चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)/मेरे सहचर मित्र

चाँद का मुँह टेढ़ा है (गजानन माधव मुक्तिबोध)
मेरे सहचर मित्र


मेरे सहचर मित्र

ज़िंदगी के फूटे घुटनों से बहती

रक्तधार का ज़िक्र न कर,

क्यों चढ़ा स्वयं के कंधों पर

यों खड़ा किया

नभ को छूने, मुझको तुमने।

अपने से दुगुना बड़ा किया

मुझको क्योंकर?

गंभीर तुम्हारे वक्षस्थल में

अनुभव-हिम-कन्या

गंगा-यमुना के जल की

पावन शक्तिमान् लहरें पी लेने दो।

ओ मित्र, तुम्हारे वक्षस्थल के भीतर के

अंतस्तल का पूरा विप्लव जी लेने दो।

उस विप्लव के निष्कर्षों के

धागों से अब

अपनी विदीर्ण जीवन-चादर सी लेने दो।


इस विप्लव की चल तड़िल्लता की

शय्या पर

लोटती हुई बेचैनी को मेरी आँखें

हैं देख रहीं...

प्रश्नों की दानव-काँखों में

ये दबे-घुटे क़ैदी उत्तर

पर, ज्यों-ज्यों उत्तर के मुख पर

उद्विग्न दृष्टि की किरणें केंद्रित करता हूँ

ये लाल-लाल आँखों से मेरा

पीला मुँह निहार कहते—

“हमको यों ग़लत न दो उपमा,

तुम अपनी सड़ी-गली महिमाओं की

निर्माल्य मालिकाएँ

हमको मत पहनाओ।

तुम, देखो तो उस ओर...।”

और, मैं आँखें फाड़े देख रहा...


उन नीले-नीले आसमान की सरहद पर

परिचिता एक कोमल चिड़िया,

जो नित्य तुम्हारे घर-आँगन

रोशनदानों में उड़ती थी

घर की आत्मा,

वह दूर क्षितिज पर ठहरी-सी

काली बिंदिया

उस नीले-नीले आसमान की सरहद पर

वन-पक्षिराज बन

पंख पसारे उड़ती हुई मुझसे कहती,

वह पक्षिराज मुझसे कहता--

“ओ मित्र, तुम्हारे घर-आँगन को

शैलांचल-गिरिराज-शिखर

तो होने दो

वह आसमान तो झुकने दो

उसके मुख पर

इस समय बात के पूरे नहीं अधूरे तुम,

कमज़ोर-प्रखर होना बाक़ी,

अब बूटों-दबा दीन ढेला

कैलाश-शिखर होना बाक़ी,

कैलाश-शिखर पर बैठेंगे!!”


मैं ज्यों-ज्यों उत्तर के मुख पर

उद्विग्न दृष्टि की किरणें केंद्रित करता हूँ

उत्तर का मुँह—

पहले बादल,

फिर बादल में मानव-मुख रेखा ऊर्जस्वल

भव्याकृति, स्वेदायित,

रक्तांकित मुख-मंडल

धीरे-धीरे आ मेरे इतने निकट कि वह

आँखों पर झुकता आता है,

इतना समीप झुकता कि

त्वचा की रेखाएँ

रक्तिम घावों में कटी-पिटीं,

मेरी आँखों में उमट रहीं।

वह घाव-भरे चेहरे का कोई सैनिक है।

रण मैदानों की संध्या में

जब लाल विभा बैंगनी हुई

सँवलाई लाली में डूबी सरिताओं की

थर्रायी लहरों के भीतर से उझक-उचक

झल्लाहट-भरी

दिली तकलीफ़ों की बिजली

या पीड़ा-भरे विचारों की

जल-मुर्ग़-मछलियों की उछाल

बेचैन कोण जब बना रही,

पीड़ा के उस सरिता-तट पर

शत हताहतों के बिखरे दल

में देख मुझे मूर्च्छित आहत

अपना गहरा साथी-सैनिक पहचान मुझे

यह जान कि मेरी अभी

धुकधुकी बाक़ी है

मेरे टटोलने प्राण झुक रहा आँखों में

वह उत्तर-सहचर सैनिक है।

उसके मुख का

उद्वेग-भरा आनंद-भरा

वह रंग

आँख पी लेती है

मूँद जाती है

उत्तर के मात्र स्पर्श ही से

निर्णायक ठंडी गर्म झनझनाहट गहरी

तन-मन में फैल कि प्राणों में

फन फैलाकर अड़ जाती है,

रुँध जाती है

औ’ अकस्मात्, जबरन, धक्के से

खुलता है

औ’ अंतर के उस गुहा-तिमिर में

एक सुदृढ़

पत्थर के टेबल पर रक्खे

रक्ताभ दीप की लौ

कुछ हिलती-डुलती है

अँधियाले में प्रस्फुटिता

लाल-वलय-शाली

अंगार-ज्योति के नीचे

पीड़ा की पुस्तक के पन्ने

स्वयं पलट जाते।

कालांतर-अनुभव ग्रंथ

देश-देशांतर के,

जो पड़ता हुआ जातवेदस् उद्दंड

क्रांतिदर्शी कोई

बैठा है पत्थर-कुर्सी पर आजानुबाहु,

वह सहसा उठ

आँधी-बिजली पानी के क्रुद्ध देवता से

घुस पड़े भव्य उत्तर का अभिवादन

प्रचंड

उससे विशाल आलिंगन कर

सहसा वह बहस छेड़ देता

मानव समाज-रूपांतर विधि

की धाराओं में मग्न

मानवी-प्राणों के

मर्मों की व्यथा-कथा... अंगार तपस्या पर

मानव-स्वभाव के प्रश्नों पर,

मानव-सभ्यता-समस्या पर,


उस गुहा-भीत से कान लगा मैं सुनता हूँ

जो बहस कि उससे ज्ञान हुआ—

यह ज्ञान कि तुमने कंधों पर

सहसा मुझको

क्यों खड़ा किया नभ को छूने

अपने से दुगुना बड़ा किया

जिससे पैरों की उँगली पर

तनकर ऊँची गर्दन कर दोनों हाथों से

मैं स्याह-चंद्र का फ़्यूज़ बल्ब

जल्दी निकाल

पावन-प्रकाश का प्राण-बल्ब

वह लगा सकूँ

जो बल्ब तुम्हीं ने श्रमपूर्वक तैयार किया

विक्षुब्ध ज़िंदगी की अपनी

वैज्ञानिक प्रयोगशाला में।

उस शाला का मैं एक अल्प-मति

विद्यार्थी,

जड़ लेखक हूँ मैं अननुभवी,

आयु में यद्यपि मैं प्रौढ़

बुद्धि से बालक हूँ

मैं एकलव्य जिसने निरखा—

ज्ञान के बंद दरवाज़े की दरार से ही

भीतर का महा मनोमंथन-शाली मनोज्ञ

प्राणार्षक प्रकाश देखा।

पथ पर मँडराते विद्यालय के शब्दों से

विद्या के स्वर-कोलाहल में से

छनकर कुछ आए

वाक्यों से प्राप्त किया—

सब ग्रंथाध्ययन वंचिता मति ने सड़कों पर

ज्ञान के हृदय जागृति स्वप्नों को

प्राप्त किया

बचपन से ही,

आश्चर्य-चकित जिज्ञासु-आत्मा

चढ़ती किरणों की चढ़ान

नभ शिखरों तक

छुटपन से ही।

उस मुक्ति-काम बेचैनी में

मैं उन ग़रीब गलियों में घूमा-झूमा हूँ

जिन गलियों में तुम अक्षयवट

ले शत-सहस्र भावना-विचारों के पल्लव

ओ जटा जटिल

अनुभव-शाखाएँ लिए खड़े।

जाने कितने जन-कष्टों की

पीढ़ियाँ दुःखों की देखी हैं तुमने,

उस अक्षयवट से मैं

चिंता में अकुलाता झूमा,

बेचैनी के साँपों को मैंने छाती से

उस अक्षयवट के तने-तने पर रगड़ा है,

वह रगड़ अभी तक बाक़ी है

व्रण रेखाएँ जिसकी इस छाती पर साक्षी।

ओ अक्षयवट, यदि तुम न रहे होते

मेरी इन गलियों

तो अंधकार के सिंधु-तले

पानी के काले थर के नीचे कीचड़ में

अज्ञान-ह्वेल की प्रदीर्घ भीषण ठठरी-सा

मैं कहीं पड़ा होता सूने में,

किसी चोर की गठरी-सा

रह अंधकार से भूसे-सा

निशि-वृषभ-गले!!


ख़ूँख़ार, सिनिक, संशयवादी

शायद मैं कहीं न हो जाऊँ,

इसलिए, बुद्धि के हाथों पैरों की बेड़ी

ज़ंजीरें खनकाकर तोड़ीं

तुमने निर्दय औज़ारों से,

टूटती बेड़ियों की नोकों

से ज़ख़्म हुआ औ’ ख़ून बहा—

यह जान तुरत

अपने अनुभव के गंधक का

चुपड़ा मरहम मेरे व्रण पर तुमने सहसा।

भीषण स्पर्शों की तेज़ दवा

झनझना गई तन-मन की ढीली रगें झटक-झटकाकर

तानीं, बना गई।

जब दीप्त तुम्हारी आँखों में

मेरी ताक़त बढ़ गई स्वयं,

तुम कर्मवाद के धीर दार्शनिक से लौटे

गंभीर चरण चुपचाप क़दम।

मैं फिर भी अपने घावों में

उलझा-सा हूँ

जिससे कि तुम्हारे कुशल अनुभवी

प्राणों की

मुझको सहायता मिलती रहे।


यह जान तुम्हारे माथे की

तीनों रेखाएँ उलझ गईं

नभ में निकाल रेखाएँ विद्युत की चमकीं

मैंने जब नीली चकाचौंध

वह, देखी तो

वे भीषण होकर गरज गईं

झूठे अवलंबन की शहनाई मूक हुई

भावुक निर्भरता का संबल दो टूक हुआ,

देखा—सहसा मैं बदल गया,

भूरे निःसंग रास्ते पर

मैं अपने को ही सहल गया।


अपने छोटे निज जीवन में

जी ली हैं अनगिन ज़िंदगियाँ।

ज़िंदगी हरेक—

ज्वलित चंदन का ईंधन है।

मेरी धमनी में जलते चंदन का धुआँ,

छाती के रेशे-रेशे में

उसने घुस-फँसकर की काली

धड़कन मेरी

पर वह काजल है चंदन का।

वह सँवलाया कलियाया मुँह

है सनेही-भरी चिंता में

शाल्मलि वृक्ष तले

उद्विग्न खड़े वनवासी दुर्धर अर्जुन का

जिसके नेत्रों में चमक उठे,

चंदन के पावन अंगारे,

जो सोच रहा क्यों मानव के

इस तुलसी-वन में आग लगी,

क्यों मारी-मारी फिरती है

मन की यह गहरी सज्जनता,

दुःख के कीड़ों ने खाई क्यों,

ये जूही-पत्तियाँ जीवन की,

निर्माल्य हुए क्यों फूल युवक

युवती जन के

क्यों मानव-सुलभ सहज

आकांक्षाओं के तरु

यों ठूँठ हुए वृंदावन के,

मानव-आदर्शों के गुंबद में आज यहाँ

उलटे लटके चिमगादड़ पापी

भावों के।

क्यों स्वार्थ-घृणा-कुत्सा के

थहर जंगल में

हैं भटक गए थे लक्ष्य

पुराने पाँवों के

क्यों घर-आँगन की मौन अकेली

छाया में

चिंता के प्रेत

स्याह-बदन

हैं झूल रहे...

आवाज़ कड़ी उस झूले की

धँसते हिय की हिलडोल बनी

लोहे का गाडर

छत की छाती पर धम से आ धमका

किस कारण से?

वह कारण, सामाजिक जंगल का

घुग्घू है,

है घुग्घू का संगठन, रात का तंबू है!!

यह भीतर की ज़िंदगी नहाती रहती है

हिय के विक्षोभों के ख़ूनी फ़व्वारों में,

अंगारों में

इस दिल के भरे रिवॉल्वर में

बेचैनी ज़ोर मारती है, इसमें क्या शक।

क्यों ताक़तवर उस मशीन के

पिस्टन की-सी दिल की धक्-धक्,

उद्दाम वेग से चला रही

ये लौहचक्र

मन-प्राण-बुद्धि के विक्षोभी

यह स्याह स्टीम-रोलर जीवन का,

सुख-दुख की

कंकर गिट्टी यक-साँ करके,

है एक रास्ता बना रहा युग के मन का

मेरे मन का!!


रास्ते पर इस—

मानव व्यक्तित्व-कदंबों की शीतल छाया,

विद्रोहों की विधियाँ,

विक्षोभी मन का बल,

छाती में मधुमक्खी का छत्ता फैला है

जो अकुलाया,

औ’ दंश-तत्परा मधुमक्खी के दल-दल।

रस-मर्मज्ञाओं की सेना स्नेहान्वेषी,

पर डंक सतत तैयार,

बुद्धि का नित संबल।

मधुमक्खी दल ने ज़िंदगियों के फूलों से

रस-बिंदु-मधुर एकत्रित कर संचित रखने

मेरे प्राणों में

अग्नि-परीक्षाओं-से गहरे छेद किए

छाती मधुपूरित अनगिन छेदों का जाला

आत्मा में मधुमक्खी का है छत्ता फैला!!

मानव व्यक्तित्व-कदंब-तले,

मधुमक्खी छत्ते के जाले,

तुमसे सीखा कैसे ये पाले जाते हैं,

मेरे दिन, मेरी रातों में

ओ सहचर मित्र, तुम्हारे दिन हैं,

रातें हैं।

मेरे भीतर

मानव व्यक्तित्व-कदंब-तले,

तरु के गंभीर तने पर चाक़ू से लिक्खीं

काटीं-खोदीं,

वाक्यावलियाँ ज़िंदगियों ने

ज़िंदगी हरेक-निजत्व लिए पलकें

खोले,

अपना-अपना व्यक्तित्व लिए

अलकें खोले

अंतर के तरु की शाखा-शाखा पर

प्रतिपल

चाक़ू से काट-काट, चित्रित करती है

गहरा संवेदन।

मानव व्यक्तित्व-कदंब-तले,

(गंभीर रात्रि में) आ करके,

चुपचाप सिमिट,

अकुलाहट की चाँदनी

सरल निर्व्याज मुखी

तरु-तने खुदीं वाक्यावलियाँ

पढ़ती है बहुत ध्यान से, तब

पढ़ते-पढ़ते अक्षर-दल से,

उमड़ी चंदन की ज्वालाएँ,

पावनता की विक्षुब्ध

रश्मियाँ भभक उठीं,


ये खोदे गए मर्म-सारांश भभकते हैं

बस इसी तरह

अर्थों की गहरी ज्वालाएँ दिन-रात

निकलतीं इसी तरह

माधुरी और करुणा में भीगी रहकर भी

जी के भीतर की शिलालेख चट्टान,

गर्म रहती ही है।

संघर्ष-मार्ग-इतिहास-मर्म कहती ही है

ओ मेरे सहचर मित्र,

क्षितिज के मस्तक पर नाचती हुई

दो तड़ितल्लताओं में मैत्री रहती ही है।