चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/ओ काव्यात्मन् फणिधर
एक
वे आते होंगे लोग...
अरे, जिनके हाथों में तुम्हें सौंपने ही होंगे
ये मौन उपेक्षित रत्न!
मात्र तब तक,
केवल तब तक
तुम छिपा चलो द्युतिमान् उन्हें
तम-गुहा-तले!
ओ, संवेदनमय ज्ञान-नाग...
कुंडली मार तुम दबा रखो
फूटती हुई रश्मियाँ
कि यह सच मुश्किल है,
किरनों के उजियाले बादल ये निर्मल हैं,
फन तक उठते
मेरे मन तक।
वल्मीक विभासित है,
यह गुहा दमकती भीतर से,
देदीप्यमान उस मधुर रश्मि-वर्षा का
असहनीय आनंद दबा
तुम छिपा चलो जो कुछ तुम हो!
यह काल तुम्हारा नहीं!
दो
किंतु एकत्र करो
प्रज्वलित प्रस्तरों को...
वे आते ही होंगे लोग
जिन्हें तुम दोगे—
देना ही होगा, पूरा हिसाब
अपना, सबका, मन का, जन का!
तीन
उन रत्नों के लिए तुम्हारी व्याकुलतर
गति-सरसर
जंगल-पार
पुरों-नगरों में, आँगन के पीछे
कचरे के ढेरों में, जिनकी
मैली सतहों में फँसा-दबा
चुपचाप धँसाए गए, छिपाए गए रत्न मन के, जन के,
जो मूल्य सत्य हैं इस जग के परिवर्तन के!
वे विविध असुविधाओं के कारक होने से
नित उपेक्षिता भूमि में फिंके!
चार
उनके निष्कासक आज सुन रहे हैं—
पिछवाड़े ढेरों में खड़खड़,
कोई गड़बड़,
सर्पिल गति के भूचाल भीति-प्रद अनजाने!
“जी नहीं, नहीं, कुछ नहीं, यूँ ही यह मन में खटका—
—जिस उच्च शिखर को
पश्चिम के भूगोल-शास्त्रियों ने देखा,
जिस पर प्रसन्न मुद्रा में आसन जमा लिया,
कुछ महामहिम सभ्यों ने दर्शन कमा लिया,
वह हो न कहीं
भू-ज्वाल-विवर—
जी नहीं, नहीं कुछ नहीं, यूँ ही यह मन में खटका!”
पाँच
पिछवाड़े, ढेरों में खड़खड़,
कोई गड़बड़,
सर-सर करता छत चढ़ा, फाँद दीवार बढ़ा
वह नाग
एक भय-जनक श्याम-संवेदन-कोब्रा। कमरों में,
लाठियाँ घूमतीं कोठों में
पर, वह खपरैलों-चढ़ा तेज़ बढ़ता जाता
छह
लहराओ, लहराओ, नागात्मक कविताओ,
झाड़ियों छिपो,
उन श्याम झुरमुटों-तले कई
मिल जाएँ कहीं
वे फेंके गए रत्न, ऐसे
जो बहुत असुविधाकारक थे,
इसलिए कि उनके किरण-सूत्र से होता था
पट-परिवर्तन, यवनिका-पतन
मन में जग में!
ओ काव्यात्मन् फणिधर, अपना फन फैलाओ!
मणि-गण को धारण करो, उन्हें
वल्मीक-गुहा में ले जाओ,
एकत्र करो...
सात
...अँधेरे में निकलो, जंगल भटको!
गति-सरसर से
खंडहर-पीपल का
बड़ा वास्ता है
...देखो तो उस ओर,
नदी के पार, रास्ता है!
वन-तुलसी के तल से निकलो—
पाओ वट को!
आठ
उस अंधकार-न्यग्रोध-तले वे कई सो रहे हैं!!
ऊपर डालों पर भूतों की-सी परछाईं
हिलती, डुलती,
नीचे, तल में,
पागल स्त्री के
स्तन से चिपकी
बालक झाईं,
जंगल में दूर सियार रो रहे हैं!!
लहराओ, लहराओ, ओ मेरी कविताओ!!
वट-शाखाओं पर द्रुततर सरसर चढ़ जाओ!!
नौ
उन अंधकार-शाखाओं के पत्राच्छद में
छिपकर कोई
स्वर दबा सिसकती है
दार्शनिक एक आत्मा...
जब जीवित थी,
आचरण-रहित सोचती रही
अकर्मक विवके-धी,
औ’ उदरंभरि पल-क्षण-प्रसार में अटक गई
सारे अन्वय-व्यतिरेक-प्रमा-उपपत्ति सहित!!
वह श्याम दार्शनिक आत्मा
अपने जीवन में
छाया जीवन जीकर भी, उदर-शिश्न के सुख
भोगती रही,
आध्यात्मिक गहन प्रश्न के सुख
भोगती रही
जन-उत्पीड़न विभ्राट्-व्यवस्था के सम्मुख!!
उसके आशय का विष पी लो
ओ काली-काली भान-आग
ओ नागराज,
इस वट की शाखाओं पर तुम करवट बदलो!!
दस
नीचे उतरो, खुरदुरा अँधेरा सभी ओर,
वह बड़ा तना, मोटी डालें,
अधजले फिंके कंडे व राख
नीचे तल में।
वह पागल युवती सोई है
मैली दरिद्र स्त्री अस्त-व्यस्त—
उसके बिखरे हैं बाल व स्तन है लटका-सा,
अनगिनत वासना-ग्रस्तों का मन अटका था!
उनमें जो उच्छृंखल था, विशृंखल भी था,
उसने काले पल में इस स्त्री को गर्भ दिया!
शोषिता व व्यभिचरिता आत्मा को पुत्र हुआ
स्तन मुँह में डाल, मरा बालक! उसकी झाईं,
अब तक लेटी है पास उसी की परछाईं!!
आधुनिक सभ्यता-संकट की प्रतीक-रेखा,
उसको मैंने सपनों में कई बार देखा!!
ओ नागराज, चुपचाप यहाँ से चल!!
ग्यारह
यह है अँधियारा कुआँ,
करौंदी की झाड़ी में
छिपी हुई चौड़ी मुँडेर
अधटूटी-सी।
वीरान महक सूखी-सूनी,
ठंडी कन्हेर
पर लाल-लाल कुछ फूल,
कि यह क्या है!!
चुपचाप अँधेरे में उतरो!!
कुएँ का गोल तला सूखा
जिसमें कचरे के बड़े-बड़े हैं ढेर, अरे!!
—यह तो विचित्र है बात,
किसी ने आत्मज सद्योजात
वहाँ लाकर रक्खा, छोड़ा-त्यागा,
शिशु रोता है वह ज़ोर-शोर के साथ!!
बारह
अरे रे! कौन अभागा वह,
जिसने यों आत्मोत्पन्न सत्य त्यागा?
किस मौन विवशता के कारण?
किसके भय से?
पर, भय किसका?
कौन-सी क्रांति करने वाला था यह बालक!!
चुपचाप सरकते चलो, पास उसके पहुँचो!
निज नाग-नेत्र की कोमल द्युतियों से
गीले गुलाब पर मृदु प्रकाश डालो,
आक्रोशवती मुख-गरिमा का सौंदर्य देख,
आवेग-भरा उल्लास-नृत्य
तुम नाच-नाच डालो!!
आनंद आदिवासी-नर्तक-सी धूम करो!!
अत्यंत तीव्र-गति नाग-नृत्य-मुद्राएँ
प्रस्तुत करो सबल!
प्रस्फूर्त-अश्रुमय नाचो, कविताओं के पल!!
तेरह
उस शिशु-स्वर से, अर्गला टूटती है,
दरवाज़े खुलते हैं,
मन मिलते-जुलते हैं।
अंतर-आनंद मुक्ति बन बाहर आता है,
पल-पल भविष्य उच्छृंखल होता जाता है,
आगामी कई हविष्यों के संकेत असाधारण
उसके स्वर में
चौदह
मेरे कोब्रा, ओ क्रेट, पुष्ट पायथन,
तम-विशेषज्ञ, प्रज्वलंत मन,
ओ लहरदार रफ़्तार, स्याह बिजली,
भू-लोक-विपथ-विज्ञान-गणित-शास्त्री,
तम छायाओं द्वारा प्रकाश-पथ के ज्ञाता,
आज की श्याम भूताकृतियों के द्वारा ही
कल की प्रकाश छवियों के ओ दर्शन-कर्ता!
विष-रासायनिक, चिकित्सक,
पंडित कर्कोटक,
ओ जिप्सी! जग-पर्यटक अथक,
तक्षण मेरे,
मेरी छाती से चिपक रक्त का पान करो,
अपने विष से मेरे अभ्यंतर प्राण भरो,
मेरा सब दुःख पियो
सुख पियो, ज्ञान पी लो!
पर, पल-भर केवल पल-भर,
मानव-रूप धरो!
वह शिशु-आक्रोश जी चलो तुम अँधियारे में
उतरो बेसूझ साँवलेपन में साहस से।
वक्ष पर रखो बालक-आत्मा,
उस ऊष्म नवल आत्मा से संपर्कान्वित हो
विश्लेषण करते हुए,
स्वप्न देखते हुए,
पथ खोज चलो।
पथ खोज चलो-सोचते हुए—
शायद, सज्जन था व्यक्ति कि जिसके अंतर में
एक और आत्मा प्रकट हुई
प्रज्वलनमयी।
पर उसको वह सह नहीं सका,
इसलिए कि कोरा और निरा वह सज्जन था!!
निज बालक को तम-कूप-विवर में डाल गया!
उसके स्वप्नों की ज्यामिति-रेखाएँ नापो,
उसके आत्म-स्थित जगत्-गणित को पहचानो,
ओ नागात्मे,
इन सब रंगों को पीयो, उन्हें विष में परिणत
करके भीतर
भोगों थर-थर,
भोगो ज़हरीला संवेदन!
पर, उससे अधिकाधिक जाग्रत्
अधिकाधिक उत्तेजित-आक्रामक हो।
सूँघते हुए वीरान हवा,
तुम, स्वप्न देखते हुए,
मन के मन में विश्लेषण करते हुए
झाड़ियों से गुजरो!!
पंद्रह
रात का समय, वह गाँव, और वह औदुंबर,
—गहरा-सा एक स्याह धब्बा!
उसके तल में श्रमिक-प्रपा,
अंजलि से जल पीने वाले
तृषितों के मुख-विगलित जल से
है भूमि आर्द्र-कोमल अब तक!
प्रशांत पल में
निःसंग, स्तब्ध, गंभीर सुगंधें लहराती,
औ’ वहाँ कहीं
साँवली सिवंती, श्याम गुलाब सो रहे हैं,
निद्रा में खुला-खुला आँचल,
सिरहाने पत्थर है
स्तन उघरा-सा।
धीमे चल के
शिशु उसके पास रखो धीरे हल्के-हल्के।
तुम खड़े रहो चुपचाप!!
सिवंती हिली-डुली,
बालक के भी मन की कर ली।
श्रम-गरिमा का पी दूध
सत्य नव-जात
विकसता जाएगा।
सोलह
ओ कविताओ!
जलमयी मुखाकृति पोंछो मत,
रहने दो, बहने दो!!
इस तम में कौन देखता है,
केवल कुछ तारों के सिवाय
जो अंधकार में चमक रहे, उस विवेक से जो चिर-तटस्थ
अच्छे व बुरे के बीच, क्यों
उन दोनों के पर, सूक्ष्म
वह मात्र स्वार्थ बौना-चपटा,
आध्यात्मिक भाष्यों में लिपटा!
सत्रह
ओ काव्यात्मन्, तुम लौट चलो,
सौंपकर भार भी, अधिकाधिक गंभीर और
आँखों में आँसू की झाईं,
मानो तन है ही नहीं, वरन्
चलती है मन की परछाईं,
तुम लौटो गुहा-ओर जल्दी—
ओ नागात्मन्!
अठारह
अजीब हुआ,
वह भीतर से देदीप्यमान जो रहती थी
भू-गर्भ-गुहा
अब अँधियारी, काली व स्तब्ध
निश्चेतन, जड़, दुःसहा!!
अजीब हुआ!!
उन्नीस
पर, शोक मत करो नागात्मन्...
आ गए तुम्हारी अनुपस्थिति में लोग
प्रतीक्षा जिनकी थी,
ले गए ज्वलत्-द्युति प्रस्तर-घन!!
अब उन रत्नों का अर्थ दीप्त होगा,
उनका प्रभाव घर-घर में पहुँचेगा फिर से,
उनके प्रकाश में
दीख सकेगा भीषण मुख...
वह भीषण मुख उस ब्रह्मदेव का
जो रहकर प्रच्छन्न स्वयं,
निज अंक-शापिनी दुहिता-पत्नी सरस्वती
या विवेक-धी
के द्वारा ही
उद्दाम स्वार्थ या सूक्ष्म आत्म-रति का प्रचार
कर, भटकाता
विक्षुब्ध जगत् को, उसके अपने से ही
काटकर अलग,
फेंककर पृथक्,
उन दोनों को दूर परस्पर से, तुरंत
अपने को स्वयं चूम जाता!
उस ब्रह्मदेव का टेढ़ा मुँह
जग देख चुकेगा पूरा ही।
उस ब्रह्मदेव का दर्शन सभी कर सकेंगे,
जिसकी छत्रच्छाया में रह
अधिकाधिक दीप्तिमान होते
घन के श्रीमुख,
पर, निर्धन एक-एक सीढ़ी नीचे गिरते जाते
उस ब्रह्मदेव का विवेक-दर्शन
होगा उद्घाटित पूरा!
ओ नागात्मन्,
संक्रमण-काल में धीर धरो,
ईमान न जाने दो!!
तुम भटक चलो,
इन अंधकार-मैदानों में सरसर करते!!
शत-उपेक्षिता भूमि में फिंके
चुपचाप छिपाए गए
शुक्र, गुरु, बुध-मंगल
कचरे की परतों-ढँके, तुम्हें मिल जाएँगे!!
खोदो, जड़ मिट्टी को खोदो!
ओ भूगर्भ-शास्त्री,
भीतर का बाहर का
व्यापक सर्वेक्षण कर डालो।