छायावादोत्तर हिंदी कविता/क़िस्सा ए जनतंत्र

छायावादोत्तर हिंदी कविता
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करछुल
बटलोही से बतियाती है और चिमटा
तवे से मचलता है
चूल्हा कुछ नहीं बोलता
चुपचाप जलता है और जलता रहता है

औरत
गवें गवें उठती है गगरी में
हाथ डालती है
फिर एक पोटली खोलती है।
उसे कठवत में झाड़ती है
लेकिन कठवत का पेट भरता ही नहीं
पतरमुही (पैथन तक नहीं छोड़ती)
सरर फरर बोलती है और बोलती रहती है

बच्चे आँगन में
आँगड़-बाँगड़ खेलते हैं
घोड़ा-हाथी खेलते हैं
चोर-साव खेलते हैं
राजा-रानी खेलते हैं और खेलते रहते हैं

चौके में खोई हुई औरत के हाथ
कुछ नहीं देखते
वे केवल रोटी बेलते हैं और बेलते रहते हैं
एक छोटा-सा जोड़-भाग
गश खाती हुई आग के साथ
चलता है और चलता रहता है
बड़कू को एक
छोटकू को आधा
परबती बालकिशुन आधे में आधा

कुछ रोटी छै
और तभी मुँह दुब्बर
दरबे में आता है 'खाना तैयार है?'
उसके आगे थाली आती है
कुल रोटी तीन
खाने से पहले मुँह दुब्बर
पेटभर
पानी पीता है और लजाता है
कुल रोटी तीन
पहले उसे थाली खाती है
फिर वह रोटी खाता है

और अब
पौने दस बजे हैं
कमरे में हर चीज़
एक रटी हुई रोज़मर्रा धुन
दुहराने लगती है
वक़्त घड़ी से निकलकर
अँगुली पर आ जाता है और जूता
पैरों में, एक दन्त टूटी कँघी
बालों में गाने लगती है
दो आँखें दरवाज़ा खोलती हैं
दो बच्चे टा टा कहते हैं

एक फटेहाल क्लफ कालर
टाँगों में अकड़ भरता है
और खटर पटर एक ढड्ढा साइकिल
लगभग भागते हुए चेहरे के साथ
दफ़्तर जाने लगती है
सहसा चौरस्ते पर जली लाल बत्ती जब
एक दर्द हौले से हिरदै को हूल गया
'ऐसी क्या हड़बड़ी कि जल्दी में पत्नी को चूमना
देखो, फिर भूल गया।’