छायावादोत्तर हिंदी कविता/प्रेत का बयान
“ओ रे प्रेत —”
कड़क कर बोले नरक के मालिक यमराज
—“सच-सच बतला!”
कैसे मरा तू?
भूख से, अकाल से?
बुखार कालाजार से?
पेचिस बदहजमी, प्लेग महामारी से?
कैसे मरा तू, सच-सच बतला!”
खड़-खड़-खड़-खड़, हड़-हड़-हड़-हड़
काँपा कुछ हाड़ों का मानवीय ढाँचा
नचाकर लंबे चमचों-सा पंचगुरा हाथ
रूखी-पतली किट-किट आवाज़ में
प्रेत ने जवाब दिया—
“महाराज!
सच-सच कहूँगा
झूठ नहीं बोलूँगा
नागरिक हैं हम स्वाधीन भारत के...
पूर्णिया जिला है, सूबा बिहार के सिवान पर
थाना धमदाहा, बस्ती रुपउली
जाति का कायथ
उमर है लगभग पचपन साल की
पेशा से प्राइमरी स्कूल का मास्टर था
तनखा थी तीस, सो भी नहीं मिली
मुश्किल से काटे हैं
एक नहीं, दो नहीं, नौ-नौ महीने!
घरनी थी, माँ थी, बच्चे थे चार
आ चुके हैं वे भी दया सागर करुणा के अवतार
आपकी ही छाया में!
मैं ही था बाकी
क्योंकि करमी की पत्तियाँ अभी कुछ शेष थीं
हमारे अपने पुश्तैनी पोखर में
मनोबल शेष था, सूखे शरीर में...”
“अरे वाह—”
भभाकर हँस पड़ा नरक का राजा
दमक उठीं झालरें कंपमान सिर के मुकुट की
फर्श पर ठोककर सुनंहला लौह दंड
अविश्वास की हँसी हँसा दंडपाणि महाकाल
“—बड़े अच्छे मास्टर हो :
आए हो मुझको भी पढ़ाने!!
मैं भी तो बच्चा हूँ...
वाह भाई वाह!
तो तुम भूख से नहीं मरे?”
हद से ज्याद डालकर जोर
होकर कठोर
प्रेत फिर बोला
“अचरज की बात है
यकीन नहीं आता है मेरी बात पर आपको?”
कीजिए न कीजिए आप चाहे विश्वास
साक्षी है धरती, साक्षी है आकाश
और और और भले व्याधियाँ हों भारत में...किंत...
उठाकर दोनों बाँह
किट-किट करने लगा जोरों से प्रेत
—“किंतु भूख या क्षुधा नाम हो जिसका
ऐसा किसी व्याधि का पता नहीं हमको
सावधान महाराज
नाम नहीं लीजिएगा
हमारे सामने कभी फिर भूख का”
निकल गया भाफ आवेग का
शांत स्तिमित स्वर में प्रेम फिर बोला—
“जहाँ तक मेरी अपनी बात है
तनिक भी पीर नहीं
दुख नहीं, दुविधा नहीं
सरलतापूर्वक निकले थे प्राण
सह नहीं सकी आँत जब पेचिश का हमला...”
सुनकर दहाड़
स्वाधीन भारतीय प्राइमरी स्कूल के
भुखमरे स्वाभिमानी सुशिक्षित प्रेत की
रह गए निरुत्तर
महामहिम नरकेश्वर!![१]
(1949)
संदर्भ
सम्पादन- ↑ सिंह, नामवर, संपा. (1984). नागार्जुन : प्रतिनिधि कविताएँ (2006 संस्क.). पृप. 94–96. आइएसबीएन 81-267-0604-X.