चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/चकमक की चिनगारियाँ
एक
अधूरी और सतही ज़िंदगी के गर्म रास्तों पर
हमारा गुप्त मन
निज में सिकुड़ता जा रहा
जैसे कि हब्शी एक गहरा स्याह
गोरों की निगाहों से अलग ओझल
सिमिटकर सिफ़र होना चाहता हो जल्द!!
मानो क़ीमती मज़मून
गहरी, गैर क़ानूनी किताबों, ज़ब्त पर्चों को।
कि पाबंदी लगे-से भेद-सा बेचैन
दिल का ख़ून
जो भीतर
हमेशा टप्प टप कर टपकता रहता
तड़पते-से ख़यालों पर।
यही कारण कि सिमटा जा रहा-सा हूँ।
स्वयं की छाँह की भी छाँह-सा बारीक
होकर छिप रहा-सा हूँ।
समझदारी व समझौते
विकट गड़ते।
हमारे आपके रास्ते अलग होते।
व पल-भर, मात्र
आत्मालोचनात्मक स्वर प्रखर होता।
दो
अधूरी और सतही ज़िंदगी के गर्म रास्तों पर,
अचानक सनसनी भौंचक
कि पैरों के तलों को काट-खाती कौन-सी यह आग?
जिससे नच रहा-सा हूँ,
खड़ा भी हो नहीं सकता, न चल सकता।
भयानक, हाय, अंधा दौर
जिंदा छातियों पर और चेहरों पर
कदम रखकर
चले हैं पैर!
अनगिन अग्निमय तन-मन व आत्माएँ
व उनकी प्रश्न-मुद्राएँ,
हृदय की द्युति-प्रभाएँ,
जन-समस्याएँ
कुचलता चल निकलता हूँ।
इसी से, पैर-तलुओं में
नुकीला एक कीला तेज़
गहरा गड़ गया औ’ धँस घुस आया,
लगी है झनझनाती आग,
लाखों बर्र-काँटों ने अचानक काट खाया है।
व्रणाहत पैर को लेकर
भयानक नाचता हूँ, शून्य
मन के टीन-छत पर गर्म।
हर पल चीख़ता हूँ, शोर करता हूँ
कि वैसी चीख़ती कविता बनाने में लजाता हूँ।
तीन
इतने में अँधेरी दूरियों में से
उभरता एक
कोई श्याम, धुँधला हाथ,
सहसा कनपटी पर ज़ोर से आघात।
आँखों-सामने विस्फोट,
तारा एक वह टूटा,
दमकती लाल-नीली बैंगनी
पीली व नारंगी
अनगिनत चिनगारियाँ बिखरा
सितारा दूर वह फूटा।
कि कंधे से अचानक सिर
उड़ा, ग़ायब हुआ (जो शून्य यात्रा में स्वगत कहता—)
अरे! कब तक रहोगे आप अपनी ओट!
उड़ता ही गया वह, दीर्घ वृत्ताकार
पथ से जा गिरा,
उस दूर जंगल के
किसी गुमनाम गड्ढे में,
(स्वगत स्वर ये—
कहाँ मिल पाओगे उनसे
कि जिनमें जनम ले, निकले)
कि गिरते ही भयानक ‘खड्ड’
सिर की थाह में से तब
अचानक ज़ोर से उछला
चमकते रत्न
बिखेरे श्याम गह्वर में।
(कि इतनी मार खाई, तब कहीं वे
स्पष्ट उद्घाटित हुए उत्तर)
चार
परम आश्चर्य!
उस गुमनाम खड्डे के अँधेरे में
खुले हैं लाल-पीले-चमकते नक़्शे,
खुली जुग्राफ़िया-हिस्टरी,
खुले हैं फ़लसफ़े के वर्क़ बहुतेरे
कि जिनकी पंक्तियों में से
उमड़ उठते
समूची क्षुब्ध पृथ्वी के
अनेकों कुछ गहरे सागरों
कि छटपटाते साँवले छींटे
बरसते जा रहे हैं
गीली हो रही हैं देश-देशों की
घनी बेचैन छायाएँ
(यहाँ दिल के बड़े गड्ढों)
पाँच
अचानक आसमानी फ़ासलों में से
गुज़रते चाँद ने वह तम-विवर देखा,
लिफ़ाफ़ा एक नीला दूर से फेंका,
व पल ठिठका।
कि इतने में अँधेरे तंग कोने से
निकल बाहर,
किसी ने बहुत आतुर हो,
पढ़े अक्षर, पढ़े फिर-फिर!!
वह अर्थों के घने, कोमल
धुँधलके तैर आए और
मन की खिड़कियों में से घुसे भीतर
व दिल में छा गए वे आसमानी रंग।
लिखा था यह—
अरे! जन-संग-ऊष्मा के
बिना, व्यक्तित्व के स्तर जुड़ नहीं सकते!
प्रयासी प्रेरणा के स्त्रोत,
सक्रिय वेदना की ज्योति,
सब साहाय्य उनसे लो।
तुम्हारी मुक्ति उनके प्रेम से होगी।
कि तद्गत लक्ष्य में से ही
हृदय के नेत्र जागेंगे,
वह जीवन-लक्ष्य उनके प्राप्त
करने की क्रिया में से
उभर-ऊपर
विकसते जाएँगे निज के
तुम्हारे गुण
कि अपनी मुक्ति के रास्ते
अकेले में नहीं मिलते
छह
सुनकर यह, अचानक दीख पड़ती है!
हृदय की श्याम लहरों के
अतल में कुछ
सुनहली केंद्र थर-थर-सी,
व उन अति सूक्ष्म केंद्रों में
निकट की दूर की
आकाश तारा-रश्मियाँ चमकीं
अनल-वर्षी।
महत् संभावनाओं की उजलती एक रेखा है,
जिसे मैंने
यहाँ आ ख़ूब देखा है।
अरे! मेरे तिमिर-गह्वर कगारों पर
अचानक खिल उठी प्राचीन—
—अभिनव गंधमय तुलसी
कि जिसके सघन-छाया-अंतरालों से
किसी का श्याम भोला मुख (बहुत प्यारा)
मुझे दिखता
कि पाता हूँ—मुझे ही देखती रहती
मनो-आकार-चित्रा वह सुनेत्रा है।
तड़पते तम विवर के उन कगारों पर
चमेली की कुंद कलियाँ
कि वे तारों-भरे व्यक्तित्व,
मन के श्याम द्वारों पर
अभी भी हैं प्रतीक्षा में!!
पुकारूँ? क्या करूँ!! लेकिन
हृदय काला हुआ जीवन-समीक्षा में।
महकती चाँदनी की यह
प्रकाशित नीलिमा पीली
कि जिसके बीच मेरा गर्त-गह्वर घर
भयानक स्याह धब्बे-सा।
अतः, मैं कुंद-कलियों से बिचकता हूँ,
हिचकता हूँ।
कि इतने में घनी आवाज़ आती है—
तुम्हारे तम-विवर के तट
पुनः अवतार धारण कर,
मनस्वी आत्माएँ और प्रतिभाएँ
पधारीं विविध देशों से
तुम्हारा निज-प्रसारण कर।
सात
नभ-स्पर्शी हवाओं में किसी पुनरागता
ध्वनि-सा तरंगित हो,
सिविल लाइंस के सूने,
पुराने एक बरगद पास स्पंदित हो
उसी के पत्र मर्मर में बिखरकर मैं
तुरत अपने अकेले स्याह
कुट्ठर में पहुँचता हूँ।
बड़ा अचरज!
कि जब मैं ग़ैर-हाज़िर, तो
यहाँ पर एक हाज़िर है।—अँधेरे में,
अकेली एक छाया-मूर्ति
कोई लेख
टाइप कर रही तड़-तड़ तड़ातड़-तड़
व उसमें से उछलते हैं
घने नीले-अरुण चिनगारियों के दल!!
लुमुंबा है,
वहाँ अल्जीरिया-लाओस-क्यूबा है
हृदय के रक्त-सर में, सूर्य-मणि-सा ज्ञान डूबा है
दिमाग़ी रग फड़कती है, फड़कती है,
व उसमें से भभकता
तड़फता-सा दुःख बहता है!!
आठ
इतने में,
समुंदर में कहीं डूबी हुई जो पुण्य-गंगा वह
अचानक कूच करती सागरी तल से
उभर ऊपर
भयानक स्याह बादल-पाँत बनकर
फन उठाती है दिशाओं में।
(व मेरे कुंद कमरे के अँधेरे में
निरंतर गूँजती तड़-तड़-तड़ातड़ तेज़)
बाहर धूल में भी शब्द गड़ते हैं
कि टाइप कर रहा है आसमानी हाथ
तिरछी मार छींटों की!
घटाओं की गरज में,
बिजलियों की चमचमाहट में,
अँधेरी आत्म-संवादी हवाओं से
चपल रिमझिम
दमकते प्रश्न करती है—
मेरे मित्र,
कुहरिल गत युगों के अपरिभाषित
सिंधु में डूबी
परस्पर, जो कि मानव-पुण्य धारा है,
उसी के क्षुब्ध काले बादलों को साथ लाई हूँ,
बशर्ते तय करो,
किस ओर हो तुम, अब
सुनहले ऊर्ध्व-आसन के
दबाते पक्ष में, अथवा
कहीं उससे लुटी-टूटी
अँधेरी निम्न-कक्षा में तुम्हारा मन,
कहाँ हो तुम?
हृदय में प्राकृतिक जो मूल
मानव-न्याय संवेदन
कभी बेचैन व्याकुल हो
तुम्हें क्या ले गया उस तट,
जहाँ उसने तुम्हारे मन व आत्मा को
समझकर श्वेत चकमक के घने टुकड़े
परस्पर तड़ातड़ तेज़ दे रगड़ा
कि उससे आग पैदा की
व हर अंगार में से एक
जीवन-स्वप्न चमका और
तड़पा ज्ञान!!
नौ
अचानक आसमानी फ़ासलों में से
चतुर संवाददाता चाँद ऐसे मुस्कुराता है
कि मेरे स्याह चेहरे पर
निलाई चमचमाती है!!
समुंदर है, समुंदर है!!
गरजती इन उफ़नती में मैं
किसी वीरान टॉवर की
अँधेरी भीतरी गोलाइयों के बीच
चक्करदार ज़ीना एक चढ़ता हूँ, उतरता हूँ।
धपाधप पैर की आवाज़
है नाराज़ निज से ही।
फ़िरंगी, पुर्तगाली या कि ओलंदेज़
या अँगरेज़
दरियाई लुटेरों के लिए जो एक
तूफ़ानी समुंदर के गरजते मध्य में उठकर
पुराने रोशनी-घर की
अँधेरी एक है मीनार
उसमें आज मेरी रूह फिरती है
अनेकों मंज़िलों के तंग घेरों में
घने धब्बे
कि सदियों का पुराना मेल—
लेटे धूल-खाते प्रेत
जिनकी हड्डियों के हाथ में पीले
दबे काग़ज़
भयानक चिट्ठियों का जाल,
रॉयफल-गोलियों का कारतूसी ढेर
फैले युद्ध के नक़्शे;
समुद्री पक्षियों की उग्र, जंगली आँख,
भीषण गंध घोंसलों में से
कि जिनमें पंख-दल की वे—
घनी भीतें लटकती हैं।
कि मैं सब पत्र-पुस्तक पढ़
पुरानी रक्त-इतिहासी भयानकता
जिए जाता।
कि इतने में, कहीं से चोर आवाज़ें
विलक्षण सीटियाँ, खड़के,
अनेकों रेडियो के गुप्त संदेशों-भरे षड्यंत्र
जासूसी तहलके औ’ मुलाक़ातें।
व उनको बीच में ही
तोड़ने के, मोड़ने के तंत्र,
तहख़ाने कि जिनमें ढेर ऐटम-बम!!
कहाँ हो तुम, कहाँ हैं हम?
प्रशोषण-सभ्यता की दुष्टता के भव्य देशों में
ग़रीबिन जो कि जनता है,
उसी में से कई मल्लाह आते हैं यहाँ पर भी
व, चोरी से, उन्हीं से ही
मुझे सब-सूचनाएँ, ज्ञान मिलता है,
कि वे तो दे गए हैं, अद्यतन सब शास्त्र
मेरा भी सुविकसित हो गया है मन
व मेरे हाथ में हैं क्षुब्ध सदियों के
विविध-भाषी विविध-देशी
अनेकों ग्रंथ-पुस्तक-पत्र
सब अख़बार जिनमें मगन होकर मैं
जगत्-संवेदनों से आगमिष्यत् के
सही नक़्शे बनाता हूँ।
मुझे मालूम,
अनगिन सागरों के क्षुब्ध कूलों पर
पहाड़ो-जंगलों में मुक्तिकामी लोक-सेनाएँ
भयानक वार करतीं शत्रु-मूलों पर
व मेरे स्याह बालों में उलझता और
चेहरे पर लहरता है
उन्हीं का अग्नि-क्षोभी धूम!!
मुझे मालूम,
कैसी विश्व-घटनात्मक
सघन वातावरण में,
विचारों और भावों का कहाँ क्या काम,
कब वह वचना का एक साधक अस्त्र,
कब वह ज्ञान का प्रतिरूप!!
यद्यपि मैं यहाँ पर हूँ
सभी देशों, हवाओं, सागरों पर अनदिखा
उड़ता हुआ स्वर हूँ...
मेरे सामने है प्रश्न,
क्या होगा कहाँ किस भाँति,
मेरे देश भारत में,
पुरानी हाय में से
किस तरह से आग भभकेगी,
उड़ेंगी किस तरह भक् से
हमारे वक्ष पर लेटी हुई
विकराल चट्टों
व इस पूरी क्रिया में से
उभरकर भव्य होंगे, कौन मानव-गुण?
अँधेरे-ध्वस्त टॉवर के
तले में भव्य चट्टों
गरजती क्षुब्ध लहरों को पकड़कर चूम
ऐसी डूबती उनमें
कि सागर की ज़बर्दस्ती
उन्हें बेहद मज़ा देती।
भयानक भव्य आंदोलन समुद्रों का
हृदय में गूँजता रहता।
गरजती स्याह लहरों में
तड़कते-टूटते नीले चमकते काँच,
अनगिन चंद्रमाओं के छितरते बिंब।
फेनायित निरंतर एकता का बोध
जिसकी घोर आवाज़ें
समुंदर के तले के अंधकारों से उमड़ती हैं।
पुराने रोशनी-घर के अँधेरे शून्य-टॉवर से
अचानक एक खिड़की खोल
नीली तेज़ किरणें कुछ निकलती हैं।
वहाँ हूँ मैं
खड़ा हूँ,
मुस्कुराता फेंकता अपने
चमकते चिह्न,
मीलों दूर तक, उन स्याह लहरों पर
कि सूनी दूरियों के बीच रहकर भी
जगत् से आत्म-संयोगी
उपस्थित हूँ।
प्रतीकों और बिंबों के
असंवृत रूप में भी रह
हमारी ज़िंदगी है यह।
जहाँ पर धूल के भूरे गरम फैलाव
पर, पसरीं लहरती चादरें
बेथाह सपनों की।
जहाँ पर पत्थरों के सिर,
ग़रीबी के उपेक्षित श्याम चेहरों की
दिलाते याद।
टूटी गाड़ियों के साँवले चक्के
दिखें तो मूर्त होते आज के धक्के
भयानक बदनसीबी के।
जहाँ सूखे बबूलों की कँटीली पाँत
भरती है हृदय में धुंध-डूबा दुःख,
भूखे बालकों के श्याम चेहरों साथ
मैं भी घूमता हूँ शुष्क,
आती याद मेरे देश भारत की।
अरे! मैं नित्य रहता हूँ अँधेरे घर
जहाँ पर लाल ढिबरी-ज्योति के सिर पर
कसकते स्वप्न मँडराते।
दस
कि मानो या न मानो तुम...
अधूरी और सतही ज़िंदगी में भी
जगत्-पहचानते, मन-जानते
जी-माँगते तूफ़ान आते हैं।
व उनके धूल-धुँधले, कर्ण-कर्कश
गद्य-छंदों में
तड़पते भान, दुनिया छान आते हैं।
भयानक इम्तिहानों के तजुर्बों से
मरे जो दर्दवाले, ज्ञानवाले
जो-पिलाते, मन-मिलाते दिल
जगत् के भव्य भावोद्दंड तूफ़ानी
सुरों से सुर मिला, अगले
किन्हीं दुर्घट, विकट घटना-क्रमों का एक
पूरा चित्र-स्वर संगीत
प्रस्तुत कर
व उनके ऊष्म अर्थों के धुँधलकों में
मगन होकर
नभो-आलाप लेते हैं
व उनके मित्र, सह-अनुभव-व्यक्ति
स्वरकार या वादक—
तजुर्बेकार साज़िंदे
ख़्यालों के उमड़ते दौर में से सहसा
निजी रफ़्तार इतनी तेज़ करते हैं—
थपाथप पीटते हैं ज़ोर से तबला ढपाढप, और
झंकृत नाद-गतियों की गगन में थाम
तुम-तुम-तोम तंबूरे,
विलक्षण भोग अपनी वेदना के क्षण,
मिलाते सुर हवाओं से,
कि बिल्डिंग गूँजती है, काँप जाती है।
दिवालें ले रहीं आलाप,
पत्थर गा रहे हैं तेज़,
तूफ़ानी हवाएँ धूम करती गूँजती रहतीं।
उखड़ते चौखटों में ही
खड़ाखड़ खिड़कियाँ नचतीं,
भड़ाभड़ सब बजा करते खड़े बेडोल दरवाज़े।
व बाहर के पहाड़ी पेड़
जड़ में जम,
भयानक नाचने लगते।
विलक्षण गद्य-संगीतावली की सृष्टि होती है।
अचानक हो गई बरख़ास्त मानो आज
अत्याचार की सरकार
जाने देश में किस ध्वस्त,
शहरी रास्तों पर भीड़ से मुठभेड़।
जमकर पत्थरों की चीख़ती बारिश
व रॉयफल-गोलियों के तेज़ नारंगी
धड़ाकों में उभड़ती आग की बौछार।
ग्यारह
मुझ पर क्षुब्ध बारूदी धुएँ की झार आती है
व उन पर प्यार आता है
कि जिनका तप्त मुख
सँवला रहा है
धूम लहरों में
कि जो मानव भविष्यत्-युद्ध में रत है,
जगत् की स्याह सड़कों पर।
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिराकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय,
समस्या एक—
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव
सुखी, सुंदर व शोषण-मुक्त
कब होंगे?
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
उमगकर,
जन्म लेना चाहता फिर से,
कि व्यक्तित्वांतरित होकर,
नए सिरे से समझना और जीना
चाहता हूँ, सच!!
बारह
नहीं होती, कहीं भी ख़तम कविता नहीं होती
कि वह आवेग-त्वरित काल-यात्री है।
व मैं उसका नहीं कर्ता,
पिता-धाता
कि वह अभी दुहिता नहीं होती,
परम स्वाधीन है, वह विश्व-शास्त्री है।
गहन गंभीर छाया आगमिष्यत् की
लिए, वह जन-चरित्री है।
नए अनुभव व संवेदन
नए अध्याय-प्रकरण जुड़
तुम्हारे कारणों से जगमगाती है
व मेरे कारणों से सकुच जाती है।
कि मैं अपनी अधूरी बीड़ियाँ सुलगा,
ख़्याली सीढ़ियाँ चढ़कर
पहुँचता हूँ
निखरते चाँद के तल पर,
अचानक विकल होकर तब मुझी से लिपट जाती है।