छायावादोत्तर हिंदी कविता/सौंदर्यबोध

छायावादोत्तर हिंदी कविता
 ← क़िस्सा ए जनतंत्र सौंदर्यबोध भूख → 

अपने इस गटापारची बबुए के
पैरों में शहतीरें बांधकर
चौराहे पर खड़ा कर दो,
फिर, चुपचाप ढोल बजाते जाओ,
शायद पेट पल जाए :
दुनिया विवशता नहीं
कुतूहल खरीदती है।

भूखी बिल्ली की तरह
अपनी गरदन में संकरी हाँडी फँसाकर
हाथ-पैर पटको,
दीवारों से टकराओ,
महज छटपटाते जाओ,
शायद दया मिल जाए:
दुनिया आँसू पसन्द करती है
मगर शोख़ चेहरों के।

अपनी हर मृत्यु को
हरी-भरी क्यारियों में
मरी हुई तितलियों-सा
पंख रंगकर छोड़ दो,
शायद संवेदना मिल जाए :
दुनिया हाथों-हाथ उठा सकती है
मगर इस आश्वासन पर
कि रुमाल के हल्के-से स्पर्श के बाद
हथेली पर एक भी धब्बा नहीं रह जाएगा।

आज की दुनिया में
विवशता,
भूख,
मृत्यु,
सब सजाने के बाद ही
पहचानी जा सकती हैं।
बिना आकर्षण के दुकानें टूट जाती हैं।
शायद कल उनकी समाधियां नहीं बनेंगी
जो मरने के पूर्व
कफ़न और फूलों का
प्रबन्ध नहीं कर लेंगें।
ओछी नहीं है दुनिया :
मैं फिर कहता हूँ,
महज उसका सौंदर्य-बोध
बढ़ गया है।