चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/एक स्वप्न-कथा/भाग 5
मेरे प्रति उन्मुख हो स्फूर्तियाँ
कहती हैं -
तुम क्या हो?
पहचान न पायीं, सच!
क्या कहना! तुम्हारी आत्मा का
सौन्दर्य अनिर्वच,
प्राण हैं प्रस्तर-त्वच।
मारकर ठहाका, वे मुझे हिला देती हैं
सोई हुई अग्नियाँ
उँगली से हिला-डुला
पुनः जिला देती हैं।
मुझे वे दुनिया की
किसी दवाई में डाल
गला देती हैं!!
उनके बोल हैं कि पत्थर की बारिश है
बहुत पुराने किसी
अन-चुकाये क़र्ज की
ख़तरनाक नालिश है
फिर भी है रास्ता, रिआयत है,
मेरी मुरव्वत है।
क्षितिज के कोने पर गरजते जाने किस
तेज़ आँधी-नुमा गहरे हवाले से
बोलते जाते हैं स्फूर्ति-मुख।
देख यों हम सबको
चमचमा मंगल-ग्रह साक्षी बन जाता है
पृथ्वी के रत्न-विवर में से निकली हुई
बलवती जलधारा
नव-नवीन मणि-समूह
बहाती लिये जाय,
और उस स्थिति में, रत्न-मण्डल की तीव्र दीप्ति
आग लगाय लहरों में
उसी तरह, स्फूर्तिमय भाषा-प्रवाह में
जगमगा उठते हैं भिन्न-भिन्न मर्म-केन्द्र।
सत्य-वचन,
स्वप्न-दृग् कवियों के तेजस्वी उद्धरण,
सम्भावी युद्धों के भव्य-क्षण-आलोडन,
विराट् चित्रों में
भविष्य-आस्फालन
जगमगा उठता है।
और तब हा-हा खा
दुनिया का अँधेरा रोता है।
ठहाका--आगामी देवों का।
काले समुन्दर की अन्धकार-जल-त्वचा
थरथरा उठती है!!
बन्द करने की कोशिश होती है तो
मन का यह दरवाज़ा
करकरा उठता है;
विरोध में, खुल जाता धड्ड से
उसका दूर तक गूँजता धड़ाका
अँधेरी रातों में।
स्फूर्तियाँ
कहती हैं कि
मैं जो पुत्र उनका हूँ
अब नहीं पहचान में आता हूँ;
लौट विदेशों से
अपने ही घर पर मैं इस तरह नवीन हूँ
इतना अधिक मौलिक हूँ-
असल नहीं!!
मन में जो बात एक कराहती रहती है
उसकी तुष्टि करने का
साहस, संकल्प और बल नहीं।
मुझको वे स्फूर्ति-मुख
इस तरह देखते कि
मानो अजीब हूँ;
उन्हे छोड़ कष्टों में
उन्हे त्याग दुख की खोहों में
कहीं दूर निकल गया
कि मैं जो बहा किया
आन्तरिक आरोहावरोहों में,
निर्णायक मुहूर्त जो कि
घपले में टल गया,
कि मैं ही क्यों इस तरह बदल गया!
इसीलिए, मेरी ये कविताएँ
भयानक हिडिम्बा हैं,
वास्तव की विस्फारित प्रतिमाएँ
विकृताकृति-बिम्बा हैं।
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