँ,

असंख्य दृष्टिकोण

बनते बिगड़ते!!

इसीलिए, तुम सर्वज्ञ हो नींद में।


फिर भी, यशस्काय दिक्काल-सम्राट,

तुम कुछ नहीं हो, फिर भी हो सब कुछ!!

काल्पनिक योग्य की पूँछ के बालों को काटकर

होंठों पर मूंछ लटका रखी है!!

ओ नट-नायक सारे जगत् पर रौब तुम्हारा है !!

तुमसे जो इनकार करेगा

वह मार खाएगा

और, उस मूंछ के

हवाई बाल जब

बलखाते, धरती पर लहराते,

मंडराते चेहरों पर हमारे

तो उनके चुभते हुए खुरदुरे परस से

खरोंच उभरती है लाल-लाल

और, हम कहते हैं कि

नैतिक अनुभूति

हमें कष्ट देती है।

बिलकुल झूठी है सठियायी

कीर्ति यह तुम्हारी।


पर तुम भी खूब हो,

देखो तो

प्रतिपल तुम्हारा ही नाम जपती हुई

लार टपकती हुई आत्मा की कुतिया

स्वार्थ-सफलता के पहाड़ी ढाल पर

चढ़ती है हॉफती,

आत्मा की कुतिया

राह का हर कुत्ता जिसे छेड़ता है, छेंकता

लेकिन, तुम खूब हो

सूनेपन के डीह में अँधियारी डूब हो।


मात्र अनस्तित्व का इतना बड़ा अस्तित्व

ऐसे घुप्प अँधेरे का इतना तेज़ उजाला,

लोग-बाग

अनाकार ब्रह्म के सीमाहीन शून्य के

बुलबुले में यात्रा करते हुए गोल-गोल

गोल-गोल

खोजते हैं जाने क्या?

बेछोर सिफ़र के अँधेरे में बिला बत्ती सफ़र

भी खूब है।

सृजन के घर में तुम

मनोहर शक्तिशाली

विश्वात्मक फ़ैण्टेसी

दुर्जनों के भवन में

प्रचण्ड शौर्यवान् अण्ट-सण्ट वरदान!!

ख़ूब रंगदारी है,

विपरीत दोनों दूर छोरों द्वारा पुजकर

स्वर्ग के पुल पर

चुंगी के नाकेदार

भ्रष्टाचारी मजिस्ट्रेट, रिश्वतखोर थानेदार !


ओ रे निराकार शून्य!

महान् विशेषताएँ मेरे सब जनों की

तूने उधार लीं

निज को सँवार लिया,

निज को अवशेष किया

यशस्काय बन गया सर्वत्र आविर्भूत!


भई साँझ

कदम्ब-वृक्ष पास

मन्दिर-चबूतरे पर बैठ कर

जब कभी देखता हूँ तुझको

मुझे याद आते हैं -

भयभीत आँखों के हंस

व घाव-भरे कबूतर

मुझे याद आते हैं मेरे लोग

उनके सब हृदयरोग,

घुप्प अँधेरे घर,

पीली-पीली चिन्ता के अंगारों-जैसे पर,

मुझे याद आती भगवान् राम की शबरी,

मुझे याद आती है लाल-लाल जलती हुई ढिबरी

मुझे याद आता है मेरा प्यारा-प्यारा देश,

लाल-लाल सुनहला आवेश।

अन्धा हूँ,

ख़ुदा के बन्दों का बन्दा हूँ बावला

परन्तु कभी-कभी अनन्त सौन्दर्य सन्ध्या में शंका के

काले-काले मेघ-सा

काटे हुए गणित की तिर्यक् रेख-सा

सरीसृप-स्रक-सा।


मेरे इस साँवले चेहरे पर कीचड़ के धब्बे हैं,

दाग हैं,

और इस फैली हुई हथेली पर जलती हुई आग है,

अग्नि-विवेक की।

नहीं, नहीं, वह-वह तो है ज्वलन्त सरसिज!!

ज़िन्दगी के दलदल-कीचड़ में धंस कर

वक्ष तक पानी में फंस कर

मैं वह कमल तोड़ लाया हूँ -

भीतर से इसीलिए, गीला हूँ

पंक से आवृत,

स्वयं में घनीभूत,

मुझे तेरी बिलकुल ज़रूरत नहीं है।